अंतर्राष्ट्रीय घरेलू कामगार दिवस पर: भारत में महिला घरेलू कामगारों की वह पहली हड़ताल

घरेलू कामगार महिलाओं का मज़दूरी ही नहीं, कार्य स्थल पर यौन उत्पीडन, छूआछूत, चोरी के झूठे आरोप सहित रोज़मर्रा की तकलीफ़ों को लेकर संघर्ष हुआ था। …आइए जानें संघर्षगाथा को…
16 जून को अंतर्राष्ट्रीय घरेलू कामगार दिवस मनाया जाता है। घर में झाड़ू लगाना, बर्तन धोना, बुजुर्गों और बच्चों की देख-रेख करना परम्परागत तरीके से ‘औरतों का काम’ माना गया है।
इसी कारण, आज भी महिला घरेलू कामगारों की मेहनत को ‘काम’ का दर्जा नही दिया गया है, जब की सरकारी आकड़ों के हिसाब से आज एक से दो कड़ोड़ भारतीय महिलाएं घरेलू कामगार है और यह महिलाओं के रोजगार के सबसे बड़े क्षेत्र के तौर पर उभरा है।
कार्यस्थल-सम्बंधित सामाजिक सुरक्षा से बाहर, मालिकों और पुलिस के गाली-गलौच और चोरी के बेबुनियादी इलज़ाम सहकर आज यह महिलाएं हमारे शहरों को चलने में एक ख़ास भूमिका पालन कर रही हैं। कोरोना महामारी में घरेलू कामगारों को ही ‘वायरस’ बताकर उनके पेट पर लात मारा गया।
कई राज्यों में घरेलू कामगार यूनियन के दम पर अपनी आवाज बुलंद करने लगी है। अंतर्राष्ट्रीय घरेलु कामगार दिवस पर हम 1980 में पुणे शहर में हुए भारत के पहले घरेलू कामगारों की हड़ताल के इतिहास को याद करते हैं।
भारत में महिला घरेलू कामगारों की पहली हड़ताल में क्या हुआ था?
महाराष्ट्र का पुणे शहर उत्तर और दक्षिण भारत के बीच में स्थित होने के कारण हाईवे, रेल व वायुमार्गों से जुड़ा हुआ शहर है। पहले गाड़ियों को बनाने के कारख़ाने, पिछले दो दशकों से IT उद्योग में आए उछाल, झुरमुट की तरह उग आए निजी उच्चतर शिक्षा के संस्थानों और अपने मौसम के कारण रिटायर्ड कर्मचारियों के लिए अच्छे शहर होने की छवि के चलते, देश के कई हिस्सों से हुए लोगों के पलायन ने पुणे शहर के मध्यमवर्ग के निर्माण में भूमिका अदा की है।
वहीं दूसरी ओर भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि में विकराल आर्थिक संकट, पुणे से सटे हुए महाराष्ट्र के विदर्भ इलाक़े में पानी की कमी के कारण कई ग्रामीण खेतीहरों ने पुणे शहर आकर मज़दूरी करने की राह पकड़ी। उन्हीं पलायित मज़दूरों के परिवारों के पुरुष सदस्यों की बीमारी, नशे की लत, मृत्यु, कम कमाई या अन्य विभिन्न कारणों से महिलाओं की एक बड़ी संख्या ने घरेलू कामगारी के पेशे को जीवनयापन के लिए अपनाया।
साल 1980 से पहले तक पुणे शहर में कई तरह के प्रगतिशील राजनैतिक दल, मज़दूर संगठन, महिला संगठन मौजूद थे लेकिन घरेलू कामगार महिलाओं के जीवन की कठिनाइयाँ एक राजनैतिक संघर्ष के रूप में उभर कर नहीं आ सकी थी।
उसी साल, खाण्डेरबाई नाम की एक घरेलू महिला कामगार छ: दिन बीमार रहने के बाद अपना काम करने के लिए वापिस लौटी तो पाया की उसकी जगह पर किसी दूसरी कामगार को काम दे दिया गया। खाण्डरबाई ने आस-पास की दूसरी कामगारों के साथ मिलकर उनको काम देने वाले पर और नयी कामगार दोनों पर दबाव बनाया, लेकिन वह दबाव कारगर साबित नहीं हुआ।
यह उस समय की घरेलू कामगारों के साथ आम समस्या थी, काम देने वाले उन्हें जब चाहे तब निकाल सकते थे, साथ ही उनका वेतन और काम का समय तय करने में भी उनकी कोई भूमिका नहीं रहती थी। कई महिलाएँ लगातार 25 सालों से 10 रुपए महीना पर काम करने को मजबूर थी, उनकी मज़दूरी में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई थी।
अपने साथियों को अपनी समस्या बताते हुए खाण्डेरबाई ने लगभग 150 महिलाओं को इकठ्ठा कर ली जिसके बाद सब काम बंद करके कर्वे मार्ग पर रैली निकाली।
1970 के दशक तक देश में हड़तालों की राजनीति का ख़ासा प्रभाव था, ना केवल मज़दूर सरकारी कर्मचारी, डॉक्टर, शिक्षकों की हड़तालें भी होती थी। ये महिलाएँ हड़तालों और उसके प्रभाव से वाक़िफ़ होते हुए भी यह नहीं जानती थी कि हड़तालें किस तरह की जाती है, साथ ही अलग-अलग जगहों पर काम करने वालों को संगठित करना भी चुनौतीपूर्ण काम था।
लेकिन खाण्डेरबाई के विद्रोह के बाद, पुणे में कई महिला संगठन ने इस क्षेत्र पर गौर किया और इलाकाई-स्तर पर मीटिंग आयोजित किये जाने लगे, जिसके बाद मीरा सोसाइटी, नारायण पेठ, सहाकार नगर और शिवाजी नगर जैसे इलाकों में कई हड़ताल हुए।
आन्दोलन की खबर अखबारों तक पहुँच गयी और गठन हुआ ‘पुणे शेहर मोलकरनी संगठना’।
1984 से 1996 के बीच घरेलू कामगारों के कई सफल हड़ताल हुए जिससे मज़दूरी बढ़ाने, हर महीने दो दिन और बीमार होने पर स्वस्थ होने तक की बिना पैसे काटे छुट्टी, घर के लोगों द्वारा कारणवश काम ना करवाने पर भी मज़दूरी में कोई कटौती नहीं, तय काम से अधिक काम करवाने पर अधिक मज़दूरी, हर चार साल में मज़दूरी को फिर से तय किए जाने की सारी माँगे मान ली गई।
घरेलू कामगार महिलाओं का इकलौता संघर्ष मज़दूरी के बारे में ही नहीं था, अपने काम करने की जगह पर उन के साथ यौन उत्पीडन, अधिकतर कामगार महिलाएँ भारतीय समाज में नीचे समझी जाने वाली जातियों और अल्पसंख्यक धर्मों से आती है तो उनके साथ छूआछूत, चोरी करने के झूठे आरोप, और भी रोज़मर्रा की तकलीफ़ों को लेकर भी बात करना और संघर्ष शुरू हुआ।
घर को पुरूषों के यौन शोषण के आरोप की शिकायत करने पर उन पर चोरी करने का आरोप लगाकर चुप करवाने की कोशिशें की जाती थी, संगठन बनने के बाद कई बार कामगारों पर तो कई बार उनके साथ काम पर आयी बच्चियों पर यौन शोषण को लेकर पुलिस केस करवाए जाने लगे, जिसमें भी उन्हें न्याय मिलने लगा।
संघर्ष से संगठन तक और आगे का रास्ता
फिर भी कई सारे भारी सवाल अब भी बाक़ी थे, काम पर जाने पर उनके बच्चों का ख़्याल कौन रखेगा, एक बार घरेलू कामगार महिला जो अपने काम पर गई हुई थी उसकी अनुपस्थिति में छ: माह के शिशु की हादसे में मृत्यु हो गई, काम पर जाने पर पीछे पानी की समस्या, उनकी अस्मिता का सवाल, राशन और बुजुर्गावस्था में पेंशन जैसे सवाल भी प्रमुख थे।
इसी दौरान कई बार कामगार महिलाओं के संगठन को तोड़ने की भी कोशिश की जाती रही, और कामगार महिलाओं के संगठन की प्रतिक्रिया में काम देने वाले मध्यमवर्ग ने भी अपने बीच सहमतियाँ बनाने की कोशिशें की।
इस दौरान घरेलू कामगार महिलाओं के दो और संगठनों ‘मोलकरनी पंचायत’ और ‘पुणे ज़िला घर कामगार संगठनों’ का भी निर्माण हुआ, शहर के अलग-अलग हिस्सों में इन संगठनों ने मिलकर रोज़मर्रा का संघर्ष करना चालू रखा, कामगार महिलाओं की सारी कठिनाईयाँ सिर्फ काम देने वाले मध्यमवर्ग से हल नहीं हो सकती थी, इसलिए सरकार पर भी उनके जीवन के बारे में प्राथमिकता के बारे में सोचने के लिए मजबूर किया गया।
धीरे-धीरे ऐसे कई संगठन महाराष्ट्र के अन्य शहरों में सामने आने लगे, साथ ही राज्य स्तर के भी संगठन बने। इन सबके संघर्षों के कारण महाराष्ट्र में ही देश का पहला घरेलू कामगार कानून (Domestic Workers Act) 2008 बना।
इस कानून में घरेलू कामगार महिलाओं का रजिस्ट्रेशन करके उन्हें पहचान दिलाने, उनके मज़दूरी पर महंगाई अनुरूप विचार करने, घरेलू कामगार महिलाओं की समस्याओं के लिए एक राज्य स्तरीय बोर्ड गठित करने, राशन कार्ड में अलग तरह से चिन्हित करके राशन उपलब्ध कराने, प्रोफिडिएंट फंड जैसी कई बातें पेश की गई।
हालाँकि ढीली सरकारी व्यवस्था और बिन दृढ़ इच्छाशक्ति के घरेलू कामगार महिलाओं के जीवन आशा अनुरूप परिवर्तन तो नहीं हुए लेकिन उनके बताए रास्ते से सीखकर आज पूरे देश में घरेलू महिला कामगारों को अपने संगठनों और संघर्षों को खड़ा करना होगा।
संगठन और संघर्ष के बलबूते घरेलू कामगार महिलाओं के लिए न्याय, अस्मिता, बराबरी और शोषण उत्पीडन से मुक्ति वाले जीवन तक पहुँचा जा सकेगा।
दुनिया के बाक़ी समाजों की तरह भारतीय समाज में भी अपने परिवार के सदस्यों के अलावा बाहरी लोगों से घर की चारदीवारी के भीतर काम करवाने का चलन रहा है।
सामंती ग्रामीण परिवेश में तथाकथित उच्चजातीय ज़मींदारी वाले लोगों के घर पर निम्नजातीय लोगों के महिला-पुरूषों द्वारा काम किया जाता रहा है, जिसके बदले में उन्हें कई बार एक वक्त का खाना, या सूखा अनाज, छोटी धनराशि और कई बार तो बदले में बिना कुछ दिए उनकी सेवाओं का प्रयोग किया जाता रहा है।
औद्योगिकीरण के साथ हुए शहरीकरण और ‘शिक्षित मध्यमवर्गीय’ महिलाओं के घर से बाहर निकलकर काम में शामिल होने से घरेलू कामगार एक ‘आर्थिक-पेशे’ के तौर पर आकार ले रहा है।
एक पुरूषों की सत्ता वाले समाज में जहाँ घरेलू काम को महिलाओं द्वारा किया जाने वाला, कम मेहनत का, ग़ैर-आर्थिक कार्य माना जाता है उस भारतीय जनमानस ने अभी भी ‘घरेलू कामगारी’ को एक ‘वैध’ पेशे के तौर पर स्वीकृति नहीं दी है।
तमाम दूसरी चुनौतियों के साथ उस अस्वीकृति ने घरेलू कामगारी को मूल रूप से कम आर्थिक मूल्य के पेशे के तौर पर चिन्हित कर रखा है। इस इतिहास से हम समझ सकते है की केवल कानून बदलने से ही नही बल्कि मेहनतकश वर्ग के जुझारू संघर्ष से ही घर में और बाहर औरतों की परस्थितियाँ सुधर सकती है।
– लेखक संग्रामी घरेलू कामगार यूनियन के समर्थक है