इस हक़ीक़त को जान पाओ तो कोई बात बने!

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मज़दूरों के दिमाग में बैठा दिया गया है कि किसी भी असफलता के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं। ठेकेदार ने गेट पर रोक दिया, काम नही मिला – दुख इसपर कि मैंने ही देर कर दी, या भाग्य ही खराब है…। पूंजीवादी विचारकों का प्रचार है कि सभी सफलताओं का कारण वैश्विक नीतियां हैं, और असफलताएं निजी कमजोरी से पनपती हैं; विकास का मंत्र बाजार में है जो आलोचना से परे है। मेहनत की लूट जारी रखने का यह बड़ा खेल है कि व्यवस्था के शिकार अपनी दुर्दशा या संघर्ष में पराजय/धोखे को स्वाभाविक और किस्मत की मार मान लें।

मोदी जी ने अपने को बताया ‘मज़दूर नंबर वन’ और मज़दूरों को बना दिया बंधुआ; नारा दिया ‘श्रमेव जयते’ और कानूनी अधिकार छीनकर मुनाफाखोरी को बनाया बेलगाम! मोदी जी ने कहा देश में भ्रष्टाचार खत्म होगा और भारत बना दुनिया का 81वां सबसे भ्रष्ट देश! देश के स्वच्छ होने की बात की और विश्व में सबसे प्रदूषित 10 शहरों में भारत के 7 शहर शामिल हो गए! मोदी जी की गारंटी- गरीबी होगी दूर और अडानियों-अंबनियों के मुनाफे बेलगाम बढ़ते गए!

दरअसल, शिक्षा, धर्मोपदेश, विज्ञापन, मीडिया रूपी हथियारों द्वारा जुमले गढ़े जाते हैं और उसे खूबसूरती से बतौर सच स्थापित कर दिया जाता है। तभी तो निजीकरण – ‘पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप’, बेरोजगारी बीमा – ‘रोजगार गारण्टी योजना’ और बीमार को ‘चिकित्सा सुविधा भोगी’ बना दिया जाता है।

पूँजीवाद ने शिक्षा, तमाम प्रशिक्षण कार्यक्रम, प्रचार, जनसम्पर्क, मनोवैज्ञानिक तौर-तरीके आदि जैसे हथियारों को विकसित करते हुए मज़दूरवर्ग को ‘नियंत्रित’ किया है। कारखानो में चलने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रमों में योगा से लेकर दांत-पेट-ऑंख ठीक रखने के नुस्खे बताये जाते हैं, साथ ही मज़दूरों के दिमाग में यह खौफ बैठाया जाता है कि बेरोजगारी व मंदी के इस दौर में जिसकी नौकरी बची है वह खुशकिस्मत है। ‘प्रतिस्पर्धा के इस दौर में कम्पनी के विकास में ही खुद का भविष्य है, केवल काम मे ही ध्यान लगाओ!’ ‘मज़दूर और प्रबंधन रथ के दो पहिए हैं, इसलिए सामंजस्य बिठा कर चलो!’ यानी मालिकों के मुनाफे के लिए सबकुछ सहकर चुप-चाप काम करो!

इसके अलावा क्वालिटी सर्किल, काइजेन किंग आदि फार्मूलों से मज़दूरों को आपसी प्रतिस्पर्धा में उलझाकर उत्पादकता बढ़ाने के साथ उन्हें आत्मकेंद्रित बनाए रखा जाता है। थके-हारे दिहाड़ी से बाहर निकले तो धर्म-जाति में बाँटने का खेल अलग से। ऐसे तमाम तरीकों से यूनियनों को पंगु बनाने व मज़दूरों को बँटाने का खेल कारगर साबित हो रहा है।

उत्पादन के मूल्य में मज़दूरों की हिस्सेदारी कमतर दिखाने के लिए कई नुस्खों में एक है प्रचार। जूते, साबुन या बिस्कुट का विज्ञापन करने वाले स्टार को भारी कीमत देकर मालिक मज़दूरों को जताता है कि बेचे जाने वाले सामानों में उनके श्रम का बेशी मूल्य नहीं बल्कि वह स्टार मुख्य कारक है।

यूं तो आज ज्यादातर काम ठेकेदारी के मातहत है। उस पर भी मूल कारखाने का अधिकतम काम उनके वेण्डर, सब वेण्डर और उसके भी नीचे पीस रेट पर काम करने वालों की पूरी चेन में बंटा और स्थानीय से लेकर वैश्विक स्तर पर फैला हुआ है। एक ही उत्पाद में लगी पूरी आबादी खण्डों में बिखरी हुई है। थोड़े से परमानेण्ट मज़दूरों को छोड़कर भारी आबादी बेहद कठिन परिस्थितियों व मामुली दिहाडी पर खटते हुए जिल्लत की जिन्दगी जीने को मजबूर है।

संगठित क्षेत्र का होकर भी यह असंगठित आबादी संगठित कैसे हो, यह बड़ी चुनौती है। कभी-कभार होने वाले स्फुट संघर्ष कई बार मज़दूरों की चेतना और संघर्षशीलता को आगे ले जाने की जगह पीछे ढ़केल देते हैं। यह भी होता है कि स्थाई मज़दूर अपने वेतन बढोत्तरी की लड़ाई में ठेका मज़दूरों का इस्तेमाल कर ले जाते हैं और वे ठगे रह जाते हैं।

साफ़ है कि आज पूँजीपतियों और सत्ताधारियों की जुमलेबाजियां व हमले के तरीके काफी बदल गए हैं, जिन्हें समझना होगा; तभी संघर्ष के नये तौर तरीके विकसित हो सकेंगे।

सार्थक संघर्ष के लिए सही रणनीत चाहिए और सही रणनीत के लिए मौजूदा हक़ीकत को समझना जरूरी है!

संघर्षरत मेहनतकश अंक-52,  दिसंबर 2024   का संपादकीय

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