भारत में ट्रेड यूनियनों का विकास और संग्रामी धारा

भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन में जहां समझौतापरस्ती की प्रवृत्ति थी, तो संग्रामी धारा भी लगातार विकसित होती रही। आजादी के बाद एक ट्रेड यूनियन केंद्र की जगह पार्टी आधारित केन्द्र बनते गए, टूट-फूट बिखराव के साथ मज़दूर आबादी बँटती रही।
भारत में पुराने पारंपरिक उद्योग धंधों और उनके विकास को नष्ट कर अंग्रेजी गुलामी के दौर में उद्योग स्थापित हुए। यह वह भयावह दौर था जब मज़दूर बेहद दमनकारी-शोषणकारी स्थितियों में कार्य कर रहे थे। यहीं से मज़दूरों के संघर्षों का सिलसिला भी आगे बढ़ा और मज़दूरों के संगठित होने की प्रक्रिया भी गति पकड़ती गई।
पहले दौर के संगठन और पाठशालाएं
19 वीं सदी में देश के फैक्ट्री मज़दूरों को शिक्षित, जागरूक व संगठित करने में कई प्रयास हुए। बंगाल में ‘वर्किंग मेंस क्लब’ (1970), मुंबई की मज़दूर बस्तियों में रात्रि स्कूलों की स्थापना (1872), कोलकता से ‘भारत श्रमजीवी’ मासिक पत्रिका (1874), ‘बारंगल इंस्टीच्यूट’ (1880), बारंगल जूटमिल मज़दूरों के लिए रात्रि स्कूल व बचत बैंक (1889), कोलकाता में मिल मज़दूरों की ‘मुहम्मिदान एसोसिएशन’ (1895) तथा ‘इण्डियन लेबर यूनियन’ गठित हुआ। भारत व वर्मा के संयुक्त रेलवे कर्मचारियों ने भारतीय कम्पनी ऐक्ट के तहत संस्था पंजीकृत कराई (1897)।
ज्योती बा फूले के सहयोगी नारायण मेधाजी लोखण्डे ने ‘दीनबंधु’ पत्रिका शुरू की (1898) व ‘बाम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन’ बनाया (1890) और मज़दूरों को संगठित करने के प्रयास किए। देश में मजदूर संघर्ष आगे बढ़ने के क्रम में कलकत्ता प्रिंटर्स यूनियन (1905) और ईस्ट इंडिया रेलवे इंपलाइज यूनियन (1906) के गठन शुरुआती महत्वपूर्ण सांगठनिक प्रयास के परिणाम थे।
रूसी क्रान्ति और नयी चेतना का विकास
1917 में मज़दूर वर्ग की महान अक्टूबर क्रान्ति से रूस में मज़दूर वर्ग की ऐतिहासिक सत्ता कायम हुई। इसने पूरी दुनिया के मज़दूर वर्ग को मुक्तिकामी प्रेरणा प्रदान की। इससे भारत के मेहनतकश वर्ग के संघर्ष और सांगठनिक पहल भी तेज हुए।
दूसरी तरफ प्रथम विश्व युद्ध के बाद गठित लीग ऑफ नेशन्स (1919) के हिस्से के तौर पर, रूसी क्रान्ति के दबाव में, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) बनी। जहाँ रूसी क्रान्ति पूरे मज़दूर वर्ग की मुक्ति की घोषणा थी, वहीं आईएलओ का घोषणा पत्र मानवता और सामाजिक न्याय पर आधारित था।
व्यवस्थित यूनियनों का गठन
1918 में बी.पी. वाडिया के नेतृत्व में बनी मद्रास लेबर यूनियन व्यवस्थित रूप से गठित पहली यूनियन माना जाता है। जिसमें नियमित सदस्यता व सदस्यता राशि देने की परम्परा शुरु हुई थी।
दूसरी ओर 1918 में गाँधी मॉडल के रूप में अहमदाबाद टैक्सटाइल लेबर एसोसिएशन स्थापित हुई। इसमें पंच निर्णय का सिद्धांत बना, जो कि मुख्यतः मालिकों के रहमो-करम पर आधारित थी।
आईएलओ में भारत की भागेदारी
देश की बरतानवी सरकार ने अपने हित में आई.एल.ओ. में संस्थापक सदस्य के रूप में भारत को प्रवेश कराया। 1920 में आईएलओ के वाशिंगटन सम्मेलन हेतु ब्रिटिश सरकार ने एम.एन. जोशी को भारतीय प्रतिनिधि तथा लोकमान्य तिलक को सलाहकार नियुक्त किया। जबकि मज़दूरों ने तिलक को अपना प्रतिनिधि चुना था। हुकूमत की इस बेईमानी का मज़दूरों ने विरोध किया।
मज़दूरों के पहले महासंघ एटक का गठन
सन 1920 में देश में मज़दूरों का पहला महासंघ – ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) बना। 31 अक्टूबर से 2 नवंबर 1920 को स्थापना सम्मेलन हुआ, जहाँ लाला लाजपत राय पहला अध्यक्ष, जोसेफ बपतिस्ता उपाध्यक्ष व दीवान चमन लाल को महासचिव बने। इसमें मज़दूर आंदोलन से जुड़े सभी विचार के लोग शामिल थे। यह भारतीय मज़दूर आंदोलन का महत्वपूर्ण मुकाम था।
सम्मेलन में देश के लगभग सभी बड़े नेताओं के संदेश आये, लेकिन गांधी जी मौन रहे। अहमदाबाद टैक्सटाइल एसोसिएशन ने भी न तो इसमें भाग लिया और न ही कभी एटक से संबद्ध हुई।
एटक के संघर्षों व चढ़ाव-उतार के दौर
1920 से 1947 तक एटक कई उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरा, लेकिन मुख्यतः एकमात्र केन्द्र के रूप में बना रहा। कानपुर सम्मेलन (1927) में एटक के संविधान तैयारी और साइमन कमीशन के बहिष्कार का निर्णय बना। झरिया सम्मेलन (1928) में भारत के मज़दूरों का समाजवादी गणराज्य बनाने का प्रस्ताव पारित हुआ और कलकत्ता की सर्वदलीय सम्मेलन (1928) के लिए ‘उद्योगों और भूमि के राष्ट्रीयकरण, सभी वयस्कों को मताधिकार, हड़ताल करने का अधिकार, मज़दूर वर्ग के समाजवादी गणराज्य के सिद्धांत पर संविधान, सभी जागीरों, रियासतों और जमींदारों के उन्मूलन’ जैसी माँगें प्रस्तुत करने के लिए प्रतिनिधि मंडल बना।
एटक का विभाजन और एकता का दौर
जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता वाले नागपुर सम्मेलन (1929) में सुधारवाद और संग्रामी धारा के बीच बहस तीखा हुआ। अंततः एटक में पहले दुखद विभाजन से ‘इंडियन ट्रेड यूनियन फेडरेशन’ (आइटीयूएफ) बना। सुभाष चंद्र बोस की अध्यक्षता वाले कलकत्ता सम्मेलन (1931) में फिर विभाजन हुआ और ‘ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ (एआईटीयूसी) गठित हुआ।
नये प्रयास के तौर पर 10 मई 1931 को ट्रेड यूनियन एकता समिति बनी। 1933 में आइटीयूएफ व ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ लेबर’ की एकता से नेशनल ट्रेड यूनियन फेडरेशन (एनटीयूएफ) बना। कलकत्ता सम्मेलन (1935) में एटक व एआईटीयूसी की एकता हुई। 1936 में एटक व एनटीयूएफ ने संयुक्त मज़दूर बोर्ड बनाई। दिल्ली सम्मेलन (1938) में एकता के प्रयास तेज हुए, नागपुर की संयुक्त बैठक में एनटीयूएफ एटक से संबद्ध हुआ और 1940 में पूर्ण विलय हो गया।
और बनने लगे पार्टी आधारित महासंघ
देश की आजादी से ठीक पूर्व 3-4 मई 1947 को दिल्ली में कांग्रेस मज़दूर सेवक संघ के सम्मेलन में ‘इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ (इंटक) का प्रस्ताव बना। इस प्रकार देश में पहली बार कांग्रेस ने पार्टी आधारित मज़दूर महासंघ की परंपरा शुरू की।
1948 में कांग्रेस के एक धड़े ने ‘हिंद मजदूर पंचायत’ बनाया, कलकत्ता सम्मेलन में ‘इंडियन फेडरेशन ऑफ लेबर’ के साथ इसके विलय से ‘हिंद मजदूर सभा’ (एचएमएस.) बना। इससे अलग होकर एक हिस्सा ने 1949 में ‘यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ (यू.टी.यू.सी.) बनाया। फिर आरएसपीआई से अलग होकर एसयूसीआई बनने से दो यूटीयूसी बन गये। एचएमएस में पुनः विभाजन से एचएमएस व ‘हिंद मजदूर पंचायत’ बने। कथित हिन्दू राष्ट्रवाद की पोषक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने 1955 में ‘भारतीय मजदूर संघ’ (बीएमएस) का गठन किया।
1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) में विभाजन से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी (सीपीआईएम) बनी तो सीपीआई से एटक संबद्ध रहा, तो सीपीआईएम ने ‘सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस’ (सीटू) बना लिया।
देश में 1967 के नक्सलबाड़ी मज़दूर-किसान उभार के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) बनी। 1970 के बाद, टूट-फूट व एकता के दौर से गुजरते हुए कई क्रान्तिकारी संगठन बनते रहे। उधर सीपीआई एमएल लिबरेशन ने ‘आल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियन्स’ (एक्टू) बनाया। दूसरी ओर कुछ क्रांतिकारी संगठनिक हिस्सों के प्रयास से मज़दूरों के कुछ नये महासंघ- ‘ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियंस’ (इफ्टू), न्यू इफ्टू, इफ्टू सर्वहारा, ट्रेड यूनियन सेंटर ऑफ इंडिया (टीयूसीआई) आदि अस्तित्व में आये।
समझौतापरस्ती के बीच संग्रामी धारा
भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन के संक्षिप्त परिचय से देखा जा सकता है कि शुरुआती दौर से ही जहां एक तरफ समझौतापरस्ती की प्रवृत्ति थी, तो ट्रेड यूनियन में संग्रामी धारा भी लगातार विकसित होती रही। 1947 में अंग्रेजी गुलामी से आजादी के बाद जहां एक तरफ ट्रेड यूनियन महासंघों में टूट-फूट बिखराव की प्रवृत्ति आगे बढ़ी, वहीं मज़दूरों के एक ट्रेड यूनियन केंद्र की जगह पार्टी आधारित ट्रेड यूनियन केन्द्र बनते चले गए और मज़दूर आबादी बँटती रही। साथ ही सत्ताधारी पार्टियों से जुड़कर ये महासंघ पूंजी की सेवा में लग गए।
दूसरी तरफ जो जुझारू और लड़ाकू ट्रेड यूनियन केंद्र थे, उन्होंने भी मज़दूरों को वेतन बोनस भत्ते की लड़ाई तक सीमित कर दिया और आर्थिक लड़ाइयां लड़ते-लड़ते अर्थवाद के दलदल में धंस गए। ऐसे में मज़दूरों की वास्तविक लड़ाई पीछे छूटती गई। और पूंजीपति और उनकी सरकारों द्वारा मज़दूर विरोधी नीतियों के हमले भी तेज होते गए।
इसी दौर में ट्रेड यूनियन आंदोलन में तमाम नए प्रयोग भी हुए, जुझारू आंदोलनों का सिलसिला चला, जिसका नेतृत्व संग्रामी धारा की ट्रेड यूनियनें करती रहीं। प्रमुख रूप से कॉमरेड ए के राय के नेतृत्व में झारखंड के कोयला मज़दूरों का संघर्ष, कॉमरेड शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ का जुझारू और प्रयोगधर्मी संघर्ष, मुंबई में दत्ता सामंत के नेतृत्व में संघर्षों का सिलसिला, गुजरात में कॉमरेड मुकुल सिन्हा के नेतृत्व में मज़दूर आंदोलन के नए प्रयोग शामिल हैं।
पश्चिम बंगाल में कनोडिया जूट मिल आंदोलन से लेकर गुड़गांव-मानेसर मारुति आंदोलन तक और उसके बाद भी मज़दूर व ट्रेड यूनियन आंदोलन में एक संग्रामी धारा आगे बढ़ती रही है। आज पूरे देश में अलग-अलग क्षेत्र में कार्यरत ट्रेड यूनियन आंदोलन की संग्रामी धारा मज़दूर आंदोलन को नेतृत्व दे रही है, लेकिन इनकी ताक़त छोटी है।
वर्ष 2016 में देशभर के कई संग्रामी ट्रेड यूनियनों-मज़दूर संगठनों के साझा मंच ‘मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान’ (मासा) का गठन हुआ जो निरंतर, जुझारू और निर्णायक संघर्ष की दिशा में प्रयासरत और सक्रिय है। इसी कड़ी में मौजूदा चुनौतियों के साथ कुछ संगठनों की संग्रामी एकता से ‘सेंटर फॉर स्ट्रगलिंग ट्रेड यूनियंस’ (सीएसटीयू) का भी गठन हो रहा है।
‘संघर्षरत मेहनतकश’ अंक-52, दिसंबर 2024 में प्रकाशित