राजस्थान: पत्थर कटाई करने वाले मज़दूर जानलेवा बीमारी के साथ नर्क में रहने के लिए मजबूर

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राजस्थान में मंदिरों के लिए पत्थर कटाई में लगे मज़दूरों में सिलिकोसिस बीमारी आम है। इन मज़दूरों की औसत उम्र महज 34 साल है, जो अपने पीछे छोटे-छोटे बच्चे और युवा विधवा पत्नी छोड़ जाते हैं।

  • हिमांशु कुमार

अगर आप गूगल पर सिलिकोसिस शब्द खोजेंगे तो आपको यह जवाब मिलेगा, ‘सिलिका युक्त धूल में लगातार सांस लेने से फेफड़ों में होने वाली बीमारी को सिलिकोसिस कहा जाता है। इसमें मरीज के फेफड़े खराब हो जाते हैं। पीड़ित व्यक्ति की सांस फूलने लगती है। इलाज न मिलने पर मरीज की मौत हो जाती है।’

लेकिन, हकीकत यह है कि सिलिकोसिस लाइलाज बीमारी है। एक बार सिलिकोसिस होने के बाद मरीज़ के बचने की उम्मीद नहीं रहती।

आपको यह जानकार दुख होगा लेकिन सच यह है कि भारत में इस बीमारी से सबसे ज्यादा मौतें उन लोगों की होती हैं जो मंदिर बनाते हैं या मंदिरों के लिए मूर्तियां बनाते हैं।

सारी दुनिया में स्वामीनारायण संप्रदाय के अक्षरधाम मंदिर अपनी ख़ूबसूरती के लिए जाने जाते हैं, लेकिन यह हममें से कोई नहीं जानता कि इन मंदिरों को बनाने वाले लोग जवानी में ही मौत के मुंह में चले जाते हैं।

इनकी जान बचाई जा सकती है लेकिन जिन उपायों से जान बच सकती है अगर वह अपनाए जाएंगे तो मूर्ति और मंदिर बनाने की कीमत कुछ बढ़ जाएगी।

इसलिए मजदूरों की जान की सुरक्षा के उपाय न अपनाकर मूर्ति और मंदिर निर्माण के लिए पत्थर कटाई का काम चल रहा है।

राजस्थान के कस्बे करौली के पूरे पत्थर का अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए सौदा कर लिया गया है। ऐसा वहां के स्थानीय निवासी बताते हैं।

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मैं इस तरह मारे गए कुछ मजदूरों की विधवाओं से मिला और उनसे बात की। इसके अलावा हम सिलिकोसिस से ग्रस्त हो चुके मजदूरों से भी मिले। साथ ही हमने इस मुद्दे पर काम करने वाली संस्था आजीविका ब्यूरो के कार्यकर्ता राजेंद्र से भी जानकारी ली।

भारत में सिलिकोसिस बीमारी के केंद्र वे हैं जहां खनन या पत्थर कटाई का काम होता है। इनमें राजस्थान का पिंडवाड़ा एक ऐसी जगह है जहां सैंकड़ों पत्थर कटाई के कारखाने व अन्य छोटी इकाइयां लगी हुई हैं। इनमें से पांच कारखाने तो स्वामीनारायण मंदिर के ही हैं।

इसके अलावा जैन मंदिरों के लिए भी बड़ी मात्रा में पत्थर तराशने का काम यहां होता है। अमेरिका के न्यू जर्सी में भारतीयों द्वारा जिस अक्षरधाम मंदिर को बनाने का काम चल रहा है, उसके लिए भी पत्थर पिंडवाड़ा से जा रहा है।

आपको याद होगा न्यू जर्सी का अक्षरधाम मंदिर तब विवादों में आया था जब एक युवा महिला पत्रकार ने मंदिर में काम करने के लिए भारत से ले जाए गए मजदूरों के भयानक अमानवीय शोषण की हालत का भांडाफोड़ किया था।

पिंडवाड़ा में पत्थर निकालने से लेकर तराशने के काम में व्यापारी बड़ा मुनाफा कमाते हैं। एक घनफुट पत्थर निकलने के बाद व्यापारी उसे तराशने के पचास रुपये देता है और वही पत्थर पांच हज़ार घनफुट के दाम पर बेचता है।

अगर यह व्यापारी पत्थर काटते समय पानी इस्तेमाल करने वाली मशीन लगा देते हैं तो रेत वहीं की वहीं दब सकती है और मजदूर की जान बच सकती है। लेकिन, उससे पत्थर कटाई की स्पीड कम हो जाती है। स्पीड कम होने से मुनाफा कम हो सकता है। परंतु व्यापारी या मंदिर वाले अपना मुनाफ़ा कम नहीं करना चाहते इसलिए मजदूर मरते जा रहे हैं।

हालांकि, यह करवाना सरकार की ज़िम्मेदारी है लेकिन कोई इसे लागू करवाने की कार्रवाई नहीं करता। सामाजिक संस्थाओं की कोशिशें सरकारी अनिच्छा के सामने बेकाम हो रही हैं।

राजस्थान के पिंडवाड़ा में मजदूरों की औसत आयु 34 वर्ष है। यानी पत्थर कटाई में काम करने वाला मजदूर सिर्फ 34 साल की उम्र में मर जाता है। अपने पीछे वह छोटे-छोटे बच्चे और युवा विधवा पत्नी छोड़ जाता है।

राजस्थान सरकार ने सिलिकोसिस नीति बनाई ज़रूर है लेकिन उसका क्रियान्वयन रोकथाम और सुरक्षा उपाय अपनाने में शून्य प्रतिशत है।

हमने मंदिर निर्माण के काम में तथा पत्थर कटाई करने वाले मारे गए मजदूरों की विधवाओं से बात की। शिल्पा की उम्र अभी मात्र 22 साल है। उनके पति कालीराम मंदिर के लिए पत्थर काटते थे। शादी के तीन साल के भीतर ही 28 साल के कालीराम की मौत हो गई।

शिल्पा का एक बच्चा भी है। शिल्पा को सरकार से मात्र तीन लाख रुपये मुआवज़ा मिला है। जो कतई नाकाफी है।

इसी तरह एक अन्य महिला बेबी की आयु 35 साल है. उनके पति रमेश की भी मौत पिछले साल सिलिकोसिस से हुई है। वे भी मंदिर के लिए पत्थर काटते थे। बेबी को भी तीन लाख रुपये मुआवजा मिला है।

लीला देवी 28 साल की हैं। उनके पति बधा राम की सिलिकोसिस से मौत दो साल पहले हुई है। इन्हें मुआवज़े के नाम पर महज़ एक लाख रुपये मिला है।

पत्थर कटाई में लगे मजदूर को एक बार सिलिकोसिस होने के बाद उसे काम से निकाल दिया जाता है। वह कैसे जिएगा, इसके बारे में कोई नहीं सोचता, न मंदिर बनाने वाले, न मालिक और न सरकार।

झाला राम बताते हैं, ‘मुझे सिलिकोसिस हुआ तो काम से निकाल दिया गया। अब मैं इधर-उधर दिहाड़ी पर काम करता हूं, लेकिन खांसी बहुत होती है इसलिए मुझसे अब काम भी नहीं हो पाता है।

सुकला राम बताते हैं, ‘मैं स्वामीनारायण संस्था की पत्थर फैक्ट्री डिवाईन स्टोन में नियमित कर्मचारी था। 2020 में मुझे जबरन दस्तखत करने के लिए कहा गया, जिसमें लिखा गया था कि मैं अपनी मर्जी से सेवानिवृत्त (रिटायर) होना चाहता हूं। फैक्ट्री मालिक चाहते हैं कि हमारी भविष्य निधि वगैरह देने की ज़िम्मेदारी से बच जाएं और हमसे ठेके में काम करवाते रहें। हमारा मामला अभी भी कोर्ट में चल रहा है।’

कालू राम बताते हैं, ‘मुझे सिलिकोसिस हुआ तो स्वामी नारायण की फैक्ट्री डिवाईन स्टोन से निकाल दिया गया। मेरे दो बच्चे बीमार होकर मर गए। स्वामी नारायण वाले संन्यासी जब यहां आते हैं तो मजदूरों को बैठाकर उनसे कहते हैं कि तुम सब धर्म की सेवा कर रहे हो। आप सब स्वर्ग में जाओगे। वे हमारे सिर पर फूल रखते हैं। हमें नहीं पता मरने के बाद हमारा क्या होगा लेकिन जीते जी तो हम नर्क में रहने के लिए मजबूर हैं।’

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

द वायर से साभार