यह चिंतनीय है कि अधिकतम ट्रेड यूनियनें आमतौर पर पुरुष प्रधान हैं। यूनियन में नेतृत्वकारी भूमिका में महिला श्रमिकों की भागीदारी ना के बराबर है जो भारत में महिलाओं के मुद्दों के अप्रभावी प्रतिनिधित्व के मुख्य कारणों में से एक है।
भारत में ट्रेड यूनियन का 100 साल का इतिहास होने के बावजूद 8% मज़दूर ही संगठित हैं और उसमें भी महिलाओं की भागीदारी हाशिए पर है। जहां तक श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी का सवाल है तो पिछले दिनों विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, भारत में महिला श्रम भागीदारी दर 2019 में गिरकर 20.3 प्रतिशत हो गई थी, जो 2005 में 26 फीसदी से अधिक थी, जबकि पड़ोसी बांग्लादेश में 30.5 प्रतिशत और श्रीलंका में 33.7 फीसदी थी।
यही नहीं सरकारी रिपोर्ट के अनुसार जुलाई-सितंबर 2020 तिमाही के दौरान भारत में महिला श्रम भागीदारी दर गिरकर 16.1 फीसदी हो गई। यानी महिलाओं को लगातार नौकरी गंवानी पड़ी है। इसका कारण यह था कि भारत में अधिकांश महिलाएं कम-कुशल काम करती हैं, जैसे कि खेती-बाड़ी, गारमेंट सेक्टर, भवन निर्माण, घरेलू कामगार और ये ऐसे क्षेत्र थे जो महामारी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।
अब बात करते हैं संगठित और असंगठित क्षेत्र में यूनियन बनाने की प्रक्रिया और यूनियन चलाने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी और महिला मुद्दों को लेकर यूनियन की भूमिका की।
यहां यह स्पष्ट कर दें कि संगठित क्षेत्र की स्थापित ट्रेड यूनियन जो आमतौर पर पुरुष प्रधान हैं, महिला श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने में नाकाम रही हैं। ट्रेड यूनियन में नेतृत्वकारी भूमिका में महिला श्रमिकों की भागीदारी ना के बराबर है और ये ट्रेड यूनियन में भारत में महिलाओं के मुद्दों के अप्रभावी प्रतिनिधित्व के मुख्य कारणों में से एक है। यूनियन बनाने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के निर्णय पर निर्भर करती है, क्योंकि भारत में पितृसत्ता बहुत गहरी है। ऐसे में महिलाओं को यूनियनों में शामिल करना और फिर उन्हें स्वतंत्र जिम्मेदारी देते हुए भविष्य के नेताओं के रूप में विकसित करना मुश्किल हो जाता है।
भारतीय समाज में महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति व महिला श्रमिकों की कमजोर सामाजिक आर्थिक स्थिति भी यूनियन में उनकी भागीदारी में अड़चन पैदा करती है।
संगठित क्षेत्र में गारमेंट श्रमिक भारतीय मज़दूर समूह का सबसे अधिक कमजोर हिस्सा है, जिनमें ज्यादातर महिलाएं हैं, जिनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति कमज़ोर है। कमोवेश यही स्थिति मैन्यूफैक्चरिंग और ऑटोमोबाईल क्षेत्र में है जहां सस्ते श्रम के तौर पर ज्यादतर महिलाओं को प्रोडक्शन लाईन पर असेंबली, पैकिंग और स्टोरकीपिंग का काम करना पड़ता है। सामाजिक-आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने की वजह से ज्यादातर महिलाएं यूनियन बनाने की प्रक्रिया में शामिल नहीं होती है जो नियोक्ताओं के लिए फायदेमंद होता है।
भवन निर्माण कार्य, सफ़ाई कार्य, घरेलू कार्य जैसे असंगठित क्षेत्र के साथ-साथ कृषि कार्य में महिलाएं ज्यादा संख्या में काम करती हैं और भोजनमाता, आंगनवाड़ी वर्कर्स और आशा कार्यकर्ता आदि कुछ हद तक संगठित रूप से सरकार के साथ सामुहिक सौदेबाजी कर पाने की स्थिति में है।
आशा कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, भोजनमाता, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कार्यकर्ता मज़दूर के रूप में अपनी पहचान के लिए लंबे समय से संघर्षरत हैं। श्रमिक की परिभाषा में नहीं आने की वजह से यह कर्मचारी संगठित और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को विभिन्न श्रम कानूनों के तहत मिलने वाली विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लाभ से महरूम हैं। असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की यूनियन प्रक्रिया में और सामूहिक संघर्ष में महिला श्रमिकों की नेतृत्वकारी गतिविधि मौजूद है और ये सिर्फ उनके खुद की पहल कमकदमी की वजह से है।
लैंगिक भेदभाव पर आधारित मुद्दे कभी भी ट्रेड यूनियनों के बीच चर्चा का विषय नहीं रहे हैं और ना ही उनके सामूहिक सौदेबाजी के एजेंडे में शामिल रहे हैं।
प्रोडक्शन लाइन पर काम करते समय एक महिला को ऐसे व्यवहार का सामना करना पड़ता है जो भेदभावपूर्ण होने के साथ मानव के रूप में उनकी गरिमा के खिलाफ़ है। अधिकांश समय उनके साथ उनके सहकर्मियों का ऐसा व्यवहार होता है जो उनके मन में भय पैदा करते हैं और किसी मुद्दे पर इकट्ठे होकर आवाज उठाने की प्रक्रिया में अलगाव पैदा करते हैं।
भारत में महिलाओं को यूनियनों में शामिल करने के लिए लैंगिक भेदभाव और मानसिक उत्पीड़न से मुक्त एक सक्षम कार्य वातावरण बनाने की आवश्यकता है जो महिलाओं को आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करें और यह जिम्मेदारी बहुत हद तक साथी पुरुष कर्मियों की है।
महिलाओं को नियोक्ताओं के साथ संवाद प्रक्रियाओं और सामूहिक सौदेबाजी में और अंततः निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल करने और उन्हें अधिक जिम्मेदारियां प्रदान करने की आवश्यकता है।
अंतरराष्ट्रीय श्रमजीवी महिला दिवस पर इस अहम सवाल पर सोचने और इस स्थिति को तोड़ने के जारी प्रयासों को गति देने के लिये पूरी मेहनतकश आबादी को सामूहिक संघर्ष तेज करने का संकल्प लेना होगा।
‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका (जनवरी-मार्च, 2022) में प्रकाशित