मई दिवस अन्तेष्टि : जब मज़दूरों का हुजूम उमड़ पड़ा; सुनाई पड़ती थीं सिर्फ सांसें और क़दमों की आहट

मई दिवस के शहीदों की ऐतिहासिक अन्तेष्टि की यह कहानी मई दिवस पर केन्द्रित हावर्ड फास्ट के मशहूर उपन्यास ‘दि अमेरिकन’ का एक हिस्सा है। …एक ऐतिहासिक जुलूस…।
इतवार को जज ने पत्नी से कहा कि वह बाहर टहलने जा रहा है। हालाँकि एम्मा को शक था कि वह टहलते हुए कहाँ जायेगा पर वह कुछ बोली नहीं। न ही उसने यह कहा कि इतवार की सुबह उसके अकेले बाहर जाने की इच्छा कुछ अजीब थी।
लेकिन दरअसल, यह कोई ताज्जुब की बात नहीं थीं, जुलूस के रास्ते की ओर जाते हुए जज ने महसूस किया कि वह तो हजारो-हजार शिकागोवासियों में से बस एक है। और फिर ऐसा लगने लगा मानो करीब-करीब आधा शहर शिकागो की उदास, गन्दी सड़कों के दोनों ओर खड़ा जुलूस का इन्तजार कर रहा है।
सुबह ठण्डी थी और वह यह भी नहीं चाहता था कि लोग उसे पहचानें। इसलिए उसने कोट के कॉलर उठा लिये और हैट को माथे पर नीचे खींच लिया। उसने हाथ जेबों में ठूँस लिये और शरीर का बोझ कभी एक ठिठुरे हुए पैर तो कभी दूसरे पर डालता हुआ इन्तजार करने लगा।
जुलूस दिखायी पडा। यह वैसा नहीं था जिसकी उम्मीद थी। वैसा तो कतई नहीं था जैसी उम्मीद करके शहर के अधिकारियों ने इजाजत दी थी। कोई संगीत नहीं था, सिवाय हल्के पदचापों और औरतों की धीमी सिसकियों के और बाकी सारी आवाजें, सारे शोर जैसे इनमें डूब गये थे। जैसे सारे शहर को खामोशी के एक विशाल और शोकपूर्ण कफन ने ढँक लिया हो।
पहले झण्डा लिये हुए एक आदमी आया, जुलूस का एक मात्र झण्डा, एक पुराना रंग उड़ा हुआ सितारों और पट्ट्टियोंवाला झण्डा जो गृहयुद्ध के दौरान गर्व के साथ एक रेजीमेण्ट के आगे चलता था। उसे लेकर चलने वाला गृहयुद्ध में लड़ा एक सिपाही था, एक अधेड़ उम्र का आदमी जिसका चेहरा ऐसा लग रहा था मानो पत्थर का गढ़ा हो।
फिर आयीं अर्थियाँ और ताबूत। फिर पुरानी, खुली हुई घोड़ागाड़ियाँ आयीं, जिनमें परिवारों के लोग थे। उनमें से एक में आल्टगेल्ड ने लूसी पार्सन्स को देखा, वह अपने दोनों बच्चों के साथ बैठी थी और निगाहें सीधी सामने टिकी हुई थीं।
फिर आये मरने वालों के अभिन्न दोस्त, उनके कामरेड। वे चार-चार की कतार में चल रहे थे, उनके चेहरे भी उदास थे, जैसे गृहयुद्ध के सिपाही का चेहरा था।
फिर अच्छे कपड़ों में पुरुषों और स्त्रियों का एक समूह आया। उनमें से कइयों को आल्टगेल्ड जानता और पहचानता था – वकील, जज, डॉक्टर, शिक्षक, छोटे व्यापारी और बहुत-से दूसरे जो इन पाँचों मरने वालों को बचाने की लड़ाई में शामिल थे।
फिर आये मज़दूर जिनकी कोई सीमा ही नहीं थीं। वे आये थे पैकिंग करने वाली कम्पनियों से, लकड़ी के कारखानों से, मैकार्मिक और पुलमैन कारखानों से। वे आये थे मिलों से, खाद की खत्तियों से, रेलवे यार्डों से और कनस्तर गोदामों से। वे आये थे उन सरायों से जिनमें बेरोजगार रहते थे, सड़कों से, गेहूँ के खेतों से, शिकागो और एक दर्जन दूसरे शहरों की गलियों से।
बहुत-से अपने सबसे अच्छे कपड़े पहने हुए थे, अपना एकमात्र काला सूट जिसे पहनकर उनकी शादी हुई थी। बहुतों के साथ उनकी पत्नियाँ भी थीं, बच्चे भी उनके साथ चल रहे थे। कुछ ने बच्चों को गोद में उठा रखा था। लेकिन बहुतेरे ऐसे भी थे जिनके पास काम के कपड़ों के सिवा कोई कपड़े नहीं थे। वे अपनी पूरी वर्दी और नीली जींस और फलालैन की कमीजें पहने हुए थे।
चरवाहे भी थे जो पाँच सौ मील से अपने घोड़ों पर यह सोचकर आये थे कि शिकागो में इन लोगों की सजा माफ करायी जा सकती है क्योंकि यहाँ के लोगों में विश्वास और इच्छाशक्ति है। और जब इसे नहीं रोका जा सका तो वे अर्थी के साथ चलने के लिए रुक गये थे। वे अपने बेढंगे ऊँची एड़ियों वाले जूते पहने चल रहे थे। उनमें शहर के आसपास के देहातों के लाल चेहरोंवाले किसान थे, इंजन ड्राइवर थे और विशाल झीलों से आये नाविक थे।
सैकड़ों पुलिसवाले और पिंकरटन के आदमी सड़क के दोनों ओर खड़े थे। लेकिन जब उन्होंने जुलूस को देखा तो वे चुपचाप खड़े हो गये, उन्होंने बन्दूकें रख दीं और निगाहें जमीन पर टिका लीं। क्योंकि मज़दूर शान्त थे। सुनायी पड़ती थीं तो सिर्फ उनकी साँसें और चलते हुए कदमों की आवाज़। एक भी शब्द नहीं सुनायी देता था। कोई बोल नहीं रहा था। न मर्द, न औरतें, बच्चे तक नहीं। सड़क के किनारे खड़े लोग भी खामोश थे।
और अभी भी मज़दूर आते ही जा रहे थे। आल्टगेल्ड एक घण्टे तक खड़ा रहा, पर वे आते ही रहे। कन्धे से कन्धा मिलाये, चेहरे पत्थर जैसे, आँखों से धीरे-धीरे आँसू बह रहे थे जिन्हें कोई पोंछ नहीं रहा था। एक और घण्टा बीता, फिर भी उनका अन्त नहीं था।
कितने हजार जा चुके थे, कितने हजार और आने बाकी थे, वह अन्दाज़ा नहीं लगा सकता था। पर एक चीज वह जानता था, इस देश के इतिहास में ऐसी कोई अन्त्येष्टि पहले कभी नहीं हुई थी, सबसे ज्यादा प्यारा नेता अब्राहम लिंकन जब मरा था, तब भी नहीं।
”शिकागो पुलिस के मुताबिक शहीद मज़दूर नेताओं के मातमी जुलूस में 6 लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए थे।“