सामाजिक लड़ाई में हाशिये की भाषा रही हिंदी कैसे बनी हिंदुत्व का चेहरा

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‘समकालीन अकादमिक विमर्श एक विचित्र सुझाव देता है कि हिंदी एक ब्राह्मणवादी भाषा है, इसलिए दलितों को इसे त्याग देना चाहिए. क्या एक लेखिका जिसने हिंदी के माध्यम से अपनी राजनीतिक चेतना को पाया है केवल इस डर से हिंदी में लिखना त्याग दे कि कहीं वह ब्राह्मणवादी प्रभुत्व की सहयोगी न ठहरा दी जाए?’ हिंदी की राजनीति पर पढ़िए यह विचारोत्तेजक लेख.

भारत के बहुभाषी सार्वजनिक क्षेत्र में पिछली लगभग दो शताब्दियों में भाषा और अस्मिता को लेकर जो बहसें चली हैं उनका एक नतीजा यह है कि हिंदी एक हिंदुत्ववादी प्रतीक बनकर रह गई है. समकालीन समय हिंदी को उत्तर भारत के राजनीतिक-सांस्कृतिक वर्चस्व के चिह्न के रूप में देखता है. यह हिंदी की साहित्यिक दुनिया में नित दिन दोहराए जाने वाले प्रगतिशील और जनवादी आग्रहों के बावजूद है.

कुछ डेढ़ सौ साल पहले प्रतापनारायण मिश्र सरीखे नागरी आंदोलनकारियों ने ‘हिंद, हिंदू, हिंदी’ का नारा दिया था. हिंदी के साहित्यिक संस्कारों का विकास दिखलाता है कि उसकी साहित्यिक-अकादमिक दुनिया ने मिश्र जी की बजाय प्रेमचंद के साथ खड़े होना तय किया. एक धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील सांस्कृतिक परंपरा, जो न सिर्फ़ हिंदी-उर्दू की साझा विरासत के तौर पर ख़ुद को देखती थी बल्कि जनवादी मूल्यों के वाहक के रूप में भी.

बावजूद इसके, हिंदी केवल एक साहित्यिक भाषा न थी. वह प्रशासन की भाषा भी बनी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उपकरण भी. ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्थान’ के नए उद्घोष के रास्ते बहुसंख्यकवादी राजनीति ने उन्नीसवीं सदी में जन्मी ‘हिंदी जाति’ की अवधारणा को आगे बढ़ाया और  हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने का प्रयास शुरू किया. यह स्वाभाविक था कि हिंदी को इस प्रक्रिया में क्षेत्रीय प्रतिरोध का सामना करना पड़ता और यही हुआ भी. यह प्रतिरोध हिंदी को हिंदुओं की भाषा के रूप में प्रस्तावित करने में निहित सांप्रदायिकता के कारण नहीं किया गया. यह विरोध तुलनात्मक रूप से एक नवीन भाषा को समूचे देश के हिंदुओं की स्वाभाविक भाषा बतलाए जाने से उभरा था. तमिल, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम जैसी भाषाएं जो साहित्यिक परंपरा और सांस्कृतिक प्राचीनता के मामले में हिंदी से कहीं अधिक समृद्ध थीं, हिंदी के इस दावे को अस्वीकार करती रहीं. हिंदी एक थोपी गई भाषा और सांस्कृतिक प्रभुत्व का प्रतीक बन गई और इसका विरोध वर्चस्व का विरोध बन गया.

हिंदी के सांस्कृतिक वर्चस्व सम्बन्धी चर्चाएं अक्सर इसे हिंदी-उर्दू विभाजन के इतिहास के संदर्भ से समझने की कोशिश करती हैं. यह एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण होते हुए भी तब सीमित हो जाता है अगर इस विभाजन को मात्र एक प्रशासनिक दुर्घटना के रूप में देखा जाए. द इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख में भाषाविद् पेगी मोहन सुझाती हैं कि हिंदी और उर्दू के बीच का यह विभाजन 1900 में सरकार द्वारा जारी किए गए एक आदेश का परिणाम था. यह विश्लेषण उत्तर भारत में भाषायी संघर्ष के लंबे और जटिल इतिहास को समतल कर देता है. हिंदी और उर्दू के बीच का विभाजन इससे कहीं पहले शुरू हो चुका था, संभवतः उससे भी पूर्व जब 1800 में कलकत्ता स्थित फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई. जहां जॉन गिलक्राइस्ट और अन्य ब्रिटिश प्राच्यवादियों की देखरेख में खड़ी बोली की पहले से मौजूद तमाम शैलियों में से दो को चुना गया, जो खड़ी बोली के दो मानकीकृत रूपों में सामने आयी. एक को नागरी लिपि में लिखा गया, जो बाद में हिंदी बनी और दूसरे को अरबी-फारसी लिपि में जो आगे चलकर उर्दू के रूप में स्थापित हुई. यह विभाजन उस वक्त स्थायी ज़रूर हो गया जब एक लम्बे ‘नागरी आंदोलन’ के बाद 1900 ई. में प्रशासन द्वारा नागरी हिंदी को भी उर्दू के साथ आधिकारिक कामकाज की भाषा के तौर पर मान्यता दे दी गई. इससे भी पहले, दोनों भाषाएं उत्तर भारत में समांतर साहित्यिक और भाषायी परंपराओं के रूप में मौजूद थीं. एक परंपरा फारसी दरबारी संस्कृति के सौंदर्यबोध में निहित थी जबकि दूसरी भक्ति आंदोलन की काव्यात्मक और भक्तिपूर्ण अभिव्यक्तियों में. जिस वक्त उर्दू कविता फली-फूली, उसी दौरान देहाती खड़ी बोली और भाखा में भी काव्य-रचनाएं की जा रही थीं. यह गिलक्राइस्ट और फोर्ट विलियम कॉलेज के हस्तक्षेप से पहले की बात है. 

संयुक्त प्रांत में लम्बे समय तक चले लिपि विवाद के दौरान हिंदी की ओर से इसके जनभाषा होने का जो दावा सामने आया था वह एक सांस्कृतिक स्वामित्व की भावना में कब बदला, कह नहीं सकते लेकिन यह हुआ. हिंदी ने ख़ुद को सभी हिंदुओं की स्वाभाविक भाषा के रूप में कल्पित करना शुरू कर दिया. ख़ुद गाँधी भी इसके ही एक रूप को राष्ट्र की भाषा के रूप में देखने लगे थे. हिंदी की ओर से यह दावा सबसे पहले आस-पास की भाषाओं पर किया गया. हिंदी आंदोलन ने सबसे पहले उत्तर भारत की प्राचीनतम साहित्यिक धरोहरों पर अपना अधिकार जताया, जो हिंदी से इतर भाषाओं की धरोहर थीं.

मैथिली के विद्यापति, भोजपुरी के कबीर, ब्रज के सूरदास, अवधी के तुलसीदास और अपभ्रंश के चंदबरदाई जैसे कवि अब अपनी भाषाओं के नहीं बल्कि हिंदी के कवि बन गए और जिन भाषाओं के यह रचनाकार थे, वे हिंदी की बोलियां बनकर रह गईं. इसने हिंदी को भारत की सच्ची जनभाषा के रूप में अपनी दावेदारी पेश करने की ताक़त दी और इसके साथ-साथ उर्दू को विदेशी भाषा के रूप में चित्रित एवं बहिष्कृत करने का प्रयास भी जारी रहा. 

पिछली दो सदी के हिंदी का इतिहास इस मायने में महत्त्वपूर्ण है कि यह ‘हिंदी भाषी समुदाय’ नाम की उस काल्पनिक श्रेणी को तार-तार कर देता है जो साफ़ तौर पर एक आधुनिक निर्मिति है. जनगणना रिपोर्टों और सार्वजनिक विमर्शों में जिसे ‘हिंदी ‘ कहा जाता है, वह वास्तव में व्याकरणिक रूप से एक दूसरे से अलग बहुत सी भाषाओं का एक समुच्चय है जिनमें भोजपुरी, मैथिली, ब्रज, मगही, अवधी, छत्तीसगढ़ी, बज्जिका आदि शामिल हैं. यह भाषावैज्ञानिक दृष्टि से उतनी ही स्वतंत्र भाषाएं हैं जितनी यूरोप में बोली जाने वाली तमाम भाषाएं. इनकी अपनी समृद्ध साहित्यिक और मौखिक परंपराएं हैं जिन्हें ‘हिंदी’ के नाम पर उनसे ले लिया गया है. उत्तर भारतीय क्षेत्र जिन्हें अंग्रेज़ी भाषी अकादमिक और मीडिया विमर्शों में ‘हिंदी क्षेत्र’ या ‘गोबर पट्टी’ कहा जाता है, वहां के गाँव और छोटे क़स्बों में आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपने दैनिक जीवन में कभी हिंदी नहीं बोली होगी.

इस तथाकथित बहुसंख्यक हिंदी राष्ट्रवाद की परिणति है कि एक हिंदी भाषी आज सब कहीं संदेह और अविश्वास की दृष्टि से देखा जाता है. पिछले कुछ वर्षों में खासकर अकादमिक परिसरों और सार्वजनिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में यह संदेह और भी तीव्र हो गया. हिंदी के प्रति इस संदेह और नकार को वर्चस्व के प्रयासों के विरुद्ध एक उदारवादी प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाता रहा है. इस कारण हिंदी को अपनाने या अस्वीकार करने की यह बाइनरी हिंदी पट्टी के उस गहन सामाजिक यथार्थ को समझने में असफल रही जो नैतिक रूप से इस मसले को इसकी जटिलता में देखने की मांग करता है.

यथार्थ यह है कि विश्वविद्यालयों में आने वाले हिंदी भाषी छात्र और विद्वान किसी भाषाई प्रभुत्व के प्रदर्शन हेतु हिंदी नहीं बोलते हैं. इसे समझने के लिए उनकी सामाजिक, आर्थिक और लैंगिक पृष्ठभूमि खासी महत्वपूर्ण है. यह हिंदी भाषी ज्यादातर स्त्री, दलित, कामगार वर्ग या ग्रामीण पृष्ठभूमि के अभावग्रस्त लोग हैं. वे उन बदहाल और संसाधनहीन हिंदी -माध्यम के संस्थानों की उपज हैं जिनसे होते हुए विश्वविद्यालय तक की राह बनाना अपने आप में चमत्कार से कम नहीं. इनके लिए हिंदी शक्ति का नहीं, संघर्ष का साधन रही है. हिंदी इनके लिए कभी भी विशेषाधिकार की भाषा नहीं रही. वह तो बहिष्करण का एक क्षेत्र रही है जहां पहले उनकी मातृभाषाओं के कारण स्वयं हिंदी के हाथों उन्हें यह बहिष्कार झेलना पड़ा और जब अपनी मातृभाषा को छोड़कर इस हिंदी के रास्ते वे बौद्धिक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कर सके तब, विडंबनापूर्ण ढंग से, स्वयं हिंदी के कारण यह बहिष्कार उन्हें झेलना पड़ता है.

वही हिंदी माध्यम की शिक्षा जिसने कभी इन सामाजिक हाशिये पर खड़े लोगों के बौद्धिक हस्तक्षेप को संभव बनाया था, वही अंग्रेजी भाषी अकादमिक दुनिया में उनके गंभीरता से न लिए जाने का कारण बन जाती है. जहां यह हिंदी में सोचने और लिखने का अभ्यस्त व्यक्ति प्रायः सैद्धांतिक परिष्कार से हीन और इस कारण आलोचना और अनुसंधान के ‘वास्तविक’ कार्य में अक्षम समझा जाता है.

दूसरी ओर हिंदी साहित्यिक क्षेत्र जो आज भी गहरी पितृसत्तात्मक और ब्राह्मणवादी ज्ञानमीमांसीय संरचनाओं में जकड़ा हुआ है, वहां जब स्त्रियां, दलित या अन्य हाशिए के समुदायों से आने वाले विद्वान स्थापित विचारधारा और ग्रंथों पर सवाल उठाते हैं या वैकल्पिक पाठ प्रस्तुत करते हैं, तो उन्हें अक्सर अपरिष्कृत, साहित्यिक संवेदना से रहित या काव्यशास्त्रीय सिद्धांत में अपर्याप्त रूप से प्रशिक्षित कहकर खारिज कर दिया जाता है. परिस्थिति यह है कि जेंडर आधारित सैद्धांतिक आलोचनाएं जो अस्मिता की राजनीति से नहीं बल्कि मार्क्सवाद जैसी सैद्धांतिक दृष्टियों से संचालित होती हैं उन्हें भी हिंदी में अब तक एक स्वतंत्र आलोचनात्मक कैनन के रूप में मान्यता नहीं दी जाती. जहां मात्र स्त्री होने से ही कृष्णा सोबती जैसे लेखकों को भी अस्मितामूलक ‘स्त्री विमर्श’ के सीमित दायरे में धकेल दिया जाता है. यही हाल कमोबेश जाति के प्रश्न का भी है.

इस तरह, इन सारे अवरोधों को पार करते हुए जो हिंदी कभी उनके लिए अकादमिक जीवन में प्रवेश का ज़रिया बनी थी, पलक झपकते ही उनके दोहरे बहिष्करण का आधार बन जाती है. वे इसे त्याग नहीं सकते, क्योंकि यह उनका बौद्धिक घर है. दूसरी ओर दोनों ही जगहें – हिंदी की दुनिया और उसके बाहर का अभिजात्य अंग्रेज़ीभाषी अकादमिक संसार – उन्हें लगातार यह याद दिलाता है कि वे उस संसार का हिस्सा नहीं हैं. एक स्त्री के लिए यह विडंबना और भी तीखी हो जाती है जो स्वयं अपने सामाजिक हाशियाकरण से जूझती हुई अपनी राह बनाती है. वह एक ही वक्त में ‘अपरिष्कृत’ ठहराकर बहिष्कृत भी की जाती है और सांस्कृतिक वर्चस्व की आरोपी भी बना दी जाती है. वह अचानक भाषायी साम्राज्यवाद का प्रतीक बन जाती है. मानो हिंदी का उपयोग भर उसे वर्चस्व के तंत्र से जोड़ देता हो.

ऐसे में प्रश्न उठना लाजिमी है कि एक ऐसा व्यक्ति जो ऐतिहासिक रूप से वर्चस्व की संरचनाओं के विरुद्ध संघर्ष करता रहा हो, वह अचानक कैसे उसी वर्चस्व का प्रतिनिधि बना दिया जाता है? हिंदी के माध्यम से अपनी उपस्थिति को व्यक्त करने को कैसे उत्पीड़न की संरचना में भागीदारी के रूप में पढ़ा जा सकता है? यह वही सूक्ष्म हिंसा है जो वर्चस्वशाली भाषाओं के ज़रिए इतिहास के हर दौर में जारी रही है जहां भाषा कमजोर के हाशियाकरण का जरिया बनती है. हिंदी राष्ट्रवाद की आलोचना जरूरी है लेकिन इस आलोचना की आड़ में हिंदी भाषियों का बहिष्कार दूसरी बात है. यह एक अभिजात्यवादी प्रक्रिया है जो इतिहास के प्रत्येक दौर में निरंतरता से मौजूद वर्ग संरचना को उजागर करती है. यह वर्चस्व की प्रक्रिया हिंदी-प्रतिरोध की प्रतीकात्मक पूँजी के सहारे मुक्ति और संघर्ष की शब्दावली में हाशियों को दोबारा परिभाषित और सीमित करने की ओर अग्रसर है.

समकालीन अकादमिक विमर्श में एक और विचित्र सुझाव देखने को मिलता है जिसमें कहा गया है कि हिंदी एक ब्राह्मणवादी भाषा है, इसलिए दलितों को इसका पूर्णतः त्याग कर देना चाहिए. ऐसे विद्वान क्या सुझाते हैं? किसी गाँव के सरकारी स्कूल में हिंदी माध्यम से पढ़ रही किसी दलित छात्रा को क्या इसलिए पढ़ाई छोड़ देनी चाहिए क्योंकि हिंदी भाषा का एक इस्तेमाल वर्चस्व की राजनीति के लिए भी किया जा रहा है? क्या एक लेखिका जिसने हिंदी के माध्यम से अपनी राजनीतिक चेतना और लेखकीय स्वर को पाया है केवल इस डर से हिंदी में लिखना त्याग दे कि कहीं वह ब्राह्मणवादी प्रभुत्व की सहयोगी न ठहरा दी जाए?

यह अभिजात्य ‘नुस्खा’ सामाजिक वास्तविकता की अवहेलना करता है. वह लोग जो अकादमिक रूप से हिंदी में पले-बढ़े हैं और जिनके पास अंग्रेज़ी तक पहुँच का कभी कोई विकल्प ही नहीं रहा, उनसे भाषा बदलने की यह मांग न केवल अव्यावहारिक है बल्कि अन्यायपूर्ण भी. यह उन संघर्षों की याददाश्त को भी मिटाना है जो इन समूहों ने हिंदी के भीतर अपनी बौद्धिक जगह बनाने के लिए किया था. भाषा महज एक तटस्थ माध्यम भर नहीं है. यह सीमाओं पर मौजूद लोगों के प्रतिरोध और संघर्ष की वह संचित कहानी है जिससे मुँह मोड़ना मुक्ति नहीं बल्कि उस संघर्ष को मिटाना है.

1990 के दशक से हिंदी की साहित्यिक-सार्वजनिक दुनिया बहुत बदली भी है. स्त्री, दलित, अन्य पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय के लेखकों, आलोचकों, कलाकारों और पाठकों के सक्रिय हस्तक्षेप से यह कमोबेश पुनर्परिभाषित हो सका है कि हिंदी में साहित्य, आलोचना और अभिव्यक्ति का स्वरूप क्या होगा. यह हस्तक्षेप महज शैलीगत नहीं हैं, यह मूलतः राजनीतिक और ज्ञानमीमांसीय हैं. वे हिंदी के स्थापित साहित्यिक कैनन को चुनौती देते हैं, लैंगिक भूमिकाओं की पड़ताल करते हैं, जाति, लैंगिकता और अल्पसंख्यक आवाज़ों के दमन का प्रतिवाद करते हैं और बहिष्करण की उस प्रक्रिया से टकराते हैं जिन्हें अब तक ‘सिद्धांत’ और ‘सौंदर्यशास्त्र’ के रूप में मान्यता मिली हुई थी. यह उभरती हुई आवाज़ें हिंदी को नकार नहीं रही हैं. वे उसमें एक क्रांतिकारी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं. वह दृढ़निश्चयी हैं कि हिंदी को उन सवालों और दृष्टिकोणों के लिए जगह बनानी होगी जिन्हें अब तक दबा दिया गया था, या हाशिए पर रखा गया था.

ठीक इसी समय, हिंदी को अरबी-फारसी शब्दावली से मुक्त करने की मुहिम, दक्षिण भारत पर हिंदी थोपने की कोशिश, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आह्वान और हिंदी के प्रचार के लिए राज्य संसाधनों का उपयोग – यह सभी हिंदी के भीतर इस उभरते हुए लोकतांत्रिक क्षेत्र को कमज़ोर करने के काम आ सकते हैं. ‘हिंदी -विरोध’ या ‘हिंदी -द्वेष’ जैसे भावनात्मक मुद्दों का रणनीतिक इस्तेमाल इस आलोचनात्मक स्वर को शांत कराने के लिए किया जा सकता है.

ऐसे में प्रतिरोध कर रहे लेखक विशेषकर स्त्रियां, दलित और दूसरे असहमति रखने वाले बुद्धिजीवी, ख़ुद को उस दबाव में पाते हैं जहां उन्हें या तो राष्ट्रवादी हिंदी ढांचे में समाहित होना होगा या फिर पूर्णतः मिटा दिए जाने का जोखिम उठाना पड़ेगा. यह थोपी हुई समरूपीकरण की प्रक्रिया उन धीमे, जमीनी स्तर संभव हुए बदलावों को मिटा देने की एक कोशिश है जिन्हें दशकों के संघर्ष से अर्जित किया गया है.

यदि हम हिंदी के भीतर मौजूद इस विविधता को पहचानने और संरक्षित करने में असफल रहते हैं, तो हम उस संभावना को खो देंगे जिसमें एक लोकतांत्रिक हिंदी सार्वजनिक क्षेत्र फल-फूल सकता है. हिंदी कोई एकीकृत परंपरा नहीं है. अन्य भाषाओं की तरह यह भी एक संघर्षपूर्ण, तनाव और तकरार से भरी जगह है. एक ऐसा स्थल जहां असहमति और प्रतिरोध लगातार आकार लेते रहे हैं. जिसे संरक्षित करना अनिवार्य है, अगर हमें इस देश में लोकतंत्र को जीवित रखना है. यह कार्य न तो अभिजात्य क्रोध से संभव है, न ही आवेगपूर्ण निंदा, घृणा या बहिष्कार से किया जा सकता है. इसके लिए जरूरी है कि स्थिति की जटिलताओं की सूक्ष्मता से समझा जाए और स्वयं हिंदी  के भीतर मौजूद प्रतिरोध और संघर्ष के स्वर को संरक्षित किया जाए.

द वायर से साभार

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