बुनकर कबीर से एक मुलाकात: मेहनतकशों की मानसिक-सामाजिक-आर्थिक दासता के ख़िलाफ़ विद्रोह की विरासत

कबीर के जन्मदिवस के मौके पर: मेहनतकश समाज से उभरे इस दार्शनिक की विरासत को और गहराई से जानने का प्रयास करें। फासीवादी हमले और संकट के दौर में मेहनतकशों के हक़ में खड़े इस महत्वपूर्ण वैचारिक ढाल को हम भूल न जाएं!
बिन कबीर हम मालिक की वस्तु, संग कबीर इंसाना रे ।
भक्ति का खूब बखान किया, अब शक्ति को पहचाना रे।।
कबीर को कौन नहीं जानता! ‘कबीर शाह’, ‘कबीर दास’, ‘संत कबीर’, ‘सद्गुरु कबीर’.. वे कई नाम से जाने जाते हैं। खुद को लेकिन वो कहते हैं ‘कबीरा’! कबीरा अपनी बाणी में जनता से सीधे रूबरू होते हैं, “कहे कबीरा, सुन भई साधू!”, “हेली माहरी रे!” आज किताबों में उनके दोहे कई भाषाओं में मिलते हैं, जो कई बार सबके समझ भी नहीं आते हैं, पर उनके भजन लोक-कलाकारों द्वारा जब जहां गाए जाते हैं, तब कबीर वहीं की भाषा और रंग ले लेते हैं। कबीर एक धारा हैं जो भारत के पूरे समाज को भिगोती है और पूरा समाज इसमें अपने अनुभव मिलाता रहता है। भारतीय समाज को समझने के लिए इस धारा में उतरना जरूरी है।
“तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी!
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे!!”
कबीर के जन्म, जाति, धर्म – परिचय से जुड़ी हर बात पर बहस है। उनके परिचय से जुड़ी कई कहानियाँ तक बन गईं हैं। लेकिन एक इंसान के परिचय में जो सबसे महत्वपूर्ण दो बातें होती हैं – एक तो ये कि उनका व्यक्तित्व किस समय और समाज में बना और दूसरा ये कि उस समय और समाज में उनके व्यक्तित्व ने क्या योगदान दिया – कबीर के बारे में इन दोनों बातों को ठीक से पहचानना ज़रूरी है।

कबीर का समय और समाज – कबीर की रचनाओं की पृष्ठभूमि
कबीर का व्यक्तित्व उस समय बन रहा है जब संगठित धर्मों के अंदर एक विद्रोह खड़ा हो रहा है और भारत में एक वैकल्पिक राजनैतिक – सामाजिक शक्ति का रूप ले रहा है।
13वीं से 16वीं सदी भारत में शक्तिशाली बड़े राज्य के पतन और कई प्रांतीय और क्षेत्रीय राज्यों के उदय का समय था।
दिल्ली सल्तनत तथा बौद्ध और जैन धर्म के काफी कमजोर होने के साथ ही हम ब्राह्मणवाद में फिर से एक उत्थान देखते हैं। इसके साथ और भी ज्यादा रूढ़िवादी किस्म का ब्राह्मणवादी उत्पीड़न भी उभरता है। समाज में अपनी जगह बनाए रखने के लिए इस व्यवस्था ने जटिल संस्कार और अनुष्ठान पर और भी जोर देना शुरू कर दिया। एक छोटा तबका ही अकेले प्राचीन धार्मिक ग्रंथों की संस्कृत को समझता था और इससे धार्मिक और सांसारिक परंपराओं और कर्मकांडों पर उनका एकाधिकार बना रहता था। जिन लोगों को पारंपरिक चार जातियों में जगह नहीं मिल रही थी या नहीं दी जा रही थी, या जो खुद ही में रहना नहीं चाहते थे, उन्हें बहिष्कृत या ‘चांडाल’ कहा गया।
इन्हीं की तरह भारतीय मुसलमानों में भी एक अभिजात वर्ग था जिनका अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक ताकत के कारण भारतीय-इस्लाम के तौर-तरीकों पर वर्चस्व था। तब तक शायद अशराफ़, अजलाफ, अजलाल और पशमंदा मुसलमान की अवधारणाएँ राजनैतिक विमर्श का हिस्सा नहीं थी। हाँ लेकिन “शरीफ खानदान” काफी प्रचलित पहचान थी, जिसके आधार पर लोग शादी, लेन-देन, नौकरी, व्यापार जैसे बड़े फैसले करते थे, और जगहों, संस्थाओं के नाम में “शरीफ” शब्द मिलता था। “शरीफ” एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है ‘अभिजात’, ‘अमीर’, ‘ऊंचा’ और ये इसी रूप में इस्तेमाल होता था। यानि मुस्लिम समाज में वर्गीकरण एक सामाजिक सच्चाई तब भी थी। यह विभाजन शहरों के अलग-अलग “मोहल्लों” में ठोस भौतिक रूप में दिखाई देता था। “शरीफ” शब्द का एक और इस्तेमाल है, जो तारीख के हिसाब से नया है और उर्दू में मिलता है – ‘सभ्य’। इन दोनों अर्थों का भारत में जन्मी उर्दू भाषा में मिलन, भारतीय अभिजात मुस्लिम वर्ग के सामाजिक, सांस्कृतिक वर्चस्व को व्यक्त करता है।
‘भक्ति आंदोलन’ का सत्य
कबीर, रैदास, और अन्य विचारकों द्वारा शुरू किए गए आंदोलन — जिसे अब ‘भक्ति आंदोलन’ कहा जाता है — को सिर्फ आराधना का एक मार्ग समझना भूल होगी। यह आंदोलन, वास्तव में, समाज के किनारों पर धकेले गए और आर्थिक रूप से वंचित तबकों के विद्रोह का उदय भी था। इसका प्रतिनिधित्व और नेतृत्व उस समय के कुछ प्रबुद्ध और जागृत व्यक्तियों ने किया। इस आंदोलन ने, मूलतः धार्मिक आस्थाओं पर आधारित होने के बावजूद, संगठित धर्म के भीतर प्रचलित भ्रष्ट प्रथाओं और प्रतिगामी तत्वों को जोरदार चुनौती दी और उनका विरोध किया।
जब चीजें बनाने का ढंग बदलता है, तो बाजार में माल के आने-जाने, खरीद-बिक्री, मोल-भाव के तौर-तरीके भी बदलते हैं। आर्थिक व्यवस्था के नियम बदलने से सामाजिक नियम भी बदलते हैं। उत्पादन प्रणाली में यह बदलाव सामाजिक पायदानों को हिला देता है। यह जाति, धर्म, राष्ट्रीयता व लिंग से जुड़ी पहचानों को न सिर्फ ऊपर-नीचे कर देता है, बल्कि उनका आपसी संबंधों को भी बदल देता है। इस घाल-मेल से समाज में दो तरह की प्रवृत्तियां निकलती हैं – एक जो सामाजिक बदलाव और विकास की दिशा में ले जाना चाहती है, और दूसरी जो समाज को पीछे की और ले जाना चाहती है।
कबीर से जुड़ा हुआ आन्दोलन मध्यकाल की इस उथल-पुथल की प्रगतिशील अभिव्यक्ति है। इसके संत निठल्ले दार्शनिक या सुधारक नहीं थे। उनमें से ज्यादातर समाज की मेहनतकश आबादी से थे, अपने जीवन यापन के लिए काम करते थे, श्रम करते थे। रैदास एक मोची थे, कबीर एक जुलाहे थे, दादू एक सूत कातने वाले, नानक एक छोटे व्यापारी, नामदेव एक दर्जी और तुकाराम भी एक निम्न जाति के व्यापारी थे। उन्होंने आम बोलियों में, गायकी के रूप में उन तमाम बातों में हस्तक्षेप किया जिन पर अब तक संस्कृत या अरबी/फारसी का एकाधिकार था। इन संतों द्वारा रचित विभिन्न भजनों और गीतों को पढ़ने से हमें उनके सामाजिक लक्ष्यों और उद्देश्यों की स्पष्ट झलक मिलती है। एक नए समाज की खोज मिलती है। समाज में गैर-बराबरी, भेदभाव, जाति और धर्म आधारित नफरत को पूरी तरह से मिटा देने की दिशा मिलती है। नई उथल-पुथल में एक सामंजस्य बनाने की कोशिश मिलती है, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक समायोजन करने की कोशिश मिलती है।
कबीर के विचार बड़ी संख्या में व्यापारियों और कारीगरों के बीच प्रचलित हुआ। उनका आंदोलन लोगों को उनकी स्थिति और उस स्थिति में लोकतान्त्रिक धार्मिक और सामाजिक मूल्यों की आवश्यकता के बारे में जागरूक कर रहा था। उनके द्वारा पेश किये गए सामाजिक ढांचे में ऐसा कोई वर्चस्वशाली तबका नहीं था जो लाखों-करोड़ों लोगों के ऊपर हावी रहे, और लोग चुपचाप, बिना किसी विरोध के उनका वर्चस्व मानते चले जाएँ। उनके उपदेशों और उनके ‘भक्ति गीतों’ ने एक समतावादी समाज की अवधारणा को एक वास्तविक आकार दिया।
कबीर, एक सुधारक या एक क्रांतिकारी?
इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है। लेकिन आज की तारीख में इस सवाल के विभिन्न पहलुओं को समझना आवश्यक है।
‘भक्ति आंदोलन’ की शुरुआती दार्शनिक अभिव्यक्ति ग्यारहवीं शताब्दी में रामानुजम के ईश्वरवादी वैष्णववाद में हुई। इसने सामाजिक जीवन में सुधार व समाज की शोषण से मुक्ति की दिशा में नए विचारों को बानाने और फैलाने के द्वारा भारत की काफी प्रगति की। पन्द्रहवीं शताब्दी में रामानन्द ने इस प्रगति को और आगे बढ़ाया। दोनों ने सिखाया कि भक्ति के साथ भगवान की सेवा करने वाले सभी लोग भाई हैं, और एक ही सामाजिक स्थिति के हैं। लेकिन इन दोनों और कबीर में अंतर है। रामानुजम का कर्म, और कर्म के आधार पर पुनर्जन्म की अवधारणा में इतना विश्वास था कि वे मानते थे कि भक्ति का मार्ग “शूद्रों” के लिए उपलब्ध नहीं हो सकता। अगर शूद्रों को आध्यात्मिक विकास की चाह है तो वे इस जन्म में अच्छे कर्म करके अगले जन्म में ऊंची जाति में पैदा होने की कोशिश ही कर सकते हैं। रामानंद ने अपने दर्शन में से वस्तुतः सभी जातिगत भेदों को हटा दिया और कर्मकांडों के नियमों में से पाखंड, आडंबर और अन्य कठोर नियम कानून को जरूरी नहीं माना।
जब कबीर के विचार बन रहे हैं, तब भक्ति संतों के साथ-साथ सूफी संतों का भी काफी विकसित विचार समाज में फैल रहा है। कबीर में आ कर ये दोनों धाराएँ मिल जाती हैं। कबीर ने इस नींव पर निर्माण करते हुए, पुराने समाज के धार्मिक कर्मकांड, जाति और संगठित धर्म की मूल अवधारणा को तो अस्वीकार किया ही, धर्म के कारोबार को पूरी तरह खारिज कर दिया और समाज में इसे किसी काम का नहीं छोड़ा।
कबीरा बन बन मै फिरा कारण अपने राम।
राम सरीखा जन मिले, तिन सारे सब काम।।
यही नहीं, कबीर गरीब-मेहनतकश आवाम की दृष्टि से धर्म के कारोबार को खारिज कर रहे हैं।
“ना कुछ देखा भाव भजन में, ना कुछ देखा पोथी में।
कहे कबीरा सुन भई साधो, जो देखा सो रोटी में।।”
“उजला उजला कपड़ा पेरे, चले सूत रा धागा जी।
ए धागा मारे पिता ने बुनिया, सब जग फिरता नागा जी।
जल का भेद बतावो ब्रह्म ज्ञानी, छान पियो जल पानी जी।।”
साथ ही कबीर ने नए बाजारी संस्कृति में प्रचलित हो रहे लालच, शोषण और भूख का भी इतना तीखा विरोध किया कि उनका दर्शन एक स्पष्ट वर्गीय रूप लेते हुए “उच्च” जातियों, धार्मिक वर्चस्वशाली तबकों और अभिजात वर्ग और उनके समय की व्यवस्था के खिलाफ एक क्रांतिकारी रुख लेता नज़र आता है।
कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी खटाइ ।
राज-दुबारां यौ फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ ॥1॥
कलि का स्वामी लोभिया, मनसा धरी बधाइ ।
दैंहि पईसा ब्याज कौं, लेखां करतां जाइ ॥2॥
`कबीर’ कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥3॥
यही वजह है कि कबीर को ‘संत’ होते हुए भी अभिजात वर्ग के हाथों बहिष्कार और सामाजिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी, और यही वजह है कि भारत के करोड़ों की मेहनतकश अवाम में कबीर इतने लोकप्रिय कवि हैं।
बुनकर कबीर – मेहनतकश आवाम के विचारक–कलाकार
कबीर का जन्म 13 वीं या 14 वीं सदी में बनारस में लहरतारा तालाब के आस-पास किसी घर में हुआ था। अब्बा नीरू और अम्मी नीमा दोनों बुनकर थे, बुनकरी करते थे, तो कबीर भी बुनकर रहे। कबीर का समुदाय तब जुलाहा कहलाता था। जुलाहा एक फारसी शब्द है और इसका अर्थ है ‘धागे का गोला’। जुलाहा समुदाय यानि बुनकर समुदाय।
कबीर का ‘आधार कार्ड बनाने का काम’ उन लोगों पर छोड़ देते हैं जो कबीर पर होने वाले हर विमर्श को यहीं उलझाने की कोशिश करते हैं, इसे आगे ही नहीं बढ़ने देते या बढ़ने देना ही नहीं चाहते। हम कबीर को मेहनतकश आवाम के विचारक-कलाकार के रूप में स्वीकार करते हुए, उन्हें ‘कारीगर कबीर’ के रूप में पहचानते हुए, उनके जीवन और उनके विचारों को समझने की कोशिश करते हैं।
गौरतलब बात ये है कि बनारस की कपड़ा उद्योग के केंद्र के रूप में पहली सदी से ही एक खास जगह रही है। जब ऐतिहासिक रेशम-मार्ग से रेशम के कपड़े का चीन से मध्य-एशिया तक व्यापार होता था, तब भी बनारस इस मार्ग से जुड़ा हुआ था। खासकर रेशमी कपड़े के उद्योग को भारत के बड़े शक्तिशाली राज्यों का संरक्षण प्राप्त था। कपड़ा उद्योग मध्यकाल में सबसे ज्यादा विकसित होने वाले उद्योगों में एक था। बनारस का कपड़ा, खासकर रेशम का कपड़ा, कबीर के ज़माने में भी विश्व विख्यात था। जाहिर-सी बात है कि व्यापार के सिलसिले में कपड़ा कारीगर और व्यापारी दूर-दूर तक जाते थे, विभिन्न भाषाओं, साहित्यिक शैलियों, संसकृतियों, आध्यात्मिक मार्गों, धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक व्यवस्थाओं के समपर्क में आते थे।
कबीर भी कारीगरों के हर बच्चे की तरह बचपन से ही कारीगरी के हुनर की तालीम में लगा दिए गए। हर आम कामकाजी घर के बच्चे की तरह कबीर भी होश संभालते ही धंधे के लिए बाजार में उतर गए। वे कपड़ा बेचने के लिए बनारस से बाहर उत्तर प्रदेश के अन्य जिलों, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान तक जाते थे। इस तरह कबीर के विचार बने; हथकरघे पर समाज के लिए जरूरत का सामान बनाते हुए, उस सामान के लिए माल खरीदते हुए, बाजार के लिए माल तैयार करते हुए, उसे बाजार में बेचते हुए, और बाजार के भीतर समाज को देखते हुए। उनकी ‘साधुकड़ी’ भाषा भी बाजार में और व्यापार के मार्गों में बनी है। भारत में मेहनतकश अवाम का पक्ष लेने वाले प्रसिद्ध विचारक – कलाकार एक बुनकर थे। कोई बड़ी-बड़ी पोथी-किताब पढ़ने वाला नहीं बल्कि एक कारीगर! ये बात भारत की मेहनतकश अवाम को कभी-भी भूलनी नहीं चाहिए।
तो क्या हैं बुनकर कबीर के विचार?
कबीर के विचारों पर ऊपर बहुत-सी बातें हो चुकीं, लेकिन जब हम कहते हैं, ‘बुनकर कबीर’, तो कुछ बातें गौर करने लायक हैं। कारीगर कबीर मेहनतकश आवाम को कुछ जड़ सिद्धांत नहीं थमा रहे हैं। वे मेहनतकश आवाम के लोगों को उनकी खुद पर वो संप्रभुता वापस दे रहे हैं जो उनसे छीन ली गई थी। किसी और के द्वारा तय किया गया “धर्म” या “ईमान” न रखने से पाप चढ़ेगा, नरक मिलेगा; इस तरह की सारी जोर-जबरदस्ती से परे कबीर कह रहे हैं –
“ज्यों तिल मा ही तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझ में है, जाग सके तो जाग।।”
कबीर स्वामी-दास, मालिक-सेवक के वर्ग विभाजन को मेहनतकश अवाम के सामने साफ शब्दों में पेश करते हैं – खाने, सोने, सुखी रहने वाला एक वर्ग, और जागने, रोने और दुखी रहने वाला एक वर्ग। आगे कबीर यह भी कह रहे हैं कि मेहनतकश लोगों को अपने आपस के इस गम के रिश्ते, पीड़ा के रिश्ते को पहचानना चाहिए और इस रिश्ते को संभाल के रखना चाहिए। चाहे कोई कितना भी बड़ा संत-पीर-साधु-बाबा क्यूँ न हो, अगर वो ‘पर पीर’ यानि दूसरे की पीड़ को नहीं जानता, तो कबीर कहते हैं कि मेहनतकश अवाम को ऐसे बाबा-पीर को जाहिल व अज्ञानी समझना चाहिए।
“सुखिया सब संसार है, खाए और सोवे।
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवे।।”
“कबीरा वो ही पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जाने, वो जाहिल के पीर।।”
कबीर अपनी रचनाओं में एक से अधिक जगह वर्ग-संघर्ष की बात करते हुए, मेहनतकश अवाम को अपनी शक्ति का एहसास दिलाते हुए, मालिक वर्ग को चेतावनी देते हैं। परिवर्तन को वो सिर्फ जनम-मरण से ही नहीं जोड़ते, सामाजिक परिवर्तन की लहर से होने वाली वर्गीय उथल-पुथल से भी जोड़ते हैं।
तिनका कबहूँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।
कबहूँ उड़ आँखों मे पड़े, पीर घनेरी होय ।।
दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय।
बिन जीव की श्वास से, लोह भसम हो जाय ॥
“मत कर माया रो अभिमान, मत कर काया रो अहंकार
माया गार से काची, रे काया थारी गार से काची
झौंखा पवन का लग जाए, झपका पवन का लग जाए
माया धूल हो जासी, रे काया थारी धूल हो जासी।
ऐसा सख्त था महाराज, जिनका मुल्कों में राज,
जिन घर झूलता हाथी।
जिन घर झूलता हाथी, उन घर दिया न बाती।”
इन तमाम विचारों में निहित क्रांतिकारी पहलू से इनकार करना आसान नहीं है। तो क्या कबीर को हम कारीगर कबीर ही मानें या एक क्रांतिकारी कारीगर कबीर मानें? जहां तक मेहनतकश लोगों की बात है, कबीर उनके अपने हैं, उनके विचारों को जानने-समझने का सफ़र उनकी अपनी विरासत को खोजने का सफ़र है, जो उन्हें खुद के लिए तय करना होगा!
आज के समय में कबीर के लोगों की दुर्दशा
आज हमारे देश में सर्वहारा-अर्ध सर्वहारा आबादी जिंदा रहने की जद्दोजहद में पिस रही है; और पूंजीपति वर्ग देश के ही नहीं, विदेश की भी सबसे प्रतिक्रियावादी-रूढ़िवादी ताकतों के साथ मिल कर देश को फासीवाद की तरफ धकेल रहा है, मेहनतकश आबादी के अलग-अलग तबकों को आपस में लड़ा कर मानव और प्रकृति का अतिदोहन कर रहा है। ऐसे एक कठिन समय में सर्वहारा वर्ग पूंजीपति वर्ग की बंटवारे की राजनीति में फंस कर सांप्रदायिक, जातीय, राष्ट्रीयता और लिंग आधारित नफरत और हिंसा में हिस्सा ले रहा है। हम कबीर को भूल गए हैं।
आज भारत में जो जाति, धर्म, नस्ल, लिंग के आधार पर नफरत और हिंसा फैली है, उसके केंद्र में धार्मिक तनाव नज़र आता है। लोगों का असंतोष अपने से ‘अलग’ नज़र आने वाले समुदाय पर निकलता है। सोचने की बात यह है कि यह क्या वजह है कि लोग इतने गुस्से में हैं, ऐसी नाजुक स्थिति में है कि कोई भी कुछ भी कह के उन्हें भयभीत कर सकता है, तुरंत भड़का सकता है और ज़रा-सी उलझन से लोग आपा खो देते हैं। धार्मिक तनाव के पीछे हमेशा वास्तविक तनाव होता है, ज़िंदगी की असली मुश्किलें होती हैं। धार्मिक तनाव एक समाज में और एक व्यक्ति के मन में उस वास्तविक तनाव की एक विकृत अभिव्यक्ति है और उसके खिलाफ विद्रोह भी। “धर्म उत्पीड़ित मानव की आह है। एक बेदिल दुनिया में जिंदा रहने को मजबूर इंसान को, कुछ महसूस करने वाला दिल-जैसा कुछ मिलता है धर्म से। जब हालात ऐसे हों कि उनमें प्राण न रहें, तब आत्मा के होने का दिलासा देता है धर्म। धर्म आम-जन की अफ़ीम है।” “इसलिए इतिहास का काम है इस दुनिया के सच को उजागर करना।”
तो अगर 2023 में हम कहते हैं कि धर्म आज भी मेहनतकश वर्ग के लोगों की ज़िंदगी का हिस्सा है, तो हम कह रहे हैं कि जन-मानस में आज भी गहरे-पुराने घाव मौजूद हैं।
इंसान पैदा होने के बाद से अगर ऐसी ज़िंदगी जिए जिसमें दिन रात उसका शोषण होता हो, खुशी कभी-कभी आए और मुश्किलें रोज, राहत कम हो और जद्दोजहद ज्यादा। काम के घंटे बहुत हों और काम की कीमत बहुत कम। काम का बोझ इतना हो कि रोज की थकान मिटाने का मौका ही न मिले। जरूरतें ज्यादा हों, आमदनी कम। घर में खींच-तान, बाजार में लूट-खसोट बहुत ज्यादा हो जाएँ; और कीमतें उससे भी ज्यादा। जब चिंता हो, डर हो, हिंसा हो। ऐसे में इंसान का मन जख्मी होने लगता है और ये जख्म इंसान अपने तक सीमित नहीं रखता, अपने परिवार, बच्चों, यार-दोस्तों पर इसका दर्द गुस्से के रूप में निकालता है। जख्मों का ये लेन-देन पूरे परिवार, बिरादरी, समाज, देश में चलता रहता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे चलता रहता है। इस तरह, पूरा का पूरा जन-मानस जख्मी हो जाता है।
तो जब मन जख्मी हो तो पूरा वक्त इंसान उसकी मुश्किलों के बारे में ही सोचता रहता है और ये सोचता रहता है कि उसकी मुश्किलों का कारण क्या है, कौन है। लोगों की कोशिशों में कोई कमी नहीं, लोग बेहिसाब कोशिश में लगे हैं। एक दिन आएगा जब वो अपने दुश्मन को पहचान लेंगे, वो जान जाएंगे कि उनकी मुश्किलों का कारण पूंजीपति वर्ग और उनके चेले-चपाटे राजनैतिक नेतागण हैं, ये पूरी व्यवस्था है – जो उसकी मुश्किलों पर ही टिकी है। इसलिए पूंजीपति वर्ग बार-बार सर्वहारा वर्ग को टोकता है, तंग करता है, भटकता है, बेवकूफ बनाता है। मालिक वर्ग मेहनतकश वर्ग के मन से खेलता है। उसे एक झूठा दुश्मन दिखाता है और खुद को उसके “मित्र” के रूप में दिखाने की कोशिश करता है।
आज भारत के जन-मानस पर जिंदा रहने की जद्दोजहद का भारी बोझ है और उस बोझ को हल्का करने की बजाए, जन-मानस के ज़ख्मों को कुरेदा जा रहा है। लोगों का गुस्सा एक दूसरे पर निकल रहा है, वो रुक कर देख नहीं पा रहे कि आज जो हिन्दू-मुस्लिम की बातें कर रहे हैं, वो खुद अपने लिए कैसे-कैसे ऐशों आराम जुटा रहे हैं।
आज के वक्त में कबीर को याद करना जरूरी क्यूँ है?
तो जब लोग वास्तविकता को देख ही नहीं पा रहे हैं, तो फिर क्या हम मान लें कि कुछ नहीं हो सकता? नहीं, ऐसा नहीं है। ऐसा इसलिए नहीं है क्यूंकि जब समाज बंटता है, तब संस्कृति भी बंट जाती है, सांस्कृतिक गलियारे भी बंट जाते हैं, एक-एक अनुभव जोड़-जोड़ कर इतिहास इकट्ठा करने की पद्धति भी बंट जाती है। जिसके पास साधन है, शिक्षा तक पहुँच है – सत्ताधारी वर्ग कह लीजिए – वो लिख कर इतिहास इकट्ठा करता है, उसमें अपने मतलब की बातें अपने हिसाब से लिखता है और शिला-लेखों पर खुदवाता है, मोटी किताबों में छपवाता है और ऐसा प्रचार करता है कि यही सच्चा इतिहास है। जिसके पास साधन नहीं होते – मेहनतकश वर्ग कह लीजिए – वो लोककला, लोकसंस्कृति, लोकअध्यात्म, लोकविज्ञान और लोकदर्शन में अपने इतिहास को इकट्ठा करता है।
इतिहास के ऐसे कई प्रमाण और भंडार हैं जो मेहनतकश वर्ग में ही संरक्षण पाते हैं क्यूंकि उनमें उनका ही हित होता है। इन प्रमाणों और भंडारों को सत्ताधारी वर्ग हमेशा हाशिये पे रखता है, इनसे दूरी बनाए रखता है, इनके प्रति उदासीन रहता है। यदि सर्वहारा वर्ग के मन में सँजोये हुए संघर्ष और सृजन की ऐतिहासिक याद को बचा कर रखना है तो इतिहास के इन प्रमाणों को संरक्षण देना होगा और इतिहास की उस पद्धति को मान्यता देनी होगी जो इन प्रमाणों पर आधारित है।
जब जन-इतिहास के साथ छेड़-छाड़ शुरू हो जाए, जब ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ ताकतवर लोग, सत्ता में बैठे लोग हेर-फेर करने लगें, तब जनता की सामूहिक ऐतिहासिक स्मृति में दर्ज उन अध्यायों को याद करना, झंकझोरना जरूरी है जिनके प्रमाण सत्ताधारी वर्ग की मुट्ठी में नहीं बलिक मेहनतकश वर्ग के मानस और जीवन में हों। जब फासीवादी रुझान जन-मानस को बीमार करने लगे, तब ये एक “सामूहिक मानसिक चिकित्सा” का अंग है।
कबीर भारतीय जन-मानस की ऐतिहासिक स्मृति का एक ऐसा ही प्रमाण है जो न सिर्फ लोक-इतिहास, लोक-दर्शन, लोक-अध्यात्म, लोक-कला पर रोशनी डालता है, बल्कि ये प्रमाण ऐसे रूप में भी उपस्थित है जिसके आधार पर आज भी भारत के आम लोग कई अन्य सच्चे-झूठे ऐतिहासिक प्रमाणों के सत्य को परख सकते हैं।
“कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकठिया हाथ
जो घर फूंके आपणो, चले हमारे साथ”
कबीर ने अपनी कोई रचना कभी लिखी नहीं, कबीर गाते थे। मेहनतकश लोग उन्हें खूब सुनते थे। अभिजात वर्ग उन्हें नहीं सुनता था, जैसा कि मालिक वर्ग हर लोक-कलाकार के साथ करता है। लेकिन समय के साथ कबीर के भजन इतने प्रचलित हो गए कि एक-के-बाद-एक कई लोग कबीर के विचारों पर चल पड़े। कई अन्य विचारक भी कहीं लोक-कलाकार, कहीं लोक-संत, कहीं लोक-देवी-देवता के रूप में स्थापित होने लगे, संगठित धर्मों के ख़िलाफ़ उपजा यह विद्रोह एक वैकल्पिक धार्मिक-सामाजिक व्यवस्था के रूप में वर्ग के आधार पर संगठित होने लगा, तब अभिजात वर्ग भी कबीर को अपनाने पर मजबूर हो गया। भारतीय साहित्य और इतिहास में इस पूरे विद्रोह को ‘भक्ति आंदोलन’ का परिचय दिया गया।
जरूरी बात ये है कि ‘भक्ति आंदोलन’ की पूरी अवधारणा और पूरी व्याख्या में आज अध्यात्म का पहलू बहुत बड़ा है और सामाजिक बदलाव का पहलू बहुत कम है। कबीर का ‘संत’ रूप तो है, पर बुनकर कबीर नजर नहीं आते, कारीगर कबीर नजर नहीं आते, मेहनतकश कबीर नजर नहीं आते। कबीर का क्रांतिकारी पहलू तो जैसे गायब ही हो गया।
लेकिन आज भी गरीब, दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी इलाकों में कबीर के जो भजन गाए जाते हैं, उनमें कबीर का सामाजिक पहलू जिंदा है। मेहनतकश आबादी ने अपने इतिहास को अपने ढंग से संभाल के रखा है। जो कबीर को सच में जानना चाहते हैं उन्हें इन्हें इतिहास की पोथियों में कम और भजनों में ज्यादा ढूंढन होगा। भजनों में भी कई बदलाव हो चुके हैं। काम जटिल है, लेकिन जरूरी है। ये लेख भी उसी खोज का एक हिस्सा है।
कबीर को जितना ढूंढते हैं, जितना पाते हैं, उतनी ही गहरी बातें पता चलती हैं। ऊपर से देखें तो नज़र आता है कि कबीर धार्मिक पाखंड और आडंबर, जाति और भेदभाव के खिलाफ एक विद्रोह था। लेकिन जब गहराई में कबीर से रूबरू होते हैं तो पाते हैं कि कबीर बैठे-बिठाए ईश्वर/अल्लाह से मिला देते हैं, खुद से मिला देते हैं, सतलोक के दर्शन आँखों के सामने करवा देते हैं, जो अंत में इसी दुनिया की वास्तविकता में आकर मिलता है, इसी हाड़-मांस के शरीर को लोक-काज में लगा देते हैं और ऐसा लगाते हैं कि मंदिर-मस्जिद, व्रत-रोज, तीर्थ-हज की जरूरत खत्म होने लगती है और पंडित-मौलवी भी धर्म-मजहब के व्यापार से मुक्ति पाकर अपने प्रभु और खुदा को भक्तों-बंदों में पा लेते हैं।
बिन चन्दा बिन भाण
सूरज बिना होया उजियारो रे
परलोका मत जा हेली
परख ले यहीं उनियारो रे
ऊपर से देख के लगता है कि कबीर सब इंसानों के बराबर पक्षधर हैं, लेकिन गहराई में झाँकने से साफ़ हो जाता है कि वो मेहनतकश जनता के विचारक-कलाकार हैं। ऊपर से लगता है कि कबीर शोषक के दबाव बनाने वाले, बलप्रयोग करने वाले रूप से अनभिज्ञ हैं, पर कुछ भजनों को सुनते हैं तो देखते हैं कि कबीर अपने अधिकारों और संप्रभुता पर हमले का सामना विचारों के हथियार से करते हैं।
हाथी के इंसाफ से मैंने बाघ को घेरा रे
इसी को फिरता ढूँढता मैं बन-बन में पुकारूँ रे
सत्त का समसीर हाथ में मार बैठूँगा रे
कोई मत छेड़ो रे यार हमें कोई मत छेड़ो रे
तुम दूर खड़े रो रे यार तुम दूर खड़े रो रे
एक लम्बे समय तक लोग इसी बहस में उलझे थे कि कबीर के हर छंद का असली लेखक कौन है, कबीर के साहित्य पर किसका अधिकार है, हर छंद के कबीर द्वारा बने होने की प्रामाणिकता, कबीर की सही भौतिक पहचान क्या थी (कहाँ पैदा हुए, मां कौन थी, पिता कौन थे, कौन जात थे, जन्म का धर्म क्या था, शादी किस से किये, गुरु कौन था, फलाना, ढीकणा!!)। लेकिन गहराई में जा कर देहेंगे तो पाएँगे कि कबीर की विचारधारा सच्चे सामाजिक स्वामित्व पर आधारित है, मेहनतकश वर्ग के साथ विकसित होती है, समृद्ध होती है, और मानवता और समाज के गहरे सवालों पर तीखी बहस उत्पन्न करती है।
जिस कबीर को सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक-राजनैतिक वर्चस्वशाली वर्ग ने खूब प्रचलित किया, उस कबीर में उस वक्त की व्यापक तस्वीर कबीर की व्यक्तिगत चेतना के पीछे छिपा ली जाती है और इस वक्त की जड़ता में आ कर कबीर भी जड़ होने लगते हैं (यानि आज के समय के लिए उनके पास कहने को कुछ नहीं है)।
वहीं सर्वहारा वर्ग में प्रचलित भजनों के कबीर उस वक्त के आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक जीवन की विस्तृत और बारीक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं, उसकी आलोचना करते हैं और एक शक्तिशाली लोक-दर्शन प्रस्तुत करते हैं; साथ-ही-साथ वे आज के वक्त में पहुँच कर जड़ भी नहीं होते, बल्कि आज के वक्त को समझने, उसका विश्लेषण करने और उसमें परिवर्तन करने के लिए भी एक विकसित लोक-दर्शन के सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं।
कबीर का क्रांतिकारी पहलू ये नहीं है कि “वे उनके समय से आगे थे”, बल्कि ये है कि उन्होंने अपने समय से उत्पन्न होने वाले अंतरविरोधों को लोक-दर्शन की माला में पिरो कर भारतीय मेहनतकश आवाम को एक ऐसा औज़ार दिया जिससे वो अपने जीवन की छोटी-बड़ी उलझनों का उचित विश्लेषण कर सकें, इस दर्शन को खुद अपने समय, अनुभव, विचारों और भाषा अनुसार विकसित कर सकें, और निर्भीकता से अपने विचारों को खूबसूरत और प्रभावशाली ढंग से समाज के सामने प्रस्तुत भी कर सकें। यही हैं मेहनतकश आवाम के विचारक-कलाकार कबीर!
तत्व की तलवार कर लो, मन की कटार जी
शबदां री ढाल कर लो, गोली दागो ज्ञान की
हर-हर मरूँगा निशानो साधू चोट है असमान की
कबीर मेहनतकश वर्ग को जोड़ने की धारा है। जब आज मेहनतकश आवाम को धर्म, जाति, नस्ल, जनजाति, लिंग, क्षेत्र, राष्ट्रीयताओं के नाम पे बाँटा जा रहा है, कबीर को मेहनतकश वर्ग की ऐतिहासिक स्मृति में ताज़ा करना, वर्गीय एकता की राह पर एक महत्वपूर्ण कदम है।
- जोहाना महरात
(कबीर के 626वें जन्मदिवस के मौके पर, 4 जून,2023 को प्रकाशित)