अभिनव अभियान : इंसानी बिरादरी का ग्रामीण सद्भाव यात्रा – देश हमारा, धरती अपनी

यात्रा टोली गाँव की गरीब उत्पीड़ित, मेहनतकश व बच्चों से संवाद बना रही है, इंसानियत जग रही है, गुरुसंगत कर रही है, तो सद्भाव रूपी नीम, पीपल, बरगद का पौधा रोप रही है…
सृजन पीठ (मानवता का मंदिर) के तत्वावधान में इंसानी बिरादरी का अभियान; ग्रामीण सद्भाव यात्रा एक नए तरीके का प्रयोग जैसा है। आमजन से सीधे मिलना, उनको समझना, उनमें एक और सद्भाव पैदा करना, इंसानियत का सबक देना, उम्मीद जगाना इस अभियान का हिस्सा है।
जन से जुड़ाव का यह अभियान- देश हमारा, धरती अपनी का पहला चरण शिक्षक दिवस, 5 सितंबर को लखनऊ से शुरू हुआ। यह यात्रा पूर्वी उत्तर प्रदेश के विभिन्न गांवों से गुजरते हुए गांधी जयंती, 2 अक्टूबर 2021 को आजमगढ़ के निजामाबाद नगर पंचायत में आयोजित कार्यक्रम के साथ पहले चरण पूरा करेगा और लखनऊ वापसी होगी।

यात्रा टोली लखनऊ से सुल्तानपुर, निजामाबाद के ग्रामीण इलाकों से होते हुए बनारस के गांवों तक पहुँच चुकी है। इस बीच मौसम की मार, बरसात ने यात्रा को प्रभावित किया। लेकिन टोली के हौसले बुलंद रहे। इसी दौरान उन्होंने बरसात में गांवों को नरक जैसा तब्दील होते देखा, गांव की सड़कों की खस्ता हालत, आजादी के 75 सालों में कथित विकास की हक़ीक़त से रूबरू हुए।
टोली ने प्राइमरी और जूनियर कक्षाओं के बच्चों के साथ अभियान के उद्देश्यों को लेकर चर्चा और उनके मन की बात जानी। कोरोना काल के चलते बच्चों की बाधित पढ़ाई और शिक्षकों पर गैर शैक्षणिक कार्यभारों का बोझ देखा, खेतों पर धावा बोल रहे नील गाय समेत छुट्टा जानवरों के उत्पात की समस्या को जाना, बिरहा जैसी लोक गायन परंपरा में बढ़ती अश्लीलता को देखा।
यात्रा टोली गाँव की गरीब उत्पीड़ित, मेहनतकश आबादी से मुलाकातें व चर्चा-बातचीत कर रही है, बच्चों से संवाद बना रही है, उनकी क्रियाशीलता बढ़ा रही है। टोली नीम, पीपल व बरगद का पौधा साथ ले गई है, जिसे विभिन्न गांवों में सद्भाव के पौधे के रूप में रोपा जा रहा है।
साथ ही गरीबी, बेरोजगारी के आलम को नजदीक से महसूस करते हुए टोली आगे की यात्रा पर है।

बतकही और गुरुसंगत
यात्रा टोली लोगों से बतकही के साथ ‘गुरुसंगत’ जैसा अनूठा प्रयोग कर रही है। अलग-अलग जगह गुरुसंगत के मुख्य बिंदु हैं- बदहाल होती परिस्थिति और उसको बदलने में हमारी भूमिका। बदलाव का सपना बेहतरी का पहला चरण होता है। दलित समाज के साथ हो रहे अन्याय और उत्पीड़न को रोकने के सन्दर्भ में एकजुटता की ज़रूरत। खेती-किसानी पर मंडराता संकट और उसका प्रतिरोध। किसान आंदोलन के मुद्दों का मेहनतकश, भूमिहीनों और आम जनता से सीधा रिश्ता।
वंचितों और शोषितों की मुक्ति के लिए समाज के विभिन्न हिस्सों के प्रगतिशील और जागरूक नागरिकों के जुड़ाव की ज़रुरत। सामूहिकता और सद्भाव का महत्त्व। गरिमा और स्वाभिमान के साथ सबको जीने का अधिकार है। हर एक नागरिक को शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, भोजन आदि हासिल करने का अधिकार है। बेहतरी के लिए ज़रूरी है लोगों के बीच एका और यह प्रेम और सौहार्द के बिना संभव नहीं। किसी भी समाज की उन्नति के लिए महिलाओं और बच्चों की आज़ादी अहम है। आधी आबादी के श्रम को सम्मान देना इसका अनिवार्य हिस्सा है।

बनारस के गाँव में कार्यक्रम की बानगी, यात्रा टोली की जुबानी
अभियान के 24वें दिन, 28 सितंबर को यात्रा टोली वाराणसी के चिरईगांव ब्लाक से निकल कर दोपहर बाद अराजीलाइन ब्लाक के नागेपुर गांव पहुंचे। यह प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में पड़ता है और इसे प्रधानमंत्री द्वारा गोद लिया गया है।
आज रात से पूर्वांचल के मशहूर जोतिया त्यौहार की शुरूआत है जिसका समापन परसों भोर को होगा। इस दौरान महिलाएं अपने बेटे की दीर्घायु की कामना के लिए निर्जला व्रत रखती हैं और बाकी लोग पूजा की तैयारी करते हैं। इस उत्सवी माहौल में शाम का गुरू संगत का कार्यक्रम मुमकिन नहीं था।
इस बड़े गांव की परिक्रमा हुई, कुछेक लोगों से बतकही हुई।

चर्चा के मुख्य बिंदु;
कोकाकोला प्लांट से बर्बादी के खिलाफ संघर्ष और दमन
कोई दशक पहले कोकाकोला के प्लांट को लेकर पूरे इलाके में आंदोलन छिड़ा था। लोगों की यह समझ बनने में देर लगी कि यह प्लांट क्षेत्र के बहुत नीचे जा चुके भूमिगत जल स्तर को और अधिक नीचा करेगा, पानी का संकट विकराल रूप ले लेगा। देर सही, आखिरकार लोग जागे। विरोध में उतरे। पुलिस की लाठियां खायीं और जेल यात्रा भी की। लंबे संघर्ष का फल मीठा मिला। जनता के दबाव में कंपनी अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर बरेली स्थानांतरित हो गयी।
आंदोलन की अगली कतार में गांव की अनपढ़ महिला जगरूपनी भी शामिल थीं। उन पर भी पुलिस की लाठियां बरसीं और जेल भी गयीं। उन्होंने जनता को जागरूक करने के लिए नुक्कड़ नाटक में भी हिस्सा लिया। वह कहती हैं- हम पानी बचाने निकले थे। पानी नहीं तो जीवन भी नहीं। हम अगली पीढी़ को आनेवाले संकट से बचाने के लिए आंदोलन में उतरे थे। यह देश बचाने का आंदोलन था। आज देश पर बड़ा ख़तरा है। देश से बड़ी कंपनियां हो गयी हैं। लड़ाई ज़रूरी है। उसी से बदलाव आता है।
कोकाकोला विरोधी इस आंदोलन का ही प्रभाव था कि आगे चल कर उनके बेटे मुकेश कुमार को गांव की जनता ने अपना प्रधान चुना। पिछले चुनाव में वह दोबारा प्रधानी जीते। अभी हाल में वह 117 ग्राम पंचायतों के प्रधानों के संगठन के निर्विरोध अध्यक्ष बने हैं। मुकेश ने आंदोलन के माहौल में होश संभाला था। आंदोलन ने ही उन्हें चेतनशील और जुझारू बनाया, सहज और सरल बनाया। वरना तो अधिकतर प्रधान प्रधानी के घमंड में रहते हैं, इधर-उधर करने में व्यस्त रहते हैं।

आदर्श गाँव की पहचान किससे?
जगह-जगह लकड़ी की बढ़िया बेंच का लगना शायद आदर्श गांव की निशानी होती हो। इस गांव में घूमते हुए यही लगा।
आदर्श गांव की पहचान तो इस बात से होनी चाहिए कि वहां रोजगार के साधन, अवसर और सुविधा उपलब्ध हो। स्थिति यह है कि लोग काम की तलाश में 20 किलोमीटर दूर बनारस या फिर मुंबई-दिल्ली जाने को मजबूर हैं।
बनारस जानेवाली बस सुबह मिलती है और वापसी के लिए शाम को। क्षेत्र में काम होगा तो गांव-घर छोड़ कर कौन जायेगा, क्यों जायेगा।
जीवित रहने के लिए मच रही इस भगदड़ में आपसी रिश्ते दरक रहे हैं, बिखर रहे हैं। सहयोग और सौहार्द के मूल्य हल्के होते जा रहे हैं। परिवार भी इससे अछूते नहीं। मुश्किल दौर है, अंधेरा है। तो भी कुछ तो सोचना होगा, कुछ न कुछ करना ही होगा। नहीं तो जीवन और अधिक नरक होता जायेगा।
पॉवरलूम मज़दूरों की दयनीय स्थिति
अभियान ने 29 सितंबर को 25वें दिन, अराजीलाइन ब्लाक के गनेशपुर गांव में दस्तक दी। यहां पटेल समुदाय के लोग बहुसंख्या में हैं। जिउतिया त्यौहार की उत्सवी माहौल में टोली ने इस बड़े गांव की परिक्रमा की, लोगों से भेंट-मुलाकात और बतकही की।

चर्चा के मुख्य बिंदु;
लगभग हर तीसरे गांव में पावरलूम है। पूरा गांव पावरलूम के शोर में डूबा रहता है। शोर तभी थमता है जब बिजली नहीं होती।
कभी पावरलूम से ठीकठाक कमाई होती थी लेकिन मौजूदा सरकार की नीतियों से कारोबार की हालत खस्ता होती गयी। पहले नोटबंदी, जीएसटी और फिर लाकडाउन ने कारोबार का कचूमर निकाल दिया।
पावरलूम पर एक साड़ी बुनने में कोई आठ घंटे लगते हैं। कच्चा माल और बिजली खर्च काट कर हाथ आते हैं कुल डेढ़ सौ रूपये। बुनकरों की मेहनत पर दलाल और व्यापारी मौज करते हैं। बुनकरों को कोई सरकारी सुविधा या राहत नहीं मिलती।
कइयों ने लाकडाउन से पहले कोई दो लाख रूपये से पावरलूम लगाया। इसके लिए इधर-उधर से उधार लिया। अब पछता रहे हैं, चिंता में हैं कि उधार कैसे चुकायेंगे?
बाकी गरीब लोग मोतियां पिरोने का काम करते हैं। उन्हें मोती वगैरह ठेकेदार देता है। मोती पिरोने का काम अमूमन महिलाएं करती हैं। घरेलू काम निपटा कर मोती पिरोने में जुटती हैं। यह आंखफोडू काम है। अगर रोज़ चार घंटे काम करती तो 15 दिन में हज़ार-बारह सौ रूपये मिलते हैं।
पेट पालने की समस्या लगभग हर किसी के साथ है चाहे वह किसी भी जाति-बिरादरी का हो। इस मामले में सब बराबर हैं।