लॉकडाउन में भारतीय उद्योग की मांग

Imported Indian workers plant sugar cane at a plantation in Natal, South Africa, circa 1910. (Photo by Paul Popper/Popperfoto via Getty Images/Getty Images)
बंधुआ मजदूरों की हो वापसी
2 मई को मेरे राज्य गोवा ने राष्ट्रव्यापी लॉगडाउन के चलते राज्य में फंसे उन प्रवासी मजदूरों का रजिस्ट्रेशन शुरू किया जो वापस अपने-अपने घर लौटना चाहते हैं. घर लौट पाने की उम्मीद में सैकड़ों लोग तुरंत लाइन लगाकर खड़े हो गए. 4 मई की सुबह मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने यह घोषणा कर चौंका दिया कि 48 घंटों के भीतर ही 71000 लोगों ने वापस लौट जाने के लिए रजिस्ट्रेशन कराया है और उन्हें और लोगों के रजिस्ट्रेशन कराने की उम्मीद है. उस शाम गोवा के एक बड़े व्यवसायी मनोज काकुलो ने अपने फेसबुक पेज पर पोस्ट लिखी, “यह तथाकथित प्रवासियों का पलायन गोवा में उद्योग को बर्बाद करके रख देगा. इन लोगों ने हमारा फायदा उठाया और जब हमें काम को शुरू करने के लिए इनकीजरूरत है तो हमें छोड़कर जा रहे हैं. कुछ लोगों का पलायन कर जाना तो समझ में आता है लेकिन इतनी बड़ी तादाद में लोगों का जाना, गोवा के अर्थतंत्र के लिए खराब बात है. काकुलो होटल, ऑटोमोबाइल और रियल एस्टेट का कारोबार करते हैं. काकुला समूह गोवा के कारोबार जगत का जाना-माना नाम है और राजधानी पणजी में जो एकमात्र मॉल है उसका नाम काकुलो मॉल है. पिछले साल मई में मनोज काकुलो 111 साल पुराने गोवा चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष चुने गए हैं.
अपनी फेसबुक पोस्ट के अगले दिन काकुलो ने राज्य के मुख्यमंत्री को चेंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष की हैसियत से एक खत लिखा जिसमें उन्होंने शिकायत की, “हमारे संज्ञान में लाया गया है कि लॉकडाउन के पूरे वक्त इन प्रवासी मजदूरों को रहने की जगह और खाने का खाना व मजदूरी दी गई. सच तो यह है कि ये लोग फंसे हुए नहीं थे. लेकिन अब इन लोगों को अपने राज्य लौटने का फ्री का टिकट दिया जा रहा है. बहुत से मजदूर अपने मालिकों को बर्बाद करने के बाद छोड़ कर अपने राज्य वापस जा रहे हैं.”काकुलो ने आगे लिखा कि इस तरह बेरोकटोक पलायन से स्थानीय उद्योग, निर्माण क्षेत्र और कृषि पर नकारात्मक असर पड़ेगा. उन्होंने कहा कि हमें लगता है कि सरकार को स्क्रीनिंग या काउंसलिंग की प्रक्रिया चलानी चाहिए ताकि पता लगाया जा सके कि रोजगार किन लोगों के पास है और उन्हें राज्य में रुके रहने के लिए कैसे मनाया जा सकता है. हमें डर है कि यदि ये लोग अभी चले जाएंगे तो इनको राज्य में वापस आने में वक्त लगेगा और इससे उपरोक्त क्षेत्रों पर असर पड़ेगा.
इस बीच भारतीय जनता पार्टी द्वारा शासित उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ने आजादी के बाद मजदूरों के संरक्षण के लिए बने महत्वपूर्ण कानूनों को खत्म करने की दिशा में कदम उठा लिए हैं. खत्म किए जा रहे कानूनों में महत्वपूर्ण माने जाने वाला कानून न्यूनतम वेतन कानून, 1948 और उससे संबंधित अन्य कानून हैं जो वेतन, ओवरटाइम की गारंटी और काम के घंटों से संबंधित हैं.इसके बावजूद भारतीय उद्योग परिसंघ या सीआईआई खुश नहीं लगता. 8 मई को उसके प्रतिनिधियों ने श्रम और पर्यावरण राज्य मंत्री संतोष कुमार गंगवार से मुलाकात की और मांग की कि वह मजदूरों को काम में वापस लौटने का निर्देश दें और यदि वे वापस नहीं आते हैं तो उनके खिलाफ औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश) कानून और औद्योगिक विवाद कानून के तहत कार्रवाई की जाए. इसके अतिरिक्त प्रतिनिधियों ने मांग की कि औद्योगिक क्षेत्र के पास शेल्टर होम या स्थानीय जगहों पर रह रहे श्रमिकों की पहचान कर उन्हें नजदीकी फैक्ट्रियों में काम पर लगाया जाए.
इन उद्योगपतियों के इरादे एकदम साफ हैं. इनके हित और चिंताएं, जिन्हें राष्ट्रीय हित बताया जाता है, करोड़ों अर्ध कुशल, आसानी से स्थानांतरित हो सकने वाले, भूखे और आसानी से झुकाए जा सकने वाले भारतीय मजदूरों के जनसांख्यिकी लाभ पर निर्भर हैं. भारत की उत्तरउदारवादी विकास यात्रा में यह एक असंतुलित आपूर्ति समीकरण है. कोरोनावायरस आपातकाल ने इस समीकरण को भी बिगाड़ के रख दियाक्योंकि भारतीय श्रम शक्ति के एक व्यापक हिस्से ने समझ लिया है कि उसे ही अर्थतंत्र को शुरू करने की अंतिम कीमत चुकानी पड़ेगी और इसलिए उन लोगों ने खुद को न्योछावर करने से अच्छा घर जाना समझ लिया है.जो हमारी आंखों के सामने हो रहा है उससे स्तब्ध और चिढ़कर मैंने उपन्यासकार अमिताभ घोष को पत्र लिखा. घोष की आइबिस ट्रिलॉजी 19वी शताब्दी के उस ऐतिहासिक घटनाक्रम से लोगों को परिचित कराती है जो हिंद महासागर में घट रहा था और इसमें केंटन में अफीम कारोबार से लेकर मॉरीशस में लोगों की ट्रैफिकिंग तक का उल्लेख है. घोष अमेरिका के ब्रुकलिन में रहते हैं और मुझे उन्होंने तुरंत जवाब दिया, “यह एक डराने वाली कथा है. दुर्भाग्यशाली प्रवासियों को बहुत अधिक भेदभाव और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है और उन्हें बंधुआ बनाकर रखा जाता है. आज की घटनाओं में गिरमिटिया और अन्य रूपों के बंधुआ श्रम की निरंतरता दिख रही है.”
भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद के प्रोफेसर चिन्मय तुंबे ने इंडिया मूविंग : ए हिस्ट्री ऑफ माइग्रेशन में लिखा है, “भारत में संगठित आव्रजन 1830 के दशक के गिरमिटिया आव्रजन से संबंधित है. उस व्यवस्था में आमतौर पर 3 से 5 साल के लिए कठोर श्रम का फिक्सड टर्म का अनुबंध होता था जिसमें नियोक्ता या नियुक्ति की शर्तों को बदलने का विकल्प नहीं होता था. 1831 और 1920 के बीच गिरमिटिया अनुबंधों के तहत 20 लाख लोग एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीपों में भेजे गए. इनमें से एक तिहाई लोगों को कैरेबियन और एक चौथाई को मॉरीशस, दसवें हिस्से को दक्षिण अफ्रीका और अन्य को फीजी, क्यूबा, पेरू और हवाई जैसे द्वीपों में भेजा गया.”लेकिन इसके साथ भारतीय उपमहाद्वीप में बड़ा बदलाव हो रहा था. तुंबे ने बताया है कि भारत में असम के चाय बागानों के लिए जो गिरमिटिया आव्रजन हो रहा था उसमें 19वीं और 20वीं सदी के बीच के दशकों में अनुमानित 20 लाख लोग चाय बागानों में पहुंचे थे. उन्होंने बताया है कि गिरमिटिया श्रम की सबसे खराब बात यह थी कि इसमें मृत्यु दर बहुत उच्च थी और प्लैंटर्स या बागानों के मालिकों के पास सख्त कदम उठाने के विशेष कानूनी अधिकार थे.
सीआईआई आज जो कानून देशभर में लागू करना चाहता है उसमें उपरोक्त उत्पीड़न का स्वर है. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, गुवाहाटी के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज एंड ह्यूमैनिटीज के डीन संजय बारबोरा ने 1999 में लिखे अपने शोध पत्र में लिखा है, “गिरमिटिया व्यवस्था इसलिए बनाई गई थी ताकि प्लैंटर्स को कठोर सजा देने की अनुमति हो ताकि मजदूरों द्वारा अनुबंध के उल्लंघन करने पर आपराधिक मामला चलाया जा सके. इसका इरादा मजदूरों को अपनी श्रमशक्ति को मालिकों से वापस खींच लेने के अधिकार से वंचित करना था. प्लैंटर्स के इन उपायों के लिए जो कानूनी प्रावधान थे उन्हें वर्क्समैन ब्रीच ऑफ कॉन्ट्रैक्ट एक्ट 12 (1859) और 1865 के उसके संशोधन से मजबूती मिली जिसमें हड़ताल के लिए मजदूरों को सजा दी जा सकती थी.”
लगभग 99 साल पहले का चारगोला वॉकआउट (हड़ताल) आज के पलायन से बहुत बड़ा था. 20 मई 1921 को चाय बागानों में काम करने वाले हजारों मजदूरों ने, जो चारगोला घाटी की श्रम शक्ति का लगभग 50 फीसदी हिस्सा थे और जो असम का सबसे ज्यादा चाय पैदावार वाला इलाका था, संयुक्त रूप से काम छोड़ दिया. इन लोगों ने अपना सामान पैक किया और 40 किलोमीटर पहाड़ी चढ़कर सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन पहुंच गए जहां से उन लोगों ने चांदपुर बंदरगाह की टिकट ली. चांदपुर बंदरगाह अब बांग्लादेश के चटगांव संभाग में आता है. इन लोगों ने कसम खाई कि वे कभी आसाम लौट कर नहीं आएंगे. लेकिन 21 मई को ईस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स ने उन लोगों पर हिंसक हमला किया. उनके साथ हुई बर्बरता के समाचार दुनिया भर में छपे और वह बर्बरता राष्ट्रवादी आंदोलन का कारण भी बनी.
1987 में इकोनामिक एंड पॉलीटिकल वीकली में विश्लेषक कल्याण सरकार ने लिखा, “बाद तक भी चाय बागानों के मालिकों का मजदूरों से काम करवाने के लिए कठोर दंड के उपायों पर विश्वास कायम रहा लेकिन मजदूरों के विरोध ने कई प्रबंधन प्रथाओं को अस्वीकार्य बना दिया.” सरकार ने लिखा है कि चारगोला पलायन ने लंबे समय से प्रांत के बागानों में चले आ रहे तरीकों और प्रथाओं को बेकार साबित कर दिया और श्रमिकों के असंतोष और कार्रवाई के प्रति प्रबंधन को ज्यादा उदारता (सोफेस्टिकेश) के साथ व्यवहार करने के लिए मजबूर किया.”क्या आज भारत में जिस तरह से उत्पीड़न करने वाले काम को मजदूर बड़े पैमाने पर छोड़कर चल दे रहे हैं उससे कोई सकारात्मक बात निकलकर आएगी. यह भी एक संभावना है. संभवतः मध्यकालीन यूरोप में ब्लैक डेथ के बाद जो हुआ उस तरह का कुछ यहां हो. 14वीं शताब्दी के मध्य में ब्लैक डेथ ने यूरोप की लगभग एक तिहाई आबादी खत्म कर दी थी.19वीं सदी के आर्थिक इतिहास को दोबारा पढ़ने से हम आसानी से देख सकते हैं कि ये शब्द, विचार और तर्क ब्रिटेन, फ्रांस और डच प्रशासन के नीतिनिर्माता लगातार दोहराते थे. अपनी हृदय विदारक और महत्वपूर्ण किताब कुली वुमन : ऑडिसी ऑफ इंडेंचर में पुरस्कार विजेता लेखिका और शिक्षाविद गायत्री बहादुर, जो भारतीय गिरमिटिया कामगारों की वंशज हैं, बागान मालिकों के बारे में लिखती हैं कि उनका विश्वास था कि दशकों के सुधारों ने गिरमिटिया व्यवस्था को परिष्कृत कर दिया और यह व्यवस्था पूरी दुनिया के लिए विनीत और निर्भर नस्ल की भलाई वाले लाभप्रद नियंत्रण की ब्रिटिश लोगों की निष्पक्षता, ईमानदारी और संगठन की मिसाल है.
मैंने बहादुर से पूछा कि गिरमिटिया का दीर्घकाली असर क्या होता है, तो उन्होंने पूछा, “गुलामी तो गुलामी है. क्या गुलामी की क्षतिपूर्ति हो सकती है? वह व्यवस्था साम्राज्यवादी पूंजीवाद की मशीन का हिस्सा थी और निश्चित रूप से जिन लोगों ने अपना देश छोड़ा उनके लिए अच्छे अवसर मिलने के रास्ते खुले. उदाहरण के लिए वे जाति से मुक्त हुए. इसलिए मुझे नहीं लगता कि भारतीय शहरों में आने वाले प्रवासी मजदूर उन गिरमिटिया मजदूरों से अलग हैं जो कैरेबियन लाए गए थे. इनमें लिटरली (शब्दशः) के साथ, क्योंकि गिरमिटिया भी भोजपुर के अंदरूनी इलाकों से आए थे, आध्यात्मिक समानता भी है. इनके भीतर भी वही विदेशिया आत्मा होती है जो हमेशा उस खोई हुई चीज की आस में रहती है जिसे वे पीछे छोड़ आए हैं.
बहादुर ने कहा कि भारत को छोड़ना किसी चीज से टूटने के साथ ही, किसी चीज के निर्माण की कहानी भी है. “मुझे लगता है कि विरोध की भावना, खुद को नया बनाने के लिए अपने अधिकारों पर डटे रहना, विदेशिया गाते हुए अपने घर लौटने की कोशिश करते रहना, यही एक समाधान है जो मैं प्रवासी मजदूरों से साझा कर सकती हूं.” गिरमिटिया का सबक विरोध करना है जो आपकी पहचान बनाता है.उन्होंने लिखा कि इतने सारे लोगों को अपने गांव में लौटने की कोशिश करते हुए देखने ने उनके भीतर का कुछ हिला दिया है. जैसे कोई ऐसी याद, जो आर्काइव और ब्रॉडकास्ट समाचार के बीच फंसी हुई थी. “निश्चित तौर पर आज मजदूरों की वापसी को उतना त्रासद नहीं बनने देना चाहिए जितना कि मेरे पुरखों के लिए था.”
विवेक मेनेसेस
कारवां से साभार