कैदियों के राजनैतिक अधिकारों के लिए जतीन्द्रनाथ ने दी थी शहादत

IMG_20201027_142230

क्रांतिकारी शहीद जतीन्द्रनाथ दास के जन्मदिवस (27 अक्टूबर) पर

आज उस महान क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ दास का जन्मदिन है जिसने सिर्फ 25 वर्ष की उम्र में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नीतियों के खिलाफ 63 दिन तक आमरण अनशन करते हुए शहादत दे दी थी। जतिन्द्र दा की यह शहादत जेल में राजनैतिक अधिकारों को हासिल करने की थी।

पढ़ाई से लड़ाई तक

जतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर 1904 में कलकत्ता में हुआ था। इनके पिता का नाम बंकिम बिहारीदास और माता का नाम सुहासिनी देवी था।1920 में इन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास कर लिया। आगे की पढ़ाई कर ही रहे थे कि महात्मा गांधी ने ‘असहयोग आंदोलन’ शुरू कर दिया.जिसके बाद ये भी इस आंदोलन में कूद पड़े। इसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा, लेकिन कुछ दिनों बाद जब यह आंदोलन ख़त्म हो गया तो इनको जेल से रिहा कर दिया गया।

क्रांतिकारियों की संगत और हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के गठन

आगे दोबारा से कॉलेज में अपनी पढ़ाई पूरी करने चले गए। उसी समय इनकी मुलाकात उस वक़्त के मशहूर क्रांतिकारी नेता शचीन्द्रनाथ सान्याल हुई। जिनसे ये काफी प्रभावित हुए और लगातार उनके संपर्क में बने रहे।

आगे सान्याल व अन्य क्रांतिकारियों ने एक संस्था का निर्माण किया, जिसको ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के नाम से जाना गया। इस संस्था को बनाने में दास ने अहम किरदार निभाया था। इसके सदस्य रहते हुए बंगाल में कई क्रांतिकारियों को जोड़ा और संस्था को मजबूत किया।

अपने कामों से जल्द ही पार्टी में एक ऊँचा मुकाम हासिल कर लियाऔर क्रांतिकारी कामों में जोश के साथ हिस्सा लेने लगे। इस दौरान इन्होंने बम बनाना भी सीख लिया। 1925 में इनको काकोरी कांड के लिए गिरफ्तार किया गया। इन्होंने जेल में भारतीयों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहारों के खिलाफ अपना अनशन शुरू कर दिया।

अनशन पर रहते हुए इनको 20 दिन बीत चुके थे, लेकिन ये युवा क्रांतिकारी ने हिम्मत नहीं हारी। अंततः जेल अधीक्षक ने माफ़ी मांगी और 21 वें दिन इनको जेल से रिहा कर दिया।

भगतसिंह का सानिध्य

सान्याल के करीब होने के बाद ये भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस के भी बड़े नजदीक हो गए थे। 1928 में दास नेता जी के साथ कोलकाता में कांग्रेस दल के लिए काम करने लगे।

आगे जब भगत सिंह ने उन्हें बम बनाने के लिए आगरा आने का निमंत्रण दिया, तो वो कोलकाता से आगरा चले आये। 1929 में जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली पर बम फेंका वो बम जतिन्द्रनाथ दास के द्वारा ही तैयार किये गए थे।

जेल की दुर्दशा और आमरण अनशन

14 जून 1929 को दास को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया और लाहौर षडयंत्र केस के तहत जेल में डाल दिया गया। जब इन्हें जेल में डाला गया तो इन्होंने फिर भारतीय कैदियों के साथ होने वाली बदसुलूकी को देखा। एक तरफ जहाँ ब्रिटिश कैदियों को अच्छी सहूलियतें मिलती थी, वहीं भारतीय कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा था, इंसानों जैसा सुलूक नहीं होता था, बल्कि उनकी स्थिति जानवरों से भी दयनीय थी।

भगतसिंह के प्रस्ताव पर जेल के कैदियों को राजनीतिक अधिकार के लिए एक माँगपत्र तैयार हुआ और लगभग सभी युवा क्रांतिकारियों ने आमरण अनशन करने का निर्णय लिया

अन्य क्रांतिकारी साथियों के साथ इन्होंने भी 13 जुलाई 1929 को अनशन शुरू किया। इस दौरान जेल कर्मियों द्वारा इनको खाना खिलाने के लिए बहुत प्रयास किया गया, मगर इस क्रांतिकारी के मकसद को वो तोड़ने में असफल रहे।

कहा जाता है कि दास अपने अनशन के दौरान सिर्फ पानी ही पीते थे। ऐसे में जेल अधिकारी इनके बिगड़ते स्वास्थ्य को देखते हुए एक योजना बनाई। उन्होंने इनके पानी में कुछ गोलियां डाल दिया था, जिससे इनके शरीर में कुछ ताकत बरकरार रहे।

और दे दी शहादत…

जब यतीन्द्र दा को इस बात का पता चला तो इन्होंने पानी भी पीना छोड़ दिया। इसके बाद दिन ब दिन इनकी हालत ख़राब होती गई। कुछ जेल अधिकारियों के समझाने के बावजूद इन्होंने अपना अनशन नहीं तोड़ा और कहा कि जब तक हमारी माँगें पूरी नहीं हो जाती तब तक हम अपना अनशन नहीं तोड़ेंगे। ऐसे में जेल अधिकारियों ने इन्हें जबरदस्ती पकड़कर नाक में नली डाल दी। झटके में ही दूध इनकी साँस की नली में चला गया और दास को साँस लेने में दिक्कत होने लगी।

उनकी हालत नाजुक हो गई और अनशन के 63 वें दिन 13 सितम्बर 1929 को जतींद्रनाथ दास ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

शव यात्रा में उमड़ पड़ी भारी भीड़

लाहौर से इनके शव को ट्रेन से ले जाने की तैयारी की गई। लाहौर शहर थम सा गया था। इनकी अंतिम यात्रा देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा। इनके अंतिम यात्रा में कई महान क्रांतिकारियों ने हिस्सा लिया। इसमें सुभाष चंद्र बोस भी शामिल थे। जिस जगह पर ट्रेन रूकती वहाँ पर लोग इस शहीद को श्रद्धांजलि अर्पित करते और जब इनका शव कोलकाता पहुंचा तो 5 लाख से अधिक लोग इनके अंतिम यात्रा में शामिल हुए….

शहादत के इतने सालों बाद आज भी अपने हक़ों के लिए कुर्बानी देने का यह जज़्बा हमे प्रेरणा देता है।

साथी नवेन्दु मठपाल की पोस्ट (संपादित)

भूली-बिसरी ख़बरे