खुदीराम बोस का बलिदान उन अनगिनत शहादतों में है जो अंग्रेजी हुकूमत के लिए बड़ी चुनौती बनी। उनकी शहादत हमेशा ही न्याय और मुक्ति के संघर्षों को प्रेरणा देती रहेगी। मात्र 18 वर्ष की उम्र में देश की आजादी के लिए फांसी का फंदा चूम लेने वाले खुदीराम बोस का 11 अगस्त शहादत दिवस है। खुदीराम बोस की शहादत उन सैकड़ों शहादतों में से एक रही है जो अंग्रेजी हुकूमत के लिए बड़ी चुनौती साबित हुई। अठारह साल के नौजवान खुदीराम बोस द्वारा हंसते हुए फांसी के फंदे पर झूल जाने की घटना ने कविता और गीतों की रचना को प्रेरित किया और जनमानस में आजादी की चाहत को तेज किया। खुदीराम का प्रारम्भिक जीवन 3 दिसंबर, 1889 को बंगाल के मिदनापुर के पास हबीबपुर गांव में जन्मे खुदीराम के पिता त्रिलोक्यनाथ बसु नाराजोल स्टेट के तहसीलदार थे। मां लक्ष्मीप्रिया देवी ने बेटे के पैदा होने के बाद अकाल मृत्यु टालने के लिए प्रतीकस्वरूप उसे किसी को बेच दिया। उस दौर और इलाके के चलन के मुताबिक बहन अपरूपा ने तीन मुठ्ठी खुदी (चावल के छोटे-छोटे टुकड़े) देकर अपना भाई वापस ले लिया। चूंकि खुदी के बदले परिवार में वापसी हुई, इसलिए नाम दिया खुदीराम। खुदीराम के छह साल का होने तक माता-पिता दोनों का साया सिर से उठ गया। स्नेह-वात्सल्य उड़ेलती दीदी अपरूपा ने मां-बहन दोनों की जिम्मेदारियां निभाईं और उनका पालन-पोषण किया। वे अपने स्कूली दिनों से ही राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। बंगाल विभाजन के विरोध में पैदा हुए देशव्यापी आक्रोश के दौर में खुदीराम बोस ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। उनके छात्र जीवन के दौर में बंगाल में हैजा फैला। जब रोगियों के नजदीक जाने की लोग हिम्मत नही जुटा पा रहे थे, तब खुदीराम रोगियों की सेवा करते। रात में लोग श्मशान के जिस पेड़ पर भूत रहने के खौफ में जाने की हिम्मत नही करते, खुदीराम ने देर रात उस पेड़ की टहनी तोड़ कर लोगों का भ्रम दूर किया। बंगाल विभाजन की मुखालफत अंग्रेजां ने अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के आधार पर 1905 में बंगाल का विभाजन कर दो प्रांत में बाँट दिया। पहला बंगाल था जिसमें आज का पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और बिहार शामिल था। दूसरा प्रांत पूर्वी बंगाल और असम बना, जिसमें आज का बांग्लादेश और असम शामिल था। यह विभाजन सांप्रदायिक आधार पर था। जनता ने इसे अपनी मातृभूमि का अपमान माना। पूरे देश में आक्रोश का ज्वार फैल गया और स्वदेशी और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन फूट पड़ा। रविन्द्र नाथ टैगोर ने विभाजन के खिलाफ आमार सोनार बांग्ला गीत की रचना की जो काफी लोकप्रिय हुआ। आज यह गीत बांग्लादेश का राष्ट्रीय गीत है। बंग-भंग विरोधी आंदोलन खुदीराम के जीवन में नया मोड़ लेकर आया। आठवीं कक्षा के विद्यार्थी खुदीराम विभाजन के विरोध में सक्रिय हो गए। उन्होंने तमाम लोगों के साथ बंग विभाजन रद्द न होने तक विदेशी वस्तुओं को हाथ न लगाने की शपथ ली। क्रांतिकारी सक्रियता का दौर खुदीराम ने नौवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी और आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। वे अरविंदो घोष के अनुशीलन समिति के संपर्क में आ चुके थे। अनुशीलन समिति अपनी शाखाओं द्वारा नौजवानों को संगठित करता था। इन शाखाओं में गीता का अध्ययन, कुश्ती और लाठी चलाने से संबंधित अभ्यास और बम बनाने आदि का प्रशिक्षण दिया जाता था। 1902 और 1903 में श्री अरविंदो और सिस्टर निवेदिता ने मिदनापुर में कुछ जनसभाओं और बंद बैठकों को संबोधित किया। खुदीराम ने इसमें सक्रिय भागीदारी निभाई। अनुशीलन समिति में सक्रियता के साथ वे क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देने लगे। 28 फरवरी, 1906 को वे गिरफ्तार हुए, लेकिन कैद से भाग निकले। करीब दो माह बाद वह फिर पकड़े गये। लेकिन उम्र कम होने की वजह से उन्हें 16 मई, 1906 को रिहा कर दिया गया। 6 दिसंबर, 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गर्वनर की विशेष ट्रेन पर हमला किया परंतु गर्वनर बच गया। 1908 में खुदीराम ने दो अंग्रेज अधिकारियों वाटसन और पैम्फायल्ट फूलर पर बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले। जालिम डगलस किंग्सफोर्ड को मारने का अभियान आरविंदो घोष और विपिन चन्द्र पाल के मुकदमे पर सुनवाई के दौरान क्रांतिकारियों को पुलिस द्वारा पीटे जाने की कार्यवाही का एक 15 वर्षीय नौजवान सुशील सेन ने विरोध किया। कलकत्ता का चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट कुख्यात डगलस किंग्सफोर्ड ने किशोर सुशील सेन को 15 कोडे़ लगाने की सजा सुनाई। हर कोडे़ के साथ सुशील सेन वंदे मातरम का नारा लगाता रहा। यह खबर अखबारों में काफी छपी। क्रांतिकारियों में इस खबर से आक्रोश फैल गया और उन्होंने तय किया कि बदला ही किंग्सफोर्ड का एक मात्र इलाज है। लेकिल, ब्रिटिश सरकार को इसकी भनक लग गयी और उसने किंग्सफोर्ड का तबादला कलकत्ता से मुजफ्फरपुर कर दिया। क्रांतिकारियों ने किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर में ही मारने का निर्णय लिया। इस कठिन मिशन की जिम्मेदारी खुदीराम बोस और प्रभुल्ल कुमार चाकी को मिली। दोनों क्रांतिकारियों को मुजफ्फरपुर में मोतीझील भेजा गया। जहाँ उन्होंने अपना छद्मनाम हरेन सरकार और दिनेश राय रखा और किशोरीमोहन बंधोपाध्याय के धर्मशाला में डेरा डाला। किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का जायजा लिया। 30 अप्रैल, 1908 की शाम करीब साढे़ आठ बजे दोनों क्रांतिकारी यूरोपीय क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड की बग्घी के बाहर आने का इंतजार कर रहे थे। जैसे ही बग्घी बाहर आयी वे फुर्ती से आगे बढ़े और बचाव के लिए एक हाथ में पिस्तौल लिए दूसरे हाथ से बम फेंका। बम निशाने पर था और बग्घी नष्ट होकर जलने लगी। दोनों तुरंत वहां से अंधेरे का फायदा उठाकर स्टेशन की तरफ भाग निकले। लेकिन एक चूक हो गई। बम दूसरी बग्घी में गिरा, जिसमें किंग्सफोर्ड नहीं बल्कि एक बैरिस्टर प्रिंगस केनेडी की पत्नी और बेटी थे और उन दोनों की मौत हो गयी। चारों तरफ हड़कंप मच गया। चारों तरफ पुलिस तैनात हो गई। अधिकारियों ने हमलावरों को पकड़ने वाले या पुलिस को उन तक पहुंचने में मदद करने वाले को एक हजार रूपये का इनाम देने की घोषणा की। प्रफुल्ल चाकी हुए शहीद दोनों क्रांतिकारी अलग-अलग पैदल ही मुजफ्फरपुर से दूर निकलने की कोशिश कर रहे थे। पूरी रात और आधे दिन की यात्रा के बाद बेदम हो चुके प्रफुल्ल चाकी को सरकारी कर्मचारी त्रिगुणाचरण घोष ने देखा और उन्हें आभाष हुआ कि नौजवान बम हमला करने वाले क्रांतिकारियों में से एक है। सरकारी कर्मचारी होने के बावजूद वे प्रफुल्ल को अपने घर ले गये और उनके नहाने, खाने, आराम करने व कपड़ों तथा कलकत्ता सुरक्षित वापसी का इंतजाम किया। लेकिन ट्रेन में पुलिस के एक दरोगा नंदलाल बनर्जी ने सहयात्री की आड़ में उन्हें फंसाने की कोशिश की। मोकामाघाट पर ट्रेन बदलते वक़्त उक्त दरोगा ने तमाम पुलिस के साथ उनकी घेराबंदी कर दी। बचाव में उन्होंने दरोगा पर गोली चलाई लेकिन वे असफल रहे। ब्रिटिश पुलिस की पकड़ में आने से पूर्व उन्होंने अपने आप को गोली मार ली और शहीद हो गए। खुदी राम बोस की गिरफ़्तारी खुदीराम 25 मील पैदल चलकर भूखे-प्यासे वैनी स्टेशन पहुंचे। एक चाय की दुकान पर मौजूद दो सिपाहियों ने संदेह के आधार पर खुदीराम से पूछताछ शुरू कर दी और उन्होंने खुदीराम को हिरासत में लेने की कोशिश की। खुदीराम दोनों से संघर्ष करने लगे। इस दौरान उनके दो में से एक रिवाल्वर गिर गया। इसी दौरान एक सिपाही ने उन्हें पीछे से दबोच लिया। उनके पास से 37 गोलियां, 30 रूपये नकद, एक रेल नक्शा और रेल टाइम टेबल का एक पेज बरामद हुआ। 1 मई को हथकड़ी लगाकर खुदीराम को मुजफ्फरपुर लाया गया। सशस्त्र पुलिस से घिरे इस नौजवान को देखने पूरा शहर उमड़ पड़ा। 18 साल का यह युवा क्रांतिकारी बेखौफ स्टेशन से बाहर निकला और तांगे पर बैठने के साथ जोश-खरोश के साथ वंदे मातरम् का नारा लगाया। अन्यायी सरकार द्वारा फांसी की सजा वे मुस्कुराकर सुने 25 मई 1908 को अदालती कार्यवाही शुरू हुई। शरीर से पतले दुबले खुदीराम मुकदमे का सामना करते समय चट्टान थे। उनका वजन दो पाउंड बढ़ गया था। बिना किसी भय के उन्होंने स्वीकार किया कि अत्याचारी किंग्सफोर्ड पर उन्होंने बम फेंका था। हालांकि उन्हें इस बात का अफसोस था कि इस कोशिश में दो निर्दोष महिलाएं मारी गईं। उन्होंने कहा कि देश को अपनी मां की तरह प्यार करने वाले क्रांतिकारी रास्ते की किसी रुकावट को बर्दाश्त नही करेंगे। हर कांटे को निकाल फेंकेंगे। उनका देश स्वतंत्र होना चाहिए। खुदीराम के मुकदमे को लड़ने के लिए कई नामी-गिरामी वकीलों ने निशुल्क अपने आप को पेश किया। लेकिन ब्रिटिश अदालतें क्रांतिकारियों को सख्त से सख्त सजा सुनाने पर आमादा रहती थीं। 13 जून को निचली अदालत ने खुदीराम को मौत की सजा सुनाई। फैसला सुनने के साथ खुदीराम मुस्कुरा उठे। आश्चर्यचकित जज ने पूछा कि क्या तुम्हें सजा के बारे में पूरी बात समझ में आ गई है। खुदीराम ने दृढ़ता से कहा कि न सिर्फ उनको फैसला पूरी तरह समझ में आ गया है, बल्कि समय मिला तो वह जज को बम बनाना भी सिखा देंगे। 13 जुलाई, 1908 को कलकत्ता हाईकोर्ट ने सेशन कोर्ट के फैसले पर मोहर लगाकर फांसी की सजा को बहाल रखा। 11 अगस्त, 1908 को उन्हें फांसी दे दी गयी। उस वक्त जेल के पास और शवयात्रा में छात्र-नौजवानों सहित भारी जन समुदाय उमड़ पड़ा। फांसी की सजा से एक दिन पहले खुदीराम बोस ने वकीलों से कहा था, 'चिंता मत कीजिए। ...मुझे मौत का भय नहीं है।' खुदीराम को फांसी के इस फैसले से पूरे देश में गुस्से की लहर फैल गयी। कलकत्ता का पूरा छात्र समुदाय तीखे विरोध में उतर पड़ा। कुछ दिनों तक कलकत्ता की सड़के पूरे-पूरे दिन जुलूसों की वजह से जाम थी। जनमानस में जोरदार लोकप्रियता उनकी फांसी के बाद 'इम्पायर' अखबार ने लिखा– 'फांसी का फंदा गले में डाले जाते समय वह तनकर खड़े थे। प्रसन्न थे। मुस्कुरा रहे थे। श्मशान घाट पर खुदीराम की अस्थियों की राख पाने के लिए जनता व्याकुल थी। डिब्बियों में उसे संजो रहे थे। बाद में ताबीज में भरकर माताओं ने अपने बच्चों को बांधा ताकि वे भी खुदीराम बोस जैसे बहादुर देशभक्त बनें। बोस के बलिदान का संदेश दूर तक फैला और लोगों का अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा तेज हुआ। क्रांतिकारी संगठनों से जुड़ने वाले युवकों की तेजी से तादाद बढ़ने लगी।' फाँसी के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गये कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। इतिहासवेत्ता शिरोल के अनुसार बंगाल की संग्रामी जनता के लिये वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। कई दिन तक स्कूल, कॉलेज, बाजार सभी बन्द रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे, जिनकी किनारी पर ‘खुदीराम’ लिखा होता था। "एकबार बिदे दे मा घुरे आशी" पीतांबर दास द्वारा लिखित एक बंगाली गीत है। यह गीत शहीद खुदीराम बोस के सम्मान में रचा गया था। यह गीत अभी भी बंगाल में बहुत लोकप्रिय है। उक्त गीत का हिन्दी अनुवाद इस पोस्टर में उपलब्ध है... लोकप्रिय जन कवि काजी नजरूल इस्लाम ने भी खुदीराम के सम्मान में एक कविता लिखी। 18 सालों बाद उन्हें याद करते हुए उन्होंने लिखा, (हिन्दी तर्जुमा)... “ओ माताओं! क्या तुम उस दुस्साहसी बालक के बारे में सोच सकती हो जो तुम्हारे अपने बेटे से अलग है। क्या तुम एक बिन मां के बच्चे को फांसी पर चढ़ते देख सकती हो? तुम अपने बेटे की मंगलकामना के लिए तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करती हो, किंतु क्या तुमने उन देवताओं से प्रार्थना की कि वे खुदीराम की रक्षा करें? क्या इसके लिए लज्जा अनुभव करती हो? “मुझे मालूम है तुम्हारे पास मेरे सवालों का जवाब नहीं है। हम एक मांग लेकर तुम्हारे दरवाजे पर खड़े हैं। हम अपने खुदीराम को वापस चाहते हैं क्योंकि वह उन लोगों का नहीं था जिनकी माताएं हैं। वह उन लोगों का था जो बिन मां के हैं। “खुदीराम वापस लौटने के लिए गया था, देश के हर घर में पैदा होने के लिए। उसे अपने घर की सुख-सुविधाओं में कैद न करो। बाहर निकलने दो, क्योंकि वे सिर्फ अपनी मांओं और घरों के लिए नही हैं। वह तुम्हारे लिए नहीं हैं, न मेरे लिए। वे पूरे देश के लिए हैं। देश पर बलिदान होने के लिए, देश की पूजा करने के लिए। खुदीराम तुम कहां हो। मेरे भाई! तुमने वादा किया था कि तुम 18 महीने बाद फिर से पैदा होंगे। लेकिन 18 बरस बीत गए। अपने गीत को याद करो। हमारा नेतृत्व करो ताकि हम देश के लिए फांसी के फंदे को गले लगा सकें।" आजादी के आंदोलन के सबसे युवा शहीद खुदीराम बोस बदलाव के आकांक्षी, अन्याय से नफरत करने वाले और गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने को आतुर युवाओं और आम जनता के दिलों में बैठे हैं। उनकी शहादत हमेशा ही न्याय और मुक्ति के संघर्षों को प्रेरणा देती रहेगी। शहीदों की क्रांतिकारी परम्परा अमर रहे...इंकलाब जिंदाबाद...