तिलका मांझी उन पहले आदिवासियों में से एक थे, जिन्होंने गुलामी से मुक्ति के लिए अंग्रेजों के अन्याय एवं अत्याचार के खिलाफ 1771 से 1785 तक लगातार गुरिल्ला युद्ध चलाया था।
भारत में जालिमाना अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आज़ादी के संघर्ष और कुर्बानियों के बेमिसाल उदाहरणों से इतिहास के स्वर्णिम पन्ने भरे पड़े हैं। देश के इन्हीं अमर सपूतों में से एक तिलका मांझी हैं, जो असल में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले क्रांतिकारी थे। हालांकि आजादी के इस महान नायक को भारतीय इतिहास के पन्नों में वह स्थान नहीं मिला जो उन्हें मिलना चाहिए था।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम से करीब 90 साल पहले ही, वर्तमान झारखंड राज्य के छोटानागपुर में अँग्रेज़ विरोधी क्रांति की मशाल जल चुकी थी। 1770 में तिलका मांझी के संग्राम से 1830 का कोल विद्रोह सहित तमाम आंदोलन हुए। छोटानागपुर की पहाड़ियों में विद्रोह की ज्वाला धधकती रही।
‘जबरा पहाड़िया’ उर्फ तिलका मांझी उन पहले आदिवासियों में से एक थे, जिन्होंने भारत को गुलामी से मुक्त कराने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। तिलका मांझी ने आदिवासी समुदाय को संगठित किया था। उन्होंने सन् 1771 से 1785 तक लगातार गुरिल्ला युद्ध चलाया और ब्रिटिश शासन के अन्याय एवं अत्याचार के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन का नेतृत्व किया था।
तिलका मांझी का अनुसरण दशकों तक होता रहा और संघर्ष जारी रहा। महान लेखिका महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में एक उपन्यास ‘शालगिरर डाके’ की रचना की। एक और हिंदी उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास ‘हुल पहाड़िया’ में तिलका मांझी के संघर्ष को बताया है।
जबरा पहड़िया उर्फ तिलका मांझी?
ऐसा माना जाता है कि तिलका मांझी का जन्म 11 फ़रवरी सन 1750 में सुल्तानगंज के तिलकपुर (वर्तमान झारखंड) नामक गाँव में एक संथाल परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सुंदरा मुर्मू था। अंग्रेज़ों के लेख पत्रों के अनुसार उनका नाम जबरा पहाड़िया था। तिलका मांझी नाम तो उन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने दिया था। हालांकि ब्रिटिशकालीन दस्तावेज़ों में ‘जबरा पहाड़िया’ का नाम मौजूद हैं पर ‘तिलका’ का उल्लेख नहीं है।
पहाड़िया भाषा में तिलका का अर्थ होता है एक ऐसा व्यक्ति जिसकी आंखें क्रोध से लाल होती हैं। चूंकि तिलका मांझी ईस्ट इंडिया कंपनी से क्रोधित थे इसलिए कंपनी के अधिकारी उन्हें इसी नाम से बुलाने लगे। बाद में जबरा अपने गांव के मुखिया बन गए और तब गांव की प्रथा के अनुसार ग्राम-प्रधान को मांझी कहा जाता था। इस तरह तिलका मांझी चरित्र का उदय हुआ।

भयावह शोषण का वह दौर
सन 1757 में प्लासी और फिर सन 1764 में बक्सर युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल से बिहार तक को अपने अधीन ले लिया। 1765 में संथाल परगना और छोटानागपुर पर भी अंग्रेजों ने अपना नियंत्रण कर लिया। इसके बाद आदिवासियों का उनकी भूमि के साथ कृषि संबंधी नाता पूरी तरह टूट गया। कंपनी के लगातार बढ़ते कर को चुकाने की विवशता से आदिवासी महाजनों के ऋण में डूबते चले गए और कंपनी ने महाजनों से सांठगांठ कर संथाल परगना में उनकी भूमि हथिया ली।
वर्ष 1770 बंगाल के भयंकर अकाल पड़ा, जिससे भूख से अनुमानित एक करोड़ नागरिकों की मृत्यु हुई थी। संथाल परगना और बिहार अकाल से सबसे ज़्यादा प्रभावित क्षेत्रों में से थे। ऐसे में अंग्रेजी हुकूमत पीड़ित आवाम को राहत देने की जगह बलपूर्वक टैक्स वसूली करने लगी।
तिलक मांझी की संघर्ष यात्रा
अपनी यौवनावस्था में ही तिलका मांझी ने अपने जंगलो को लुटते और अपने लोगों पर अत्याचार होते हुए देखा था। गरीब आदिवासियों की भूमि, खेती, जंगली वृक्षों पर अंग्रेज़ शासकों ने कब्ज़ा कर रखा था। आदिवासियों और पर्वतीय सरदारों की लड़ाई अक्सर अंग्रेज़ी सत्ता से रहती थी, लेकिन पर्वतीय जमींदार वर्ग अंग्रेज़ी सत्ता का साथ देता था। ऐसे में तिलका मांझी ने अंग्रेज़ों को खदेड़ कर आदिवासी समुदाय की भूमि इन्हें वापस सौंपने का संकल्प लिया।
अन्याय, गुलामी और भयावह शोषण के विरुद्ध तिलका मांझी आवाज़ उठाने लगे और जंग छेड़ दी। तिलका मांझी ने भागलपुर में छोटी मोटी सभाओं में लोगों से जाति-धर्म से उठकर एकजुट होने और अपने अधिकार के लिए कंपनी शासन का विरोध करने की अपील करने लगे थे।
साल 1770 में भीषण अकाल के समय तिलका ने अंग्रेज़ी शासन का खज़ाना लूटकर आम गरीब लोगों में बाँट दिया। उनके इस नेक कार्य और विद्रोह की ज्वाला से और भी आदिवासी उनसे जुड़ गये। इसी के साथ शुरू हुआ उनका ‘संथाल हुल’ यानी कि आदिवासियों का विद्रोह। उन्होंने अंग्रेज़ों और उनके चापलूस सामंतो पर लगातार हमले किए और हर बार तिलका मांझी की जीत हुई।

…और फैलता गया आंदोलन
उस दौर में बंगाल की कमान वारन हैस्टिंग के पास थी, जिसने तिलका को पकड़ने और विद्रोह को कुचलने के लिए कैप्टेन ब्रुक के नेतृत्व में 800 सैनिकों का एक जत्था भेजा। सेना ने संथालियों पर भयावह अत्याचार किए लेकिन तिलका को नहीं पकड़ पाए।
सन 1778 में, 28 साल के तिलका मांझी के नेतृत्व में एकजुट आदिवासियों ने कंपनी की पंजाब रेजीमेंट पर सशक्त हमला बोला। उनके पारंपरिक शस्त्रों के समक्ष कंपनी की बंदूक़ें टिक नहीं सकीं और सैनिकों को अपने प्राण बचाकर छावनी से भागना पड़ा।
इस अपमानजनक पराजय के बाद अंग्रेज़ों ने शातिर अंग्रेज़ अधिकारी अगस्त क्लीवलैंड को नियुक्त किया। शातिर क्लीवलैंड ने संथाली भाषा सीखी और पहाड़ों के आदिवासियों को बँटाने के लिए चाल चली। उसने आदिवासियों को सैनिक बनाकर उन्हें शासकीय सेवक का नाम दे दिया। उसने तिलका को भी झांसे में लेने की कुटिल चाल चली, लेकिन वह नाकामयाब रहा।
इसके विपरीत तिलका ने पूरी शक्ति से आदिवासी एकता और क्लीवलैंड के विरुद्ध निर्णायक युद्ध की तैयारी प्रारम्भ कर दी। तिलका ने साल वृक्ष के पत्तों पर लिखकर, उन सभी आदिवासी समूहों को संदेश भेजे, जिन्होंने अंग्रेज़ों का आधिपत्य मानने से मना कर दिया था। इस संदेश का बहुत प्रभाव हुआ और बड़ी संख्या में आदिवासी तिलका के समर्थन में खड़े हो गए।
तिलका ने भागलपुर पर हमला कर शत्रु को अचानक घेरने का साहसिक निर्णय किया। सन 1784 में भागलपुर पर इस आक्रमण से अंग्रेज़ भौंचक्के रह गए। इस हमले में तिलका ने अपनी धनुर्विद्या एवम लक्ष्यभेद की अतीव शक्ति का परिचय दिया जिसके आगे क्लीवलैंड टिक नहीं सका।
13 जनवरी 1784 को ताड़ के पेड़ पर चढ़कर घोड़े पर सवार अंग्रेज़ कलेक्टर अगस्टस क्लीवलैंड को अपने जहरीले तीर का निशाना बनाया। वह अपने घोड़े से गिर पड़ा था। कुछ दिनों के बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। इस आक्रमण से अंग्रेज़ों की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। अंग्रेज़ों का मनोबल तोड़ने के बाद तिलका मांझी और उनके साथी वापस सुरक्षित जंगल पहुंच गए।

अंत तक लड़ते रहे तिलका मांझी
अंग्रेज़ों ने इस घटना के बाद विद्रोह कुचलने और तिलका को जीवित अथवा मृत पकड़ने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा लिया, लेकिन वे उनको नहीं पकड़ पाए। लेफ़्टिनेंट जनरल आयरकूट के नेतृत्व में एक बड़ा सैन्यदल भेजा गया। उसने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई। मांझी के दल के ही किसी गद्दार/मुखबिर ने अंग्रेज़ों को उनके आश्रय की सूचना दे दी थी।
सूचना मिलते ही, रात के अँधेरे में अंग्रेज़ सेनापति आयरकूट ने तिलका के ठिकाने पर हमला कर दिया। अंग्रेज़ों द्वारा अर्धरात्रि में किए अचानक हमले से हड़बड़ी मच गई। इस हमले में तिलका तो किसी तरह बच निकले लेकिन इसमें उनके कई साथी बलिदान हो गए, शस्त्र नष्ट हो गए।
तिलका अपने पैतृक नगर सुल्तानगंज के वनों में चले गए और वहीं से अंग्रेज़ों के विरुद्ध छापामार युद्ध चलायमान रखा। लेकिन शीघ्र ही अंग्रेज़ों ने तिलका और उनके साथियों की खाद्य आपूर्ति बंद कर दी, जिससे तिलका के पास अंग्रेज़ों से लड़ने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं बचा। 12 जनवरी सन 1785 को तिलका और उनके साथियों का अंग्रेज़ों से अंतिम युद्ध हुआ। भूख और थकान से निढ़ाल बहादुर योद्धाओं पर अंग्रेज़ों ने अधिकार पा लिया और तिलका पकड़ लिये गए।

तिलका को घोड़ों से बांधकर भागलपुर तक मीलों घसीटा गया। कहा जाता है कि भागलपुर पहुंचने पर जब ख़ून से लथपथ तिलका को खोला गया तब भी वह जीवित थे। लोगों ने तिलका मांझी के अल्प किन्तु ऊर्जा से भरपूर जीवन को समाप्त होते हुए देखा।
13 जनवरी 1785 को उन्हें एक बरगद के पेड़ से लटकाकर फांसी पर चढ़ा दिया गया। शहादत के समय उस वीर योद्धा की आयु केवल 35 वर्ष थी।

क्रांतिकारी विरासत जीवित है, संघर्ष जारी है…
आज़ादी के संघर्ष और कुर्बानियों की एक लंबी विरासत हमारे पास मौजूद है। शहीदों की यह परंपरा ज्ञात इतिहास में तिलका माझी से शुरू होती है और उसके बाद भी न जाने कितने नामी-गुमनामी आज़ादी के दीवाने हंसते-हंसते अपनी जान न्योछावर कर गये। 1947 में अंग्रेजी गुलामी से आज़ादी इन असंख्य कुर्बानियों की देन है। हक़-हकूक का यह संघर्ष आज भी जारी है।
आजादी के पूर्व पुरे भारतवर्ष में जहाँ आदिवासियों ने अपनी जमीनों व जंगलों को सुरक्षित करने के लिए अंग्रेज़ों से लोहा लिया, आज वहीँ लोहा व खनिजों का खनन करने के लिए मुनाफाखोर लुटेरों के हित में सरकारों द्वारा आदिवासियों की जमीनों एवं जंगलों को लूटा जा रहा है।
एक ओर जहाँ आजादी से पूर्व आदिवासी क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों से लड़ कर कई हक़ हासिल किए, वहीँ आज के दौर में पूँजीपतियों के हित साधने के लिए सरकारों द्वारा आदिवासियों सहित देश की आम जनता के अधिकारों खुलेआम डकैती पड़ रही है और जन संघर्ष जारी है।
ऐसे में तिलका मांझी जैसे तमाम शहीद क्रांतिकारी मुक्तिकामी संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरणा श्रोत हैं।