ईद की शुभकामनाओं में लिपटी भारत के इतिहास की कुछ अनोखी कहानियाँ

उत्सव-पर्व धर्म की बात हैं, ठीक! पर क्या ये बस धर्म की बात है? नहीं! हर पर्व अपने इतिहास में हमारे देश, समाज, संकृति के इतिहास का एक टुकड़ा समेटे बैठा है। हर साल वो पर्व आ कर उस इतिहास की विरासत भी आगे बढ़ाता है। ईद ऐसा ही एक पर्व है, जो दिवाली, छठ और दशहरे की तरह हमारे देश और संस्कृति का एक हिस्सा ही नहीं, इसके इतिहास में छिपी कहानियों का एक पिटारा भी है।
रमज़ान अरबी के ‘रम्ज़’ शब्द से आया है, जिसका मतलब है ‘जलना’। रमजान के महीने में रखे गए उपवास इंसान का आत्म-नियंत्रण और सहनशक्ति बढ़ाने के साथ उसके मन की सारी बुराइयों को जलाने का साधन माने जाते हैं। रमज़ान के महीने में अपनी आमदनी का एक हिस्सा ‘जकात’ और ‘फितरा’ के रूप में दान देना हर समर्थ मुसलमान के लिए ज़रूरी है। ईद के पहले सभी को अपनी आमदनी से 2.5% का जकात चुका देना अनिवार्य है। महीने भर के रोज़े के बाद ईद का त्यौहार दावत और खुशियाँ मनाने का दिन होता है, होली की तरह इस दिन भी लोग एक दुसरे के पास मिलने-मिलाने जाते हैं और सुख-शांति और बरक्कत की दुआएं करते हैं।
ईद मूल रूप से भाईचारे को बढ़ावा देने का त्योहार है। इसलिए इसका इतिहास भारत में भाईचारे और सद्भाव के इतिहास से जुड़ा हुआ है। आइए आज के दिन इस इतहास के कुछ पन्नों को पलटें!
महाभारत लिखने वाला ‘राही’
“मैं समय हूँ, और आज महाभारत की अमर कथा सुनाने जा रहा हूँ”… ये लाइन भारतीयों की एक पूरी पीढ़े के कानों के लिए अपने बचपन और यौवन की यादें ताज़ा कर देती है। लोकप्रिय दूरदर्शन का नाटक ‘महाभारत’ की कथा सूनाने वाली यह कलम किसी और की नहीं बल्की जाने माने साहित्यकार डॉ. राही मासूम रज़ा की थी। जब निर्माता बीआर चोपरा ने रज़ा से नाटक की स्क्रिप्ट लिखने की दरख्वास्त की तो उन्हों ने वक्त की कमी के कारण इनकार कर दिया था। लेकिन बीआर चोपरा का यह प्रस्ताव समाज में फ़ैल गया और कट्टरपंथी लोग चोपरा की निंदा करते ख़त लिखने लगे। उनका मूल जोर था कि इतने हिन्दुओं के बीच एक मुसलमान से महाभारत क्यों लिखवाई जाएगी? यह सारे पत्र चोपरा ने रज़ा को भेज दिए। ख़त पढ़ कर, घाज़िपुर के गंगौली गाँव में पैदा हुए रज़ा साहब ने कहा, “मैं गंगा का बेटा हूँ, मुझसे ज़्यादा हिन्दुस्तान की संस्कृति और सभ्यता को कौन जानता है। महाभारत मैं ही लिखूंगा।” बाद में उन्होंने कहा “मैंने इसको लिखना कबूल इसलिए किया क्योंकि मैं जानता था कि मैं इसको, हिन्दुस्तान के गुज़रे हुए कल को हिन्दुस्तान के आज से जोड़ सकता हूँ।” अंततः, राही की लिखी हुई ‘महाभारत’ देश के इतिहास में सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले नाटकों में से एक बनी।

रंग बिन बनी होली रंगीन
होली भारत के प्रमुख पर्वों में से एक है, लेकिन राम और कृष्ण की जन्मभूमि माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में इसका ख़ास महत्व है। यही उत्तर प्रदेश भारत के गंगा-जमुनी तहज़ीब की सबसे उपजाऊ ज़मीन भी है, जहाँ हिन्दू और मुसलमान समुदाय सैकड़ों सालों से साथ रहते और एक दुसरे के पर्व मनाते आ रहे हैं। कहा जाता है कि एक बार होली का दिन मुहर्रम के10वें दिन अशुरा पर पड़ गया। लखनऊ के हिन्दू समुदाय ने मुहर्रम के शोक के माहौल को देखते हुए उस होली रंग बिना खेले ही होली मनाने का फैसला लिया। जब होली की सुबह अवध के नवाब वाजिद अली शाह को लोगों के इस फैसले का पता चला तो उन्होंने खुद गुलाल मंगवा कर रंग खेलने की शुरुआत की। अवध की जनता ने दिन में होली के रंग खेले और शाम में मुहर्रम का मातम मनाया। वाजिद-अली-शाह को न जानने वाले भी उनकी कलम से लिखी इस ठुमरी “बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए” को जानते होंगे जो आज भी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का लोकप्रीय गाना है। उनकी पत्नी बेगम हज़रत महल 1857 के विद्रोह की अगवाई के लिए याद की जाती हैं।

जहाँ मंदिर की राह मस्जिद से हो कर गुज़रती है
केरल में स्थित प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर जाने वाले सभी तीर्थयात्री पहले एरुमेली में वावर की मस्जिद के दर्शन करते हुए जाते हैं। आय्यपन और वावर की दोस्ती हिन्दू धार्मिक कथाओं में बखूबी दर्ज है। वावर ने आयापन को युद्ध में जीतने में मदद की थी जो उनकी दोस्ती की नींव बनी। कहा जाता है कि आयप्पन ने अपने सभी अनुयाइयों से कहा था कि उनसे सबरीमाला में मिलने आने के पहले वे एरुमेली में वावर की मस्जिद से हो कर आएँ। इसके अतिरिक्त सबरीमाला मंदिर के अन्दर आज भी वावर का मंदिर है जहाँ इस्लाम के नियमों के मुताबिक़ कोई बुत नहीं रखा है, एक दीवार पर हरा पर्दा टेंगा है और जिसमें प्रार्थना का काम एक मुसलमान मौलवी ही करता है।

त्योहारों का राजनैतिक इस्तेमाल: लोगों की श्रद्धा से खिलवाड़
पिछले सालों में हमारे देश का राजनीतिक मौसम कुछ ऐसा बिगड़ा है कि खाने की खुशबु, गानों की झनक और रौशनी के फवारे लाने वाला हर उत्सव अब चिंता और टकराव, बटवारे और अलगाव का द्योतक बन गया है। कोरोना लॉकडाउन के समय महाभारत और रामायण का टीवी प्रसारण लोगों का ध्यान सरकार की महामारी से निपटने की प्रशासनिक नकामियाबी पर पर्दा डालने के लिए इस्तेमाल किया गया। गंगा-जमुनी तहज़ीब के मिसाल उत्तरप्रदेश में एक मस्जिदों के बाद दूसरी को तोड़ कर मंदिर बनाने की खबरें आम होती जा रही हैं। और सबरीमाला की कहानी में धार्मिक समुदाय के परे जा कर दोस्ती का पहलु महिलाओं पर पाबंदियां बनाए रखने की होड़ में भुला दिया गया है। हनुमान जयंती और राम नौमी के त्यौहार शक्ति प्रदर्शन और दबंगई के मौके बन गए हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि हम हर त्यौहार के पीछे के इतिहास और सन्देश को जानने की कोशिश करें। कहीं हम अपने संकृति और इतिहास में मौजूद अनुभव के मोती फ़ेंक कर सीपियों के खले में न उलझ कर रह जाएँ। ईद के अवसर पर, खुशियों और भाईचारे की साझी विरासत हर भारतीय को मुबारक हो।