आओ बात करें: जयपुर में मना प्राइड डे

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महिला या पुरुष की समाज में स्थापित या स्वीकृत लैंगिग पहचान के अलावा भी समाज में एक बड़ा हिस्सा है जो समाज,परिवार के दबाव, डर की वजह से खुल कर खुद की पहचान उजागर नहीं कर पाता है और ताउम्र घुट घुट कर जीता है। इसके साथ ही साथ उसे तरह तरह के दमन,शोषण, बेइज्जती और सामाजिक बहिष्कार को झेलना पड़ता है। लैंगिक आधार पर श्रम के विभाजन पर टिके इस समाज में उनके पास कोई अधिकार नहीं है।

अपने सामान्य व्यवहार और सामाजिक दायरे में हम अक्सर थर्ड जेंडर या अपने से अलग व्यवहार या हाव भाव वाले मनुष्य को नफरत और हिकारत की नजर से देखते हैं। कभी उसके जीवन में झांक कर देखने की कोशिश नहीं करते की एक इंसान के तौर पर उसे कितनी तकलीफ और तिरस्कार को झेलना पड़ता है। एलजीबीटी समुदाय को देने के लिए क्या सचमुच आपके पास नकारात्मकता के अलावा कुछ नहीं है? जब घर में ही नकार दिया जाता हो तो सामाजिक और राजनीतिक प्रतिनिधित्व का सवाल ही नहीं उठता। तो इस मुद्दे पर कम कहने और ज्यादा समझने से काम नहीं चलेगा इसलिए जयपुर में कुछ युवाओं ने 28 जुन को प्राइड डे मनाया।

अलग-अलग ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाले युवाओं के बीच फ्राइड डे के मौके पर कई सारे विषयों पर चर्चा हुई और मन और शरीर में चलने वाले विभिन्न प्रकार की क्रियाओं या गतिविधियों पर बातचीत करने, उन्हें पहचानने और नाम देने के लिए एक स्पेस खुला। यहां किसी को कहने की हिम्मत हुई, कोई सुनने वाला मिला और जो मनोभाव तथा शारीरिक मानसिक स्थिति के पहलू निकल कर सामने आए उसे मिलकर समझने का प्रयास किया गया। एलजीबीटी समुदाय को लेकर जिस तरीके से पूरी दुनिया में विभाजन साफ नजर आ रहा है ऐसे में इस मुद्दे को राजनीतिक और सामाजिक दोनों तौर पर समझना प्रगतिशील मस्तिष्क के लिए जरूरी है।

बाहर से सामान्य दिखने वाले अलग-अलग व्यक्तित्व की अंदरूनी कहानियां यहां निकल कर सामने आई-

एक बच्चे का किस प्रकार से स्कूल और पड़ोस में अलग पहचान के लिए दूसरे बच्चों और यहां तक कि शिक्षकों द्वारा भी मजाक उड़ाया जाता था। बाल बढ़ाने पर घर पर पिटाई होती थी। दूसरे बच्चे साथ खेलना है पढ़ना पसंद नहीं करते थे। सबको पता था कि वह अलग है लेकिन उसमें वह सारी क्षमताएं और सही गलत को समझने की परख मौजूद है जो दूसरे इंसान में होती है। इस बच्चे के पक्ष में एक युवती एक दिन बोल पड़ी, उसके लिए ये समर्थन बहुत मायने रखता था। खैर, आज उसने अपना अनुभव जिस कारण से साझा किया वह महत्वपूर्ण बात है।

दूसरी कहानी एक ऐसे जोड़े की है जिसने प्रेम विवाह किया और एक दूसरे से अभी भी काफी प्रेम करते हैं मगर सेक्स के प्रति उनकी रुचि नहीं है। लेकिन लड़का और लड़की की यह बात एक दूसरे को कभी खुलकर नहीं बता सके या वह इस चीज को समझ ही नहीं पा रहे थे। आज उन्होंने इस व्यवहार को पहचाना और स्वीकार किया। इस बात को लेकर उनकी परेशानी दूर हुई है तो शायद उनके जीवन में यह बहुत बड़ा बदलाव लाएगा।

LGBTQA+ समुदाय को 21 वीं सदी का समाज किसी शारीरिक- मानसिक बीमारी के तौर पर तथा सामाजिक और नैतिक बुराई की नजर से देखता है। इस प्राकृतिक विभिन्नता और पहचान की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विचार और प्रवृति से मौजूदा पारंपरिक सामाजिक ढांचे को डर लगता है। समलैंगिकता का नाम लेने से ही लोग अपराध बोध महसूस करते हैं। हालांकि एलजीबीटी का मतलब सिर्फ समलैंगिकता ही नहीं है इसका दायरा और परिभाषाएं व्यापक होकर बदलती रहती है यानि कुछ भी बने बनाए ढांचे में नहीं रहना है और यही इस आंदोलन का परिचायक है।

LGBTQA+ समुदाय को समाज में बराबरी का हक, अधिकार मिले, अपनी लैंगिक पहचान के लिए किसी को शर्मिंदा ना होना पड़े,  खुल कर जी सके, कोई भेदभाव, दमन शोषण ना हो ऐसा समाज बनाने का काम इसी तरह की बातचीत और समझदारी बनाने की प्रक्रिया से शुरू होता है। समाज अपने अंदर की विविधता को नकार नहीं सकता है। जो व्यक्ति, समाज, संस्कृति और विचारधारा विभिन्न लिंग, लैंगिक पहचान, रंग, व्यवहार, खानपान और पहनावे की विविधता के अस्तित्व को सम्मान और स्वीकृति नहीं देता है और मानवीय प्यार की एकता, समानता की भावना को नकारते हुए अपनी विशिष्ट पसंद और पहचान दुनिया पर थोपता है उसे हम फासीवादी, नस्लवादी, जातिवादी, प्रतिक्रियावादी आदि नामों से जानते हैं।

राह मुश्किल जरूर है लेकिन नामुमकिन नहीं।