लाखों मजदूर अब भी पैदल जाने को मजबूर
मदद में अब भी नाकाम है सरकार
देश के अनेक राज्यों से लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर अभी भी पैदल अपने-अपने गाँव जाने को मजबूर हैं। चिलचिलाती धूप में तपती सड़क या रेल पटरियों पर भूखे-प्यासे चलते हुए वे कई दिन के सफर के बाद घर पहुँच रहे हैं। मध्य प्रदेश के सेंधवा के एसडीपीओ तरुनेन्द्र सिंह बघेल के हवाले से अंग्रेजी अखबार ‘द हिन्दू’ ने लिखा है कि 22 मार्च से अकेले उनके इलाके की सीमा को 10 लाख मजदूरों ने पार किया है। यह सिलसिला अब भी जारी है।
शुरू में तो सरकारों ने मजदूरों कि घर वापसी के बारे में कुछ सोचा ही नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपील की कि कोई किसी की मजदूरी न काटे, लेकिन ज़्यादातर नियोक्ताओं ने यह बात मानी नहीं है। मजदूरों को कई जगह मार्च का भी पूरा वेतन नहीं मिला है। अप्रैल का तो नहीं ही मिला है।असंगठित क्षेत्रों की तो छोड़िए, इंडिगो जैसी कंपनी ने पीएम की अपील के बाद मार्च से की जाने वाली कर्मचारियों की वेतन कटौती वापस लेने का ऐलान कर दिया था, लेकिन अब फिर ऐलान कर दिया कि मई से कटौती की जाएगी।
मार्च में जब मजबूर होकर मजदूर पैदल ही अपने-अपने घरों के लिए निकालने लगे और हालात मीडिया व सोशल मीडिया के जरिये सामने आने लगे तो इस पर राजनीति शुरू हुई। काफी राजनीति होने के बाद सरकार के लेवल पर मजदूरों की घर वापसी की व्यवस्था का ऐलान हुआ, लेकिन घोषणा पर अमल अब भी काफी कमजोर है।राज्य सरकारों की मांग पर रेलवे मज़दूरों की वापसी के लिए ट्रेन मुहैया करा रहा है। लेकिन इसमें भी कई राज्य सरकारों का रवैया उदासीन है और इस व्यवस्था को अमल में लाने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई है, उसमें भी काफी खामियां हैं।
घर वापसी के इच्छुक मजदूरों को पहले रजिस्ट्रेशन कराना होता है। कई राज्यों में इसके लिए बनाया गया पोर्टल काम नहीं कर रहा। मजदूर स्थानीय अफसरों के दफ्तरों में भटक रहे हैं तो वहाँ भी उन्हें कोई मदद नहीं मिल रही है।रजिस्ट्रेशन हो भी जाए तो जाने वाले लाखों में हैं, लेकिन ट्रेनें सैकड़ों या कुछ हजार मजदूरों के लिए ही हो पाती हैं। पैसे, राशन आदि के बिना मजदूरों के लिए एक दिन भी बिताना भारी पड़ रहा है। ऐसे में और धैर्य रखे बिना वो पैदल ही चल पड़ने का फैसला लेकर निकलते जा रहे हैं।
जनसत्ता से साभार