बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं प्रवासी मज़दूर

भारत में लगभग 65 लाख अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक हैं। …वे अपने मूल राज्य के बाहर रहने के कारण छुट्टी पर जाने या मतदान करने के लिए घर जाने में असमर्थ हैं इसलिए उनको राजनीतिक महत्व नहीं मिलता है।
23 मार्च, 2020 को पर घोषित की गई कोविड-19 लॉकडाउन के बाद हमारे देश के महानगरों के बाहर दिखाई दी थीं प्रवासी मजदूरों की लंबी कतारें। शहर से अपने गांव लौट रहे कई मज़दूर रास्ते में दुर्घटनाओं में मारे गए। 2 साल होने को आए हैं और सरकार द्वारा क्या कदम उठाए गए हैं, उन कतारों द्वारा चीखकर पूछे जा रहे हैं उन सवालों के जवाब?
लॉकडाउन के दौरान एक हाथ पर प्रवासी मज़दूरों को कानूनी व्यवस्था के लिए एक चुनौती की तरह देखा गया तो दूसरी तरफ उनको निजी संस्थानों की उदारता के सहारे किसी तरह जान बचाना पड़ा। अभिनेता सोनू सूद के सामाजिक कार्य की प्रशंसा करना एक बात है लेकिन क्या हमारे देश में करोड़ों प्रवासी मज़दूरों के मूलभूत अधिकारों को बचाने के लिए कोई भी ठोस कदम उठाए गए हैं?
प्रवासी मजदूर – केवल दान के पात्र?
जब उद्योगपतियों और मकान-मालिकों को किराए एवं वेतन में बेलगाम लूट करने दिया गया, उसी वक्त क्वॉरेंटाइन के नाम पर लाखों प्रवासी मज़दूरों को रास्ते में ही पुलिस ने बर्बरता के साथ रोक लिया। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टीवी पर अपने मज़दूर भाइयों की दुर्दशा पर आंसू बहाए और उन्होंने गरीब कल्याण योजना का वादा किया।
जब ‘गरीब कल्याण’ के नाम पर 1.7 लाख करोड़ रुपये दान को लेकर मीडिया ढिंढोरा पीट रही थी, लॉकडाउन के बीच, मेहनतकश आबादी के संघर्षों से जीते गए 44 श्रम कानूनों को एक झटके में मुनाफ़ा के भगवान के सामने बलि पर चढ़ाया गया।
इसी दौर में प्रवासी मज़दूरों के अधिकारों के लिए कई ऐसे छोटे बड़े प्रदर्शन धरने हुए, जिसको कॉरपोरेट मीडिया में कोई जगह नहीं मिली। प्रवासी मज़दूर सहयोग केंद्र के आंकड़ों के हिसाब से ऐसी लगभग 198 घटनाएं पहले लॉक डाउन में सामने आई थीं।
पहले लॉकडाउन में बदनामी झेलने के बाद, सरकार ने न्यायलय के आदेश पर ई-श्रम पोर्टल बनाया। यह पोर्टल असंगठित क्षेत्र में कार्यरत लोगों के बारे में जानकारी एक डेटाबेस में एकत्रित करने के उद्देश्य से बनाया गया है। लेकिन यह भारत के इतिहास में पहली ऐसी पंजीकरण प्रक्रिया है जिसके क्या फायदे होंगे, इसको लेकर कोई बात नहीं हुई है।
उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले ई-श्रम पोर्टल में पंजीकृत मज़दूरों को ₹500 दिए जाने की बात हो रही है। चुनावी वादों के बाहर, प्रवासी मज़दूरों के लोकतांत्रिक अधिकारों की बात कोई भी केंद्र या राज्य सरकार करने से हिचकती है। इसका कारण यह है की बड़े-बड़े महानगरों को बनाने और चलने के लिए प्रवासी मज़दूरों को दूसरे दर्जे की नागरिकता में बंधुआ बनाये रखना आज आर्थिक ढाँचे के लिए एक बाध्यता बनकर रहा है।
90 के दशक के बाद प्रवासी मज़दूर
1980 के दशक के मध्य से शुरू हुए नवउदार सुधारों के बाद 1991-2001 में आव्रजन में 3.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई और अगले दशक में यह बढ़ कर 44.2 प्रतिशत हो गया। इसी बीच देश की नीति विदेशी निवेश आकर्षित करने पर केंद्रित रही।
श्रम कानूनों रहित विशेष आर्थिक जोन अथवा सेज स्थापित हुए। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश वाली नीति के परिणामस्वरूप अस्सी के दशक के मध्य में विनिर्माण क्षेत्र का जो सीमित विकास हुआ, वह निर्यात वाले कपड़ा और गार्मेंट क्षेत्रों में हुआ। इन क्षेत्रों में रोजगार का अस्तित्व बांग्लादेश, इंडोनिशिया या थाईलैंड जैसे प्रतिस्पर्धी देशों से मज़दूरी को कम रख कर हो सकता है। नतीजतन इन क्षेत्रों में बहुत अधिक उत्पीड़न होता है।
इन सुधारों को अपनाने से जो लोग अपने कार्यक्षेत्रों से बाहर कर दिए गए, उन्हें मुख्य शहरीकरण परियोजनाओं में समेट लिया गया। निर्माण क्षेत्र अल्पकालिक आव्रजन से भर गया जिससे वह रिटेल के बाद दूसरा सबसे बड़ा प्रवासी श्रमिकों को समेटने वाला बन गया। घरों में काम करने के लिए भी अंतर्राज्यीय पलायन मुख्य रूप से हुआ।
इस काम में मुख्य तौर पर औरतें शामिल होती हैं। पलायन पर जोर ने पारंपरिक जातिगत और भाषाई नेटवर्क को, जिसका श्रम सप्लाई चेन से संबंध है, को मजबूत किया है।
इन तीन दशकों में हुए आव्रजन की कहानी बताती है कि आर्थिक विकास के इस मार्ग पर बने रहने की शर्त श्रमिकों के जीवन और कार्य की परिस्थिति का बेहद निम्न स्तर पर बने रहना है।
इन श्रमिकों को नागरिकों और कार्यस्थल के अधिकारों से वंचित कर उन्हें अपने मालिकों के साथ समझौता करने के लिए मजबूर किया गया जो स्थानीय मज़दूरों के साथ करना संभव नहीं होता।
संगठित क्षेत्रों के अध्ययन से पता चलता है कि दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर जैसे विनिर्माण केंद्रों की कंपनियां प्रवासी मज़दूरों को काम में रखना ज्यादा पसंद करती हैं। संभवतः मज़दूरों के संभावित विरोध को कुंद करने के लिए।
1983 में सर्वोच्च न्यायालय ने बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ के मामले में इस बात पर जोर दिया की प्रवासी श्रमिक “पूरी तरह से एक अजीब वातावरण में रहते हैं, जहां उनकी गरीबी, अज्ञानता और अशिक्षा के कारण वे पूरी तरह से असंगठित, असहाय होते हैं और शोषण के आसान शिकार बन रहे हैं।”
2022 में क्या बदलना चाहिए?
विकासशील देशों के अनुसंधान और सूचना प्रणाली के प्रोफेसर अमिताभ कुंडू के अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 65 लाख अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक हैं। ये अपने मूल राज्य के बाहर रहने के कारण छुट्टी पर जाने या मतदान करने के लिए घर जाने में असमर्थ हैं इसलिए इनकी चिंताओं को उनकी संख्या की ताकत के अनुसार राजनीतिक महत्व नहीं मिलता है।
उदाहरण के लिए सैनिक, सरकारी कर्मचारी, जो विदेश में तैनात हैं और यहां तक कि भारत मे ना रहने वाले भारतीय भी डाक से मतदान करने के लिए पात्र हैं लेकिन इस तरह का कोई प्रावधान प्रवासियों के लिए नहीं रखा गया है।
प्रवासियों को बुनियादी जरूरतें और समाज कल्याण के कवरेज के भीतर लाने के लिए और नागरिकों और श्रमिकों के रूप में उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए सबसे पहले तो उन्हें प्रवासी मज़दूर मानना जरूरी है।
प्रवासियों की पहचान दस्तावेजों के साथ डिजिटल प्रोफाइल तैयार करना इस दिशा में किया जाने वाला पहला कदम होगा। ऐसा करते हुए यह भी जरूरी है कि ऐसे डेटाबेस का मज़दूरों पर निगरानी रखने या उनके आने-जाने को नियंत्रित करने के लिए ना हो।
सरकार को प्रवासियों के साथ होने वाले भेदभाव और उनके उत्पीड़न की हकीकत को स्वीकार करना होगा। स्थानीय अधिकार संपन्न संस्थानों से दूरी और सांस्कृतिक अलगाव के चलते उनको विशेष सुरक्षा की जरूरत होती है।
ऐसे अधिकारों में शामिल हैं मनामाने ढंग से काम से निकाले जाने से सुरक्षा, स्थायी कर्मचारियों के जैसा व्यवहार, आवास या रोजगार में होने वाले भेदभाव का अंत और यूनियन बनाने का अधिकार, सांस्कृतिक अलगाव की भावना से उन्हें सुरक्षित रखने के लिए जहां भी प्रवासी मजदूर रहते हैं वहां राज्य को बुनियादी शिक्षा उनकी स्थानीय भाषा में देनी चाहिए।
सरकार को चाहिए कि सभी प्रवासी परिवारों की सुरक्षा के अधिकारों के तहत वह सार्वजनिक यातायात, आवास, शिक्षा और पीडीएस समेत सभी सार्वजनिक निवेशों को मजबूत करे। रहने की परिस्थिति और रोजगार के उपलब्ध विकल्पों में स्थानीय और प्रवासियों के बीच की गैरबराबरी को कम करने के लिए ना सिर्फ ऐसा करना जरूरी है बल्कि क्षेत्रीय अहंकारवाद को हावी ना होने देने के लिए भी ऐसा करना आवश्यक है।
आव्रजन मानव विकासक्रम का हिस्सा है। हमारा संविधान देश के भीतर किसी भी हिस्से में रहने और बसने का बुनियादी अधिकार देता है।
आज प्रगतिशील लोगों को इस अधिकार को अर्थ देने की मांग करनी चाहिए। यह तब तक मुमकिन नहीं है जब तक कि राज्यों में औद्योगिकीकरण और रोजगार निर्माण के अनुपात में असामानता रहेगी जो करोड़ो भारतीयों को पलायन करने के लिए मजबूर करता है।
जब यह सुनिश्चित होगा तभी जाने-आने की आजादी अधिकार बन पाएगी और मजबूरी नहीं रहेगी। लेकिन इसके लिए सार्वजनिक हित, राज्य और जनता के बीच संबंध और संकट के बाद वित्तीय वैश्विक उत्पादन चेन के पुनर्गठन की हमारी सोच में बड़े बदलाव की जरूरत होगी। यह पिछले तीन दशकों से नवउदारवाद के आर्थिक विकास के पाठ को रैडिकल रूप से परिभाषित करने जितना बड़ा काम होगा।
‘संघर्षरत मेहनतकश’ अंक-46 (जनवरी-मार्च, 2022) में प्रकाशित