इस सप्ताह महामारी-पलायन पर कविताएँ : …कितनी दूर और जाना है

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कोरोना / कौशल कुमार

टीवी पर सरकार है
अपने-अपने घरों में हम-जैसे लोग हैं
सड़कों पर उन-जैसों की भीड़ है
पूरा देश लाॅक डाउन में है

जिस रात ‘नये महाभारत’ की घोषणा हुई
टिड्डी दल जैसे टूट पड़ता है
वैसा ही दृश्य था
सड़क पर गाड़ियों का रेल-पेल
बाजार में भीड़-भगदड़
कोरोना से अधिक
किराना के खत्म हो जाने का खौफ था
अपने-अपने घर के किचेन के खाली डिब्बों को
भर देने की हड़बड़ी थी

वे लोग जिनके पास किचेन नहीं था
उनकी आंखों में सूनापन था
वे सर्वहारा थे
और अपनी औचक निगाहों से सब देख रहे थे
कुछ-कुछ समझ में आ रहा था
और बहुत कुछ ऐसा था
जो समझ से परे था

वे गांव से शहर आये थे
बरसों की मेहनत-मजदूरी के बाद भी
उनके पास न घर था, न दुआर
न बसेरा था, न डेरा
बस, किस्मत का फेरा
कि वे लौट रहे थे वापस
जैसे तुगलक का कोई अदृश्य फरमान हो
दिल्ली से दौलताबाद
फिर दौलताबाद से दिल्ली

वे सड़क पर थे
उनके सिर पर गठरी थी
यही जिन्दगी भर की जमा पूंजी थी
गोद में भविष्य था
साथ भारत माता थी
आंखों में उनका देस था
वहीं इन्हें पहुंचना था

यह नये महाभारत की जंग थी
घरों से लड़ा जाना था
वही रण-क्षेत्र था, युद्ध-भूमि थी
सूरमा डटे थे, मर रहे थे, घायल हो रहे थे
फिर भी लड़े-भिड़े थे

वे लाखों में थे
उनके पास घर नहीं था
और था भी तो वह उनका देस था
जो बहुत पहले छूट गया था
वहीं वे पहुंचना चाहते थे
वहीं वे लौटना चाहते थे
इसीलिए वे सड़क पर थे
सड़क ही उनकी अन्तिम उम्मीद थी

उनका लाखों की तादाद में सड़क पर होना
इस युद्ध में पीठ दिखाना था
जो घरों में थे उनकी नजर में सब के सब भगोड़े थे

युद्ध के लिए सड़कों को खाली कराना जरूरी था
कुमुक भेजी गयी कि हर कीमत पर सड़क खाली हो
भगोड़े वहां से बेदखल कर दिये जायें
यह आपरेशन कोरोना का विस्तार था
इधर सिपाहियों के डण्डे थे
उधर उनकी पीठ थी
जहां वे दनादन छाप रहे थे अपने निशान

सड़क पर लोग भूख से बिलबिलाते रहे
बच्चे रोटी-रोटी मांगते रहे
पर उन्हें मिली ठगों-लूटेरों की हमदर्दी
हुकुम तामील की गयी
वे मुर्गा बनाये गये
उनकी उठक-बैठक करायी गयी
सिपाहियों ने बहादुरी प्रदर्शित करने में
कोई कोताही नहीं की

करने को सरकार उनके साथ बहुत कुछ कर सकती थी
वह फौज उतार सकती थी
पर गनीमत का दूसरा नाम लोकतंत्र है
यह ‘जोर का झटका धीरे’ से था
उनसे नहीं कहा गया कि वे अपना कागज दिखायें
गनीमत है कि बात उनके सड़क छोड़ने तक रही
देश छोड़ने की बात नहीं की गयी
गनीमत है।


बंद / हूबनाथ

कोरोना के डर से
बंद है सारी दुनिया
बंद सारे काम धाम
सबको मिली है
बेइंतहां फ़ुरसत
पर कुछ लोग हैं
जो किसी आपदा में
नहीं होते बंद
जैसे सिपाही
जैसे डाक्टर नर्स
सफाई कर्मी
और सबसे अधिक
रसोईघर में
अनवरत खटनेवाली
औरतें
आज तक कोई महामारी
बंद नहीं कर पाई
काम औरतों का
सृष्टि के आरंभ से


महामारी / हूबनाथ

देश की बहुत सारी औरतें
ज़रा भी विचलित न हुईं
यह सुनकर
कि अब कुछ महीने
घर की चौखट के भीतर ही
रहना होगा उन्हें
जब तक खत्म नहीं होता
महामारी का असर
सुनकर वे हल्के से
मुस्कुराईं भर
और वैसे ही रहीं
जैसे सदियों से थीं
बिना किसी महामारी के;


घर में ही रहें / हूबनाथ

जब हम कहते हैं
घर में ही रहें
तो मान कर चलते हैं
कि इस दुनिया में
सबके पास और कुछ हो न हो
घर ज़रूर होगा ही
उनके पास भी
जो घर पालने की फ़िक्र में
घर छोड़कर
घर से बहुत दूर हैं
जो बंजारें हैं
भिखमंगें हैं
जो रोज़
दूसरे का कुआं खोदकर
अंजुरी भर पानी पाते हैं
जो फुटपाथ पर
प्लेटफार्म पर
नाले के किनारे
पेड़ के नीचे
पाइप के भीतर
रिक्शे की पिछली सीट पर
गांव के सिवान पर
पुल पर
स्काइवाक पर
बंद दुकान के बाहर
गुमटी की छांह में
सूखे नाले के भीतर
गीली पलकों के नीचे
सबके पास होगा ही
अपना एक घर
जहां वे सुरक्षित रह सकते हैं
संसर्गजन्य रोगों से
और जब घर है
तो बरतन भी होंगे
अनाज भी होगा
होगा ईंधन भी
और पानी भी
बार बार हाथ धोने के लिए
साबुन के साथ
ऐसे में किसको एतराज़
कि वह ना रहना चाहे
घर में
निकल पड़े सड़कों पर
भूखा प्यासा
नितांत पैदल
और इतनी बड़ी दुनिया में
कोई पूछने वाला भी न हो
कौन हो
कहां जा रहे हो
क्यों जा रहे हो
खाए हो कि नहीं
चुल्लू भर पानी को मुहताज
ये कौन लोग हैं
जो घर में नहीं रहना चाहते
इन्हें क्या डर नहीं लगता
मौत से
इन्हें लगे न लगे
पर कुछ लोगों को ज़रूर
डर तो है
इनके बीमार होने का
क्योंकि इनसे फैल सकती है
ख़तरनाक बीमारी
उन लोगों तक
जिनके पास अपना घर है
राशन कार्ड है
आधार कार्ड है
वोटर आईडी है
नौकरी धंधे हैं
मिल फैक्ट्रियां हैं
अकूत धन संपत्ति है
सत्ता है शक्ति है साधन है
इनकी फ़िक्र में
उनसे भी कहा जा रहा है
घर में रहिए
जिनके पास
धरती के बनने से लेकर
आज तक
कोई घर ही नहीं है।


साग्निक / कवि वीरेन चट्टोपाध्याय

अस्थिर मत हो
सिर्फ़ तैयार रहो।

अभी आंख-कान खोलकर
बहुत कुछ देखने का समय है

इस वक्त स्थिर न रहने का अर्थ है
आग में कूद जाना है

तुम्हारा काम आग के प्रेम में उन्माद होना नहीं
आग का उपयोग सीखना है

अस्थिर मत हों
तैयार रहो ।


पलायन: कुछ कविताएँ / हरभगवान चावला

1.

वे किसी जीवाणु-विषाणु से ज़्यादा नहीं डरते
वे डरते हैं उन्हें विषाणु मानने वाले लोगों से
वे डरते हैं भूख से
वे डरते हैं परदेस में लावारिस मौत मरने से
वे डरते हैं दयालु दबंग मालिकों से ।

2.

वे किसी हिल स्टेशन पर नहीं जा रहे
न मौज मनाने समंदर किनारे
सब कुछ खोकर भागने का मतलब
छुट्टी मनाना नहीं होता ।

3.

अभी पाँच मील का रास्ता तय हुआ है
कि गर्भ के बच्चे को सँभालती औरत
दर्द से कराहती सड़क पर लेट गई है
पाँच सौ मील का सफ़र अभी बाक़ी है ।

4.

एक भूखे मुसाफ़िर ने
बेटी के गोरे चेहरे पर
तवे की कालिख मल दी है
कि बची रहे गिद्धों की नज़र से
वैसे वह जानता है
कि गिद्ध रंग नहीं, मांस देखते हैं ।

5.

एक भूखा आदमी
परिवार के लिए रोटी नहीं
अपनी किशोरी बेटी के
फट चुके कुरते के लिए
सेफ्टी पिन माँग रहा है ।

6.

पलायनकर्ता की तलाशी के लिए
उसके सर से पोटली उतारी गई
पोटली में से एक साड़ी
और दो दर्जन भर चूड़ियाँ निकलीं ।

7.

पलायन कर रहे लोग चाहते हैं
कि भूखे-प्यासे, टूटे-फूटे
लुटे-पिटे, जैसे भी पहुँचें
बस पहुँच जाएँ अपने घर
मौत कहीं रास्ते में न दबोच ले ।


कितनी दूर और जाना है / किशोर मनी

सुबह सुबह ही बुधिया निकला
रोजगार देने वाले शहर को छोड़ा
कंधे पर उसने बिटिया को बिठाया
बीबी संग उसने लॉक डाउन तोड़ा

बिटिया के होंठ सुख गए है,
बुधिया का सफ़र बिल्कुल नहीं सुहाना है
पापा के कंधे पर बैठी बिटिया पूछ रही है,
कितनी दूर और जाना है

बुधिया का दिहाड़ी अब बंद हो गया
मकान मालिक किराया मांग रहा है
अब कहाँ रहे और क्या खाये बुधिया
ये सोच कर बुधिया शहर लांघ रहा है

दस मील तक चलकर ही,
बिटिया कह रही पापा मुझे कुछ खाना है
पापा के कंधे पर बैठी बिटिया पूछ रही है,
कितनी दूर और जाना है

दो ढाई सौ रुपये जेब में है पर
बुधिया कुछ नहीं कर सकता है
भूख से भले मर जाए बुधिया
पर कोरोना से नहीं मर सकता है

भूख से बिलखते बुधिया जैसों का,
भूख से रिश्ता बहुत ही पुराना है
पापा के कंधे पर बैठी बिटिया पूछ रही है,
कितनी दूर और जाना है

सेनेटाइजर,मास्क क्या होता है
बुधिया ये सब नहीं जानता है
कोरोना ने सब कुछ छीन लिया
इतना ही बस बुधिया मानता है

बुधिया ने ये ठाना है,
बीबी बच्चे को सही सलामत गाँव पहुँचाना है
पापा के कंधे पर बैठी बिटिया पूछ रही है,
कितनी दूर और जाना है।



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