ग्राउंड रिपोर्ट: ढाई दशक से बंद पड़ी झांसी सूती मिल, संकटग्रस्त मज़दूर; कौन है इसका जिम्मेदार?

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कभी उत्तर प्रदेश की शान सूती व कताई मिलें उदारीकरण-निजीकरण की जनविरोधी नीतियों और सरकारी कुनीतियों से धीरे-धीरे बंद होती गईं। इससे भारी संख्या में बेरोजगारी बढ़ी।

झांसी। कभी बुंदेलखंड का प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र रहा झांसी उद्योग विहीनता की स्थिति में है। इस क्षेत्र में बीते कुछ दशकों के दौरान कोई नया उद्योग नहीं लगा, सूती/कताई मिल बंद हो गई, कपड़ा उद्योग बंद हो गया। 27 साल पहले उप्र राज्य वस्त्र निगम कताई मिल (सूती मिल) झांसी पर ताला जड़ने के साथ हजारों मजदूरों के पेट पर लात पड़ गया था और तबसे स्थिति और विकट होती गई।

एक समय इस मिल में साढ़े चार हजार से अधिक मज़दूर काम करते थे। 1997 में जब सूती मिल बंद हुआ था, उस समय यहां करीब साढ़े तीन हजार मज़दूर बचे हुए थे, जो बेरोजगार हो गए। साथ ही शहर व आस-पास के गाँव से इससे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जुड़ी एक बड़ी आबादी प्रभावित हुई। मिल पर मज़दूरों व बैंकों का दो अरब 66 करोड़ रुपये बकाया है।

उत्तर प्रदेश में सभी सूती व कताई मिलें बंद

कभी उत्तर प्रदेश की शान सूती व कताई मिलें सरकारी कुनीतियाँ के कारण धीरे-धीरे बंद होती चली गईं। इससे भारी संख्या में बेरोजगारी बढ़ी।

इसकी प्रमुख वजह करीब चार दशक से जारी उदारीकरण की जन विरोधी नीतियाँ हैं, जो सरकार द्वारा संचालित उद्यमों को बंद करके निजी उद्योगों को बढ़ावा देने की नीति है। इसी के तहत रिलायंस के धीरू भाई अंबानी को पोलिस्टर धागों का ठेका देने के साथ सरकारी सूती व कताई मिलों की दुर्दशा बढ़ती गई।

गौरतलब है कि राज्य में उत्तर प्रदेश स्टेट यार्न कम्पनी लिमिटेड से सम्बद्ध मेजा, बांदा और रसड़ा (बलियां) यार्न मिलें; उत्तर प्रदेश स्पिनिंग कम्पनी लिमिटेड से सम्बद्ध रायबरेली, बाराबंकी, मऊनाथ भंजन (मऊ) कताई मिलें; उत्तर प्रदेश राज्य वस्त्र निगम लिमिटेड से सम्बद्ध झांसी, संडीला और मेरठ वस्त्र मिलें और उत्तर प्रदेश सहकारी कताई मिल्स संघ लिमिटेड से सम्बद्ध कम्पिल (फर्रूखाबाद), बुलन्दशहर, फतेहपुर, बहेड़ी (बरेली), अमरोहा, नगीना बिजनौर, बहादुरगंज (गाजीपुर), मगहर (संत कबीर नगर), महमूदाबाद (सीतापुर) और मउआईमा (प्रयागराज) तथा जसपुर व काशीपुर (वर्तमान उत्तराखंड) मिलें बंद हो चुकी हैं।

इतने बड़े पैमाने पर बंदी से प्रदेश में भारी आबादी बेरोजगार होती गई। यूनियनों की समझौतापरस्ती के कारण भारी संख्या में श्रमिकों के बकाया तक का भुगतान नहीं हुआ। मज़दूरों के पीएफ तक को सरकार डकार गई। एक दशक पहले मान्य यूनियनों को किनारे करके सहकारी कताई मिलों के मज़दूरों के संघर्ष और लखनऊ में धरना के बाद बकाया वेतन व ग्रेच्युटी का भुगतान हो पाया था।

झांसी का सूती मिल

झांसी शहर के निकट ग्वालियर रोड पर स्थित उत्तर प्रदेश राज्य वस्त्र निगम कताई मिल को सूती मिल के नाम से जाना जाता है। साल 1977 में 67.69 एकड़ के विस्तृत क्षेत्रफल में इस सूती मिल की शुरुआत हुई थी। मिल में सूती धागों का निर्माण किया जाता था, जिसकी सप्लाई देश भर की कपड़ा मिलों में की जाती थी।

मिल से बने धागे की मांग की स्थिति यह थी कि यहां तीन शिफ्टों में काम होता था। यानी कि मिल चौबीसों घंटे चलती थी। एक समय इस मिल में लगभग चार हजार मज़दूर कार्यरत थे। किसी जमाने में यहां बनने वाले धागे की पूरे देश में धमक थी।

झांसी सूती मिल का सफर बीस साल का रहा। लेकिन, सरकार ने घाटे के बहाने ढाई दशक पूर्व नवंबर 1997 में इसे बंद कर दिया। विधिक तौर पर वर्ष 2001 (14 मार्च) से मिल को बन्द मानते हुए कुछ मज़दूरों को वीआरएस दे दिया गया। अचानक इस बंदी से भारी संख्या में बेरोजगारी बढ़ी, कितने परिवार ही बिखर गया।

हजारों के पेट पर पड़ी लात

राज्य सरकार के अधीन संचालित इस सूती मिल में वैसे तो साढ़े चार हजार से अधिक मज़दूर काम करते थे। इसके इर्दगिर्द दर्जनों खान-पान की दुकानें हुआ करती थीं, जो दिन-रात खुलती थीं। मज़दूरों के लिए मिल में आवासीय परिसर अलग से था। इसके अलावा तमाम मज़दूर आसपास के क्षेत्रों में किराये पर मकान लेकर रहते थे।

लेकिन, धीरे-धीरे मज़दूर निकलते रहे या निकलने को विवश हुए। 1997 में जब मिल को सरकार द्वारा बंद किया गया था, उस समय यहां करीब साढ़े तीन हजार मज़दूर कार्यरत थे, जो बेरोजगार हो गए।

झांसी के इस अहम उद्योग के बंद हो जाने के साथ शहर व आस-पास के गाँव से इससे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जुड़ी एक बड़ी आबादी प्रभावित हुई। इस मिल के श्रमिकों पर आश्रित छोटे कारोबार ठप्प हो गए, चाय-पानी के खोमचे, खान-पान की दुकानें बंद हो गईं।

बकाया के लिए संघर्षरत मज़दूर

आर्थिक संकट से जूझ रहे यहाँ के मज़दूर अब भी बकाया भुगतान के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उधर, बन्दी के बाद मिल उजाड़ हो गई। मज़दूरों का बसेरा उठने के बाद मशीनरी में जंग लग गया, मशीनें कबाड़ में तब्दील हो गईं, भवन खंडहर हो गए, तो परिसर भी जंगल में बदल गया।

बातचीत में एक पुराने श्रमिक ने बताया कि स्थायी बंदी के दौरान मिल में अधिकृत रूप से 2,346 मज़दूर कार्यरत रह गए थे। इनमें से 900 मज़दूरों को मिल की ओर से मामूली वीआरएस दिया गया था। जबकि, 1446 मज़दूरों को छंटनी का मुआवजा मिला था, ये सभी मज़दूर भी वीआरएस और ग्रेच्युटी का लाभ लेने के लिए न्यायालय में लड़ाई लड़ रहे हैं। इसके अलावा मिल पर बैंक ऑफ बड़ौदा समेत अन्य बैंकों का भी बकाया है। कुल मिलाकर 266.69 करोड़ रुपये की देनदारी है।

मिल के एक अन्य पुराने श्रमिक के अनुसार मिल के बंद होने पर मज़दूरों व मिल प्रबंधन के बीच भुगतान के संबंध में सहमति बनी थी, जिसके तहत मज़दूरों को उनकी सेवाकाल की अवधि का गणना के अनुसार भुगतान दिया जाना था। कर्मचारियों को प्रति वर्ष के हिसाब से साठ दिन का वेतन देना था, परंतु स्थायी कर्मियों को 54 व अस्थायी को 28 दिन का भुगतान किया गया।

संघर्ष जारी; लेकिन अब यह चुनावी मुद्दा भी नहीं

लंबे समय तक मजदूरों का कानूनी के साथ जमीनी संघर्ष जारी रहा। बीच में भी मिल को दुबारा चालू करने की मांग उठती रही, स्थानीय जनता द्वारा भी समय-समय पर मिल को पुन: चालू कराने की माँग उठाई जाती रही। लम्बा अरसा बीतने के बाद भी कोई पहल नहीं हो सकी, ताले नहीं खुले।

बंद होने के बाद सूती मिल आगे के कई सालों तक चुनावी मुद्दा बनी रही। नेता और राजनीतिक दल मिल को दुबारा से शुरू कराने के दावे और वादे के साथ जनता के बीच पहुंचते थे। इस पर उन्हें मिल के पुराने मज़दूरों का समर्थन भी खूब मिलता था।

नेताओं द्वारा जनता को मिल दुबारा शुरू कराने का भरोसा मिलता रहा, लेकिन हालात नहीं बदले। मिल पर पड़े तालों को दुबारा खुलवाया नहीं जा सका। अब तो यह चुनावी मुद्दा भी नहीं बन रहा है।

77 एकड़ कीमती जमीन पर सबकी निगाहें

साल 2017 में टेक्सटाइल्स कार्पोरेशन के प्रबंध निदेशक के नेतृत्व में तीन सदस्यीय टीम ने सूती मिल का निरीक्षण किया था। इस दौरान 76.69 एकड़ में फैली सूती मिल के आवासीय भवन, वर्कशॉप और खाली भूमि की कीमत का आकलन किया गया था। जिसमें भूमि की कीमत 5.75 अरब आंकी गई थी। जबकि, भवन, कॉलोनी आदि के निर्माण की कीमत 35 करोड़ रुपये आंकी गई थी।

समिति द्वारा दी गई रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि मिल की मशीनरी में जंग लग चुका है, जिसे चालू करने में अधिक धनराशि खर्च होगी और आउटपुट बेहतर नहीं मिलेगा।

बीते वर्षों की कुछ कवायदें…

  • साल 2018 में सहकारी मिल्स संघ लिमिटेड ने सूती मिल को दुबारा शुरू करने का प्रस्ताव भेजा था, परंतु यह आगे नहीं बढ़ पाया। सर्वे में सामने आया था कि मिल के नाम पर जमीन ही शेष हैं। मशीनें कबाड़ हो चुकी हैं और बिल्डिंग भी किसी काम की नहीं बची है।
  • उत्तर प्रदेश आवास विकास परिषद का भी मिल की जमीन पर कॉलोनी विकसित करने का प्रस्ताव था, लेकिन बाद में परिषद ने कदम पीछे हटा लिए थे।
  • झांसी विकास प्राधिकरण (जेडीए) की ओर से मिल की जमीन खरीदकर उसमें कॉलोनी बनाने में दिलचस्पी दिखाई थी। लेकिन, योजना परवान नहीं चढ़ सकी।

प्रशासन कहता है कि सूती मिल को लेकर न्यायालय में मामले विचाराधीन है। मिल को लेकर किसी भी तरह की कार्यवाही न्यायालय के आदेश पर ही अमल में लाई जाएगी।

सूती मिल कर्मचारी संघ के महामंत्री ओपी शर्मा कहते हैं कि विभिन्न देयकों के भुगतान के लिए कर्मचारी न्यायालय में पिछले बीस साल से लड़ाई लड़ रहे हैं। निचली अदालत ने कर्मचारियों के हित में फैसला आया है। सुप्रीम कोट में वाद जारी है।

योगी सरकार द्वारा जमीनों के व्यावसायिक इस्तेमाल की तैयारी

जानकारी के अनुसार, राज्य में उत्तर प्रदेश राज्य वस्त्र निगम लिमिटेड की 22.89 एकड़, उत्तर प्रदेश राज्य स्पिनिंग मिल लिमिटेड की 322.35 एकड़, उत्तर प्रदेश राज्य यार्न लिमिटेड की 212.79 एकड़, उत्तर प्रदेश सहकारी कताई मिल्स संघ लिमिटेड की 705.27 एकड़ सहित कुल 1461 एकड़ जमीन है।

यह जमीन मेरठ, हरदोई, झांसी, प्रयागराज, बांदा, बलिया, मऊ, रायबरेली, बाराबंकी, अमरोहा, बरेली, गाजीपुर, फतेहपुर, फर्रुखाबाद, सीतापुर, बिजनौर, संतकबीरनगर और बुलंदशहर, ऊधम सिंह नगर (उत्तराखंड) जिले में हैं। 

बीते साल राज्य सरकार के मंत्री स्तरीय एक समीक्षा बैठक में बताया गया था कि उत्तर प्रदेश स्टेट यार्न कम्पनी लिमिटेड कानपुर से सम्बद्ध बंद पड़ी मेजा, बांदा और रसड़ा (बलियां) यार्न मिल की 324.63 एकड़ भूमि, उत्तर प्रदेश स्पिनिंग कम्पनी लिमिटेड कानपुर से सम्बद्ध रायबरेली, बाराबंकी, मऊनाथ भंजन (मऊ) कताई मिल की 212.79 एकड़ भूमि, उत्तर प्रदेश राज्य वस्त्र निगम लिमिटेड कानपुर से सम्बद्ध झांसी, संडीला और मेरठ वस्त्र मिल की 221 एकड़ भूमि और उत्तर प्रदेश सहकारी कताई मिल्स संघ लिमिटेड से सम्बद्ध कम्पिल फर्रूखाबाद, बुलन्दशहर, फतेहपुर, बहेड़ी बरेली, अमरोहा, नगीना बिजनौर, बहादुरगंज गाजीपुर, मगहर संत कबीर नगर, महमूदाबाद सीतापुर और मउआईमा प्रयागराज की 705 एकड़ भूमि मिलों के बंद होने से निष्प्रयोज्य साबित हो रही है। 

इन मिलों पर देनदारी भी है, जिसके भुगतान की व्यवस्था अवस्थापना और औद्योगिक विकास विभाग को दी गई है। औद्योगिक और अवस्थापना विभाग की अगले दो सालों में मिलों की देनदारी चुकाकर भूमि का व्यवसायिक कार्यों में इस्तेमाल करने की तैयारी है।

ग्लोबल समिट में मुख्यमंत्री योगी की बात

साल 2022 में ग्लोबल समिट की बैठक में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि राज्य में करीब एक लाख हेक्टेयर भूमि का लैंड बैंक है। समिट से पहले हम लैंड बैंक को और विस्तार दें। इसके लिए राजस्व विभाग की एक टीम गठित करने और जमीन की पहचान करने का भी सुझाव दिया गया था। सरकार की ओर से नए उद्योगों की स्थापना को लेकर लैंड बैंक बनाया गया है और एक्सप्रेसवे के किनारे औद्योगिक गलियारे भी बनाए जा रहे हैं। 

सीएम योगी ने कहा था कि औद्योगिक इकाइयों के लिए भूमि प्राथमिक आवश्यकता है। प्रयास यह रहे कि समिट से पहले हम लैंड बैंक को और विस्तार दें, इसके लिए राजस्व विभाग की एक टीम गठित करें, जो निवेश के लिए उपयुक्त लैंड का चिह्नांकन करे, जिससे जो निवेशक यहां आएं, उन्हें भूमि की समस्या न हो।

इसके लिए सरकार की ओर से नए उद्योगों की स्थापना को लेकर लैंड बैंक बनाया गया है और एक्सप्रेसवे के किनारे औद्योगिक गलियारे भी बनाए जा रहे हैं। साथ ही प्रदेश में दशकों से बंद पड़ी सरकारी मिलों की भूमि के उपयोग की भी कार्य योजना बनाई गई है।

मिल की जमीनें बेचने की तैयारी पूरी

प्रदेश में इन मिलों की हजारों एकड़ जामिनों पर पूँजीपतियों की निगाह लगी हुई है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार इन मिलों को चालू करने की जगह इनको औने-पौने दाम पर पूँजीपतियों को सौंपने की तैयारी में है।

बिजनेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट (दिसंबर 2023) के अनुसार, उत्तर प्रदेश सरकार उद्योग को नए आवंटन के लिए 1,000 एकड़ से अधिक की प्रमुख भूमि संपत्ति के साथ निष्क्रिय कपड़ा मिलों का अधिग्रहण कर रही है।

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के औद्योगिक विकास मंत्री नंद गोपाल गुप्ता नंदी ने कहा कि राज्य का इरादा निवेशकों की बकाया देनदारियों का निपटान करने के बाद उन्हें आवंटन के लिए भूमि अधिग्रहण करने का है।

सूत्रों के अनुसार राज्य ने इन इकाइयों पर 500 करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया है, जबकि शेष कर्ज को खत्म करने के लिए आवश्यक धनराशि नीलामी के माध्यम से जुटाई जाएगी।

लेकिन इस पूरी कवायद में मज़दूरों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। सरकार रोजगार के सवाल पर मौन है। मज़दूरों के तमाम बकाया राशि, यहाँ तक कि पीएफ की डकैती पर भी सरकार चुप है। जबकि राज्य सरकार द्वारा दशकों से मज़दूरों का पीएफ जमा नहीं है।

स्पष्ट है कि केंद्र या राज्य सरकारों के केंद्र में मुनाफाखोर हैं, मज़दूरों का कोई वजूद नहीं है। यही है मोदी या योगी के विकास का मॉडल!