सप्ताह की कविताएं : धर्म की राजनीति !

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एक दिन ऐसा आता है / महेश पुनेठा

एक दिन ऐसा आता है
कि हम मनुष्य को छोड़
‘कुओं’ और ‘दीवारों’ से
प्यार करने लगते हैं
इन ‘कुओं’ और ‘दीवारों’ की
रक्षा के लिये
अपनी संतान तक की भी
बलि देने को तैयार हो जाते हैं

यह एक दिन में नहीं होता है

कब और कैसे
हम मनुष्य से अमनुष्य बन जाते हैं
कौन हमें इस ओर धकेलता है
हमें कुछ भी पता नहीं चलता है
आश्चर्य फिर भी हम
खुद को मनुष्य कहते हैं ।


भूख इस देश का राष्ट्रगान हो चुका था / रंजीत वर्मा

देश भयावह दौर से गुज़र रहा था
हर कोई ईश्वर की शरण में जाने को बेचैन था
या विवश था
या क्या पता शायद इसी बहाने उन्हें
मन की साध पूरी करने का
अवसर मिल गया था

लोग समझते थे
कि आपदा को अवसर में बदलने की कला
सिर्फ वही जानता है जबकि
यहाँ इस कला में माहिर लोगों की भीड़ थी

एक ब्राह्मण कवि
आपदा को अवसर में बदलते हुए
ईश्वर के करीब पहुंच गया था
वह उनसे विनती कर रहा था
कि वह बस यूं ही
भूखे पेट बिना कुछ मांगे
उसके घर के किसी कोने में पड़ा रहेगा
और इसके एवज में
वह सेवा में जी जान लड़ा देगा
पूरा जीवन वह चरण पखारता गुजार देगा
लाइए पैर दबा दूं
ईश्वर के पैर पकड़ता वह बोल रहा था
लगता है उसका ईश्वर मान गया था

एक दूसरा ब्राह्मण कवि
जो भारत में कहीं बहुत दूर रहता था
भीड़ में ईश्वर को तलाश रहा था
वह ईश्वर के चेहरे पर
अपना दुख देखना चाहता था

एक हिंदू कवि उम्मीद से
आसमान की ओर ताकते हुए
आश्वस्त था
धरती का रंग एक दिन जरूर बदलेगा

तुलसीदास के जन्मोत्सव
के आस-पास का समय था
मंदिर के भूमिपूजन का दिन नजदीक था
कवि नारा नहीं लगा रहे थे
लेकिन जय श्रीराम का नारा
एक कविता से दूसरी कविता में
चुपचाप पहुंच रहा था
एक कवि
संयोग से वह भी ब्राह्मण था
एक साक्षात्कार में कह रहा था कि
कविता में घृणा के लिए कोई स्थान नहीं है
जाहिर था कि प्रेमचंद का साहित्य
वह बोरे में बंद कर घर से निकला था

एक दलित कवि फ़ोन पर
धर्म और अध्यात्म के फर्क को समझाते हुए
दूसरे दलित कवि से कह रहा था
कहीं भी ध्यान लगाकर बैठ जाओ
शांति मिल जाएगी
इसके लिए किसी मंदिर या मस्जिद की क्या जरूरत
उसके सामने शायद बुद्ध का उदाहरण था
वैसे वह जानता था
कि उसके लिए मंदिर कोई नहीं बनाएगा
और किसी मस्जिद को गिराकर बना दे
इसकी तो वह कल्पना भी नहीं कर सकता था

एक मुसलमान कवि गुस्से में था
कि पूरे मुल्क में क्यों एक अश्लील चुप्पी छाई हुई है
सन् 92 की नाराजगी
सन् 20 में क्यों नहीं कहीं दिखती है
जबकि वहीं जहाँ मस्जिद हुआ करती थी
राम मंदिर के भूमिपूजन के लिए पंडाल सज चुका था
संविधान के अनुच्छेदों में वह
अपने गुस्से की वजहें तलाश रहा था

कुछ कवि मोर्चे पर थे
जब लौटे तो अप्रासंगिक हो चुके थे
युद्ध पुरानी बात हो चुकी थी
लोग युद्ध को भूल चुके थे
कितनों ने तो
ऐसे किसी युद्ध के बारे में
कुछ सुना भी नहीं था

मस्जिद गिराने वाले मर चुके थे
मंदिर बनाने वालों का कहीं अता-पता नहीं था
मस्जिद के ढूह से आधा हिंदुस्तान दब गया था
जहाँ विनय पत्रिका के पीले पड़ चुके पन्ने
चमगादड़ों की तरह उड़ते थे

एक देश था
जो देखते-देखते
भुतहा खंडहर हो गया था
आपदा को अवसर में बदलने की कला
देश के सारे अवसर को निगल चुकी थी
और उसे आपदा के
विकराल मुंह में ढकेल चुकी थी

भूख इस देश का राष्ट्रगान हो चुका था।


सब जन एक समान / कलादास

राम से बड़ा
रोटी,कपड़ा,मकान
देश का सँविधान
आनबान,सान
धर्म निरपेक्ष पहचान
कश्मीर से लेकर
कन्याकुमारी तक
उठ रहा
विरोध का तूफान
आस्था के नाम पर
राजनीति
ऐसा क़्यो है प्रधान?
हम दिया नही जलाएंगे
नई आजादी के लिए
गीत गाएंगे
गगन भेदी नारा लगाएंगे
तब होगा भारत देश
सबसे महान
न जाती न धर्म
सब जन एक समान


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हे राम / राजाराम चौधरी

हे राम
यही अंजाम होना था तेरा
रघुपति राघव राजाराम
आत्मा ही मारी गई
गाँधी तेरे ईश्वर अल्ला एक
नाम नहीं रह सके
हो गया जय श्रीराम
हे महात्मा
धर्म और राजनीति की खिचड़ी
कच्ची तेरी पक गई
सुन अट्टहास
हत्यारे का

हाँ सब तेरी ही गलती है
सही कहते हैं वे नेहरू
पूजीवाद में समाजवाद का
मिश्रण ही तो
बनगया है यौगिक.अब
एक गई तो आ गईं बहु
राष्टृीय कम्पनियाँ
सांस्कृतिक राष्ट्रीय हुईं
अधूरी थी पूर्ण हुई गुलामी
जो आजादी कहलाती थी

संविधान पुस्तक के
धारक ओ अम्बेदकर
मूर्ति तेरी पूज्य हुई
सत्ता में आरक्षित कुर्सी पर
जमा तेरे खरताली सब
मौन सहमति में नतसिर बैठे हैं
तेरी आशंका को सच साबित करते
आवरण वही
बस मानी भर बदले हैं
घोषणा नहीं
होता है शिलान्यास
वर्ण व्यवस्थित
हिंदू राष्ट्र का

सुन ओ भगतसिंह
अधूरे तेरे सपने को
पूरा करने के व्रती हम
आज हत प्रभ हैं
बंदी हैं हमारे
कवि विचारक सब
प्रथम पुरुष देश के
पर हौसला बुलंद है
हमारा संघर्ष है अनथक
जानते हम
चमकते अँधियारे का
यह अंतिम प्रहर है
हाथों में लाल झंडा हमारा
मुक्तिबोध प्रखर है
कौन रोक सका है सबेरा
अंतिम विजय हमारी होगी
तय है।


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भारत अब धर्म निरपेक्ष नहीं, हिन्दू राष्ट्र है / नवल किशोर नवल

अत्याचार करने के बाद
तानाशाह अपने आराध्य की शरण में जाता है
हाथ जोड़ता है और
मंत्र भी बुदबुदाता है
अखबारों में उसकी फोटो
पहले पन्ने पर छापी जाती है
जनता ताली बजाती है
और ताली नहीं बजाने वाले
देशद्रोही की संज्ञा पाते हैं।

बाजदफा मैं सोचता हूं
ठीक वैसे ही
तानाशाह को तानाशाह ही क्यों कहा जाता है
क्यों नहीं उसे राम की तरह
मर्यादा पुरूषोत्तम की उपमा दी जाती है
जबकि तानाशाह तो
राम की तुलना में कम पतित होता है।

तानाशाह की तानाशाही
घोषित तानाशाही होती है
उसकी गोलियां निहत्थें को मारती जरूर है
लेकिन उनकी आंखें बंद नहीं होतीं
शंबूक की तरह
तानाशाह अपने हर अत्याचार के बाद
धर्म का प्रवचन नहीं देता
कुटिल मुस्कान के साथ हंसता है
या फिर खामोश हो जाता है।

तानाशाह जानता है
राम की पूजा से उसे सुकून नहीं मिलने वाला
उसे चाहिए जल, जंगल और जमीन
उसे चाहिए निहत्थे आदिवासियों का खून
उसे चाहिए निर्दोष लोगों के रोने की आवाज
उसे चाहिए एक खामोश मुल्क
उसे चाहिए चाटुकारों की फौज
उसे चाहिए इतिहास में अमर बनाने वाले लोग
क्योंकि
इतिहास ही ब्रह्म सत्य है
बगैर इतिहास के
सत्ता, लोकप्रियता और उसका तानाशाह होना
सब मिथ्या है
सब माया-मोह है।

देश का तानाशाह
आज फिर हंस रहा है और
देश उसकी हंसी पर
ठहाके लगा रहा है
संसद, अदालत मौन है
बुद्धिजीवी आसमान से पुष्प वर्षा कर रहे हैं।

आओ हम करें स्वागत कि
देश में हिन्दू राज लौटा है
धर्मनिरपेक्ष मुल्क आज हवन में
जलाकर भस्म कर दिया गया है।

आओ करें हम सब मिलकर आरती
या फिर दें तिलांजलि उसे
जो हमारे बीच मौजूद था अबतक
जिसे महसूस कर हम
गौरवान्वित होते थे कि
हम, भारत के लोग,
भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न,
समाजवादी ,धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए,
तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में,
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता
सुनिश्चित कराने वाली, बन्धुता बढ़ाने के लिए,
दृढ़ संकल्पित होकर संविधान को अंगीकृत,
अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

आओ करें पश्चाताप कि
देश में हिंदू सवर्ण होना पुण्य
और मुसलमान होना पाप हो गया है।



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