कविताएँ इस सप्ताह : अच्छे दिन दिखाई देंगे सिर्फ अखबारों में !

अच्छे दिन दिखाई देंगे सिर्फ अखबारों में / राहुल मिश्रा
कुछ काला पैसा पार्टी फंड के चंदे से आया !!
कुछ पैसा हमने जनता को लूट, कमाया !!
गंगा सफाई के बहाने थोड़ा पैसा आ गया !!
कुछ चोरी का धन राफ़ेल दिला गया !!
कुछ ब्लैक मनी अंबानी-अडानी दे गए !!
बुलेट के नाम पे कुछ पैसा जापानी दे गए !!
पी.एम केयर के पैसों का हमने अंबार लगाया !!
फिर “भ्रष्टाचार-मुक्त” भारत का इश्तेहार छपाया !!
बचे पैसे से खरीदा तमाम अख़बारों को !!
विकास के झूठे पोस्टरों से भरा दीवारों को !!
राजनीति में जो दल जितना पैसा कमाएगा !!
चौबीस घंटे टीबी पे, उतना विकास दिखाएगा !!
टीबी, चैनल जब तक बिकते रहेंगे बाज़ारों में !!
अच्छे दिन दिखाई देंगे सिर्फ अखबारों में !!

कब्जा / कृष्णराज पौडेल
(आज के हालात बयां करती यह कविता नेपाली कवि कृष्णराज पौडेल की नेपाली कविता ‘कब्जा’ का हिंदी अनुवाद अनिल कार्की ने किया है)
हाइवे उन गाड़ी वालों के कब्जे में है
जिनका परिवार हाईवे में नहीं चलता
स्कूल और विद्यालय उनके कब्जे में है
जिनके बच्चे उनमें पढ़ते नहीं
अस्पताल उन लोगों के कब्जे में है
जिनके परिवार वहाँ इलाज नहीं करवाते
जंगल जमीन उनके कब्जे में है
जिनके परिवारों ने कभी वे देखे नहीं
देश की राजनैतिक पार्टियां उनके कब्जे में हैं
जिनके जवान बच्चे देश में रहते नहीं
राज्य का आदेश उनके कब्जे में है
जिन्होंने कभी राज्य के आदेश को नहीं माना !

एक हार और सही / गिरिजेश तिवारी
एक बार और हार घूर रही आँखों में,
एक बार और मुझे पटकेगी दुश्वारी;
एक बार और फेंक दोगे कूड़ेदान में तुम,
मगर मैं दुबारा धूल झाड़ चला आऊँगा.
एक बार और मेरे दाँत किटकिटायेंगे,
ऐंठ रही अँगुलियों की मुट्ठियाँ भिंच जायेंगी;
तीख़ी नफ़रत से थरथरायेगा शरीर और
गुस्से का ज़ोर गरज-गरज गूँज जायेगा.
बार-बार तुमसे टकराता ही रहा हूँ मैं,
एक बार और मेरा हौसला टकरायेगा;
चाहे तुम जीतो, चाहे हारता ही रहूँ मैं पर
टक्कर-दर-टक्कर इतिहास रचा जायेगा.

ज्योतिबा फुले को याद करते हुए / शकील प्रेम
(ज्योतिबा फुले के जन्मदिवस 11 अप्रैल पर)
ख्वाब तो सभी देखते हैं
लेकिन कुछ लोगों की आंखों में
दुनिया को
बदलने का ख्वाब होता है
ऐसे लोग जिंदगी के
किसी भी पल को खोते नहीं
अपने ख्वाबों को
पूरा करने की खातिर
पूरी जिंदगी सोते नहीं
ऐसे लोग
सूर्य बन कर
दुनिया के अंधेरों को
मिटाते चले जाते हैं
और “ज्योति” बन कर
क्रांति का दीपक
जलाते चले जाते हैं
200 साल पहले
आज ही के दिन
ऐसा ही एक सूरज
पूरब की ओर से
उदित हुआ था
जिसका नाम था
“ज्योतिबा फुले”
जिस दौर में
डार्विन
बीगल पर बैठ
अफ्रीका की यात्रा पर
“विकासवाद” को पढ़ रहे थे
ठीक उसी वक्त
ज्योतिबा
महाराष्ट्र की गलियों में
“विनासवाद” के विरुद्ध
लड़ रहे थे
जिस समय
डार्विन
“ओरिजिन ऑफ स्पीशीज”
लिख रहे थे
इसी दौर में
ज्योतिबा
“गुलामगिरी”
रच रहे थे
डार्विन ने
दुनिया को समझाया की
सभी जीव
“एवोल्यूशन” की प्रक्रिया से
गुजर कर ही
आज वजूद में हैं
तो
ज्योतिबा ने हमें बताया
की सभ्यताएं
“रेवोलुशन” की प्रक्रिया से
गुजरे बिना आगे नहीं बढ़ सकतीं
डार्विन ने दुनिया को बताया कि
जो जीतेगा वही जियेगा
यानी
सर्वाइवल ऑफ फ़िटेस्ट
ज्योतिबा ने हमें सिखाया
जो सीखेगा वही जीएगा
यानी
सर्वाइवल बाय नॉलेज
डार्विन ने बताया
की रंग नस्ल जात क्षेत्र भाषा
और जन्म के आधार पर
नेचर में कोई
भेद नहीं
ज्योतिबा ने कहा
जात गोत्र धर्म
और नस्ल के आधार पर
प्रकृति में कोई
ऊंच या नीच नहीं
डार्विन पश्चिम के सूरज हैं
तो ज्योतिबा पूरब के ज्योति हैं

बदन पे जिस के शराफ़त का पैरहन देखा / गोपालदास नीरज
बदन पे जिस के शराफ़त का पैरहन देखा
वो आदमी भी यहाँ हम ने बद-चलन देखा
ख़रीदने को जिसे कम थी दौलत-ए-दुनिया
किसी कबीर की मुट्ठी में वो रतन देखा
मुझे मिला है वहाँ अपना ही बदन ज़ख़्मी
कहीं जो तीर से घायल कोई हिरन देखा
बड़ा न छोटा कोई फ़र्क़ बस नज़र का है
सभी पे चलते समय एक सा कफ़न देखा
ज़बाँ है और बयाँ और उस का मतलब और
अजीब आज की दुनिया का व्याकरन देखा
लुटेरे डाकू भी अपने पे नाज़ करने लगे
उन्होंने आज जो संतों का आचरन देखा
जो सादगी है कुहन में हमारे ऐ ‘नीरज’
किसी पे और भी क्या ऐसा बाँकपन देखा