जीएन साईबाबा: व्हीलचेयर पर रहने वाले शख़्स जो माओवादियों से संबंध के आरोप में 10 साल जेल में रहे

दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफ़ेसर जीएन साईबाबा का शनिवार की शाम को हैदराबाद के निज़ाम इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज (निम्स) अस्पताल में निधन हो गया. 57 साल के साईबाबा का गॉल ब्लैडर का ऑपरेशन हुआ था लेकिन इसके बाद उभरी जटिलताओं की वजह से उनका निम्स में इलाज चल रहा था.
विकलांगता की वजह से व्हीलचेयर पर चलने वाले साईबाबा को माओवादी संगठनों से संबंध रखने के आरोप में गैरक़ानूनी गतिविधियां रोकथाम क़ानून (यूएपीए) के तहत साल 2014 में गिरफ़्तार किया गया था. उन्हें अदालत ने उम्रक़ैद की सज़ा दी थी. आठ साल बाद जब बॉम्बे हाई कोर्ट ने उन्हें रिहा किया था तो सुप्रीम कोर्ट ने 24 घंटे के अंदर इस फैसले को पलट दिया था. लेकिन आख़िरकार बॉम्बे हाई कोर्ट ने उन्हें मार्च 2024 में रिहा कर दिया था. उस समय वो नागपुर सेंट्रल जेल में बंद थे.
साईबाबा शुरू से ही लकवाग्रस्त थे और उनका शरीर 90 प्रतिशत अक्षम था. दिनचर्या में व्हीलचेयर ही उनका सहारा थी. उन्होंने कहा था, “जेल में जो टॉयलेट था उस तक मेरा व्हीलचेयर पहुंच नहीं सकता था. नहाने की जगह तक भी नहीं थी. मैं अकेले अपनी टांगों पर खड़ा नहीं हो सकता था. मुझे बाथरूम जाने, नहाने, बेड में शिफ्ट होने- सभी कामों के लिए चौबीसों घंटे दो लोगों की ज़रूरत होती है.” यूएपीए को साईबाबा ने ‘भारत के संविधान के ख़िलाफ़’ कहा था. उन्होंने इसे ‘दुनिया का सबसे क्रूरतम क़ानून’ कहा था. उन्होंने कहा था कि ‘इतने क्रूरतम रूप में कोई क़ानून दुनिया के किसी देश में अभी अमल में नहीं रहा. संविधान ने देश के लोगों को जो बुनियादी अधिकार दिए हैं ये उसके ख़िलाफ़ है.’
उन्होंने कहा था, “मैं इसी क़ानून के ख़िलाफ़ लड़ रहा हूं और मुझे इसी क़ानून के तहत जेल में रखा गया और मेरी आवाज़ को दबाया गया.” उस समय उन्होंने जेल में अपनी बीमारियों की जटिलता बढ़ने के बारे में भी बात की थी. साईबाबा ने आरोप लगाया था कि ‘डॉक्टर जो दवाएं और उपचार लिखकर देते थे, वो उन्हें नहीं दिया जाता था.’ उन्होंने कहा था, ”मैं आज आपके सामने ज़िंदा हूं पर मेरे शरीर का हर हिस्सा फेल हो रहा है. जेल के अधिकारियों को ये विश्वास नहीं था कि मैं कुछ वक्त तक ज़िंदा रह पाऊंगा.”
उन्होंने कहा था कि उन्हें जेल में बहुत कष्ट हुआ था. कई बीमारियों ने घेर लिया था. जेल से रिहा होने के बाद अब वो सबसे पहले अपना इलाज कराना चाहते हैं. जीएन साईबाबा के निधन की सूचना देते हुए उनकी पत्नी वसंता ने बताया, ”डॉक्टर उन्हें सीपीआर दे रहे थे, लेकिन उनकी जान नहीं बच सकी. इसके बाद निम्स के डॉक्टरों ने साईबाबा के निधन की घोषणा कर दी.” वसंता ने एक बयान जारी कर कहा, “पिछले महीने 28 सितंबर को हैदराबाद के निम्स अस्पताल में गॉल ब्लैडर निकालने के सफल ऑपरेशन के बाद साईबाबा स्वस्थ हो गए थे. लेकिन उनके पेट में दर्द की शिकायत हुई. ऑपरेशन के छह दिन बाद पेट के अंदर उस जगह संक्रमण शुरू हो गया, जहां गॉल ब्लैडर हटाया गया था.” “पिछले एक हफ़्ते से साईबाबा को 100 डिग्री से अधिक बुखार और पेट में तेज़ दर्द हो रहा था. वो डॉक्टर की निगरानी में थे. इसके बाद 10 अक्तूबर को साईबाबा के पेट में जहां सर्जरी की गई थी वहां से मवाद निकाला गया. इसके बाद उन्हें आईसीयू में शिफ़्ट किया गया था.” “पेट में सूजन के कारण उन्हें काफी दर्द था. सर्जरी वाली जगह के पास इंटर्नल ब्लीडिंग हो रही थी, जिससे पेट में सूजन आ गई और उनका ब्लड प्रेशर कम हो गया था.”
“शनिवार को उनका हार्ट काम नहीं कर रहा था, जिसके बाद डॉक्टरों ने उन्हें सीपीआर दिया लेकिन उनकी जान नहीं बच सकी.” बीबीसी ने उनसे सवाल किया था कि उन्हें जेल क्यों भेजा गया था? इस पर उन्होंने कहा था, “मैं आदिवासियों के हक़ों के लिए आवाज़ उठा रहा था और इसके लिए कई सिविल सोसाइटी समूहों और लोगों से जुड़ा था. इस मुद्दे पर काम करने वाले कई संगठनों ने मुझे संयोजक चुना था.” “आदिवासी के हक़ों, खनन के ख़िलाफ़ आदिवासियों की सुरक्षा के लिए, आदिवासियों के जनसंहार के ख़िलाफ़, ऑपरेशन ग्रीन हंट के ख़िलाफ़ हम आवाज़ उठा रहे थे.” साईबाबा ने कहा था, “हम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संगठनों के साथ जुड़कर इन मुद्दों पर आवाज़ उठा रहे थे कि इस देश के 10 करोड़ की आदिवासी आबादी को कुचला नहीं जा सकता. मुझे पता चला कि हमारी आवाज़ दबाने के लिए मेरे ख़िलाफ़ केस बनाया गया और फ़र्ज़ी मामले में मुझे दस साल जेल में रखा.”
बीबीसी ने उनसे पूछा था कि कि क्या इतना लंबा वक्त जेल में काटने के बाद भी जीएन साईबाबा का यक़ीन भारत की न्याय व्यवस्था में बरक़रार है? यूएपीए जैसे सख़्त क़ानून के बारे में वो क्या सोचते हैं? उन्होंने कहा था, “मैं चाहूंगा कि भारत की न्याय व्यवस्था भारत की जनता के लिए काम करे. मैं ये तो नहीं कहूंगा कि ऐसा नहीं हो रहा, लेकिन ये ज़रूर कहूंगा कि भारत की न्याय व्यवस्था में बहुत सारी कमियां हैं. चीफ़ जस्टिस ने भी बार-बार कहा है कि कोर्ट ज़मानत क्यों नहीं देता है. कोर्ट के आदेश भी पास होते हैं लेकिन जिन पर मामला चल रहा होता है उन्हें ज़मानत नहीं मिलती और उनकी ज़मानत रिजेक्ट कर दी जाती है.”
साल 2017 में साईबाबा को माओवादियों के साथ संबंध रखने के आरोप में दोषी क़रार दिया गया था. इसके बाद अदालत ने उन्हें उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई थी. लेकिन 14 अक्तूबर 2022 को बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने उन्हें बरी कर दिया. लेकिन तब 24 घंटे के अंदर ही सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस बेला त्रिवेदी की विशेष बेंच ने हाई कोर्ट के फ़ैसले को पलट दिया था. हालांकि 2024 में पांच मार्च को बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने उन्हें ये कहते हुए बरी कर दिया था कि ‘इंटरनेट से कम्युनिस्ट या नक्सल साहित्य डाउनलोड करना या किसी विचारधारा का समर्थक होना यूएपीए अपराध के तहत नहीं आता है.’
दिल्ली यूनिवर्सिटी की पूर्व प्रोफ़ेसर और उनके नजदीकी पारिवारिक मित्र नंदिता नारायण ने इंडियन एक्सप्रेस से उनके निधन पर शोक जताते हुए कहा,” साईबाबा और उनका परिवार दोबारा ज़िंदगी को पटरी पर लाने की लड़ाई लड़ रहा था लेकिन इस बीच इस बीच ये दुर्भाग्यपूर्ण घटना घट गई. साईबाबा बेहद बुद्धिमान और प्रतिभाशाली शख़्स थे.” प्रोफ़ेसर साईबाबा और उनका परिवार दिल्ली यूनिवर्सिटी में अपनी दोबारा बहाली की लड़ाई लड़ रहा था. उन्हें उम्मीद थी कि उन्हें दिल्ली यूनिवर्सिटी में फिर पढ़ाने का मौका मिल जाएगा. साईबाबा अक्सर कहते थे कि ‘वो एक शिक्षक हैं और हमेशा अपने छात्रों को पढ़ाने का सपना देखा करते हैं.’ मौजूदा आंध्र प्रदेश के अमलापुरम में पैदा हुए साईबाबा पांच साल की उम्र में ही पोलियो के शिकार हो गए थे. द हिंदू के मुताबिक़ 2003 में दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामलाल आनंद कॉलेज में पढ़ाने के लिए आने के बाद ही उन्होंने व्हीलचेयर से चलना शुरू किया.
उन्होंने 2003 से 2014 में जेल जाने तक राम लाल आनंद कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाया. उन्होंने मध्य भारत के आदिवासी इलाकों में ऑपरेशन ग्रीन हंट के तहत अर्द्धसैनिक बलों की कार्रवाई के ख़िलाफ़ ऑल इंडिया पीपुल्स रेजिस्टेंस फ़ोरम का नेतृत्व किया था. अपने छात्रों के बीच साईबाबा काफ़ी लोकप्रिय माने जाते थे.
2013 में हेम मिश्रा और प्रशांत राही को गिरफ्तार किया गया था. पुलिस के अनुसार वो माओवादी नेताओं से मुलाक़ात करने वाले थे जो प्रोफ़ेसर साईबाबा की मदद से तय हुई थी. सितंबर 2013 – पुलिस ने दिल्ली स्थित उनके घर की तलाशी ली. फरवरी 2014 – पुलिस ने गिरफ़्तारी वारंट जारी किया, लेकिन गिरफ़्तार नहीं कर पाई. मई 2014 – माओवादियों से संबंध के लिए गिरफ़्तार किया गया. जून 2015 – मेडिकल ग्राउंड पर बॉम्बे हाई कोर्ट ने ज़मानत दी. दिसंबर 2015 – फिर से जेल भेजे गए. अप्रैल 2016 – सुप्रीम कोर्ट ने ज़मानत दी. मार्च 2017 – यूएपीए की धाराओं के तहत उम्रकै़द की सज़ा सुनाई गई. साईबाबा ने बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच में अपील की. अप्रैल 2021 – दिल्ली यूनिवर्सिटी ने उन्हें नौकरी से निकाला. अक्तूबर 2022 – बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने दोषमुक्त क़रार दिया. अक्तूबर 2022 – सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के फ़ैसले को पलटा. मार्च 2024 – बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने उन्हें एक बार फिर रिहा किया.
यूएपीए के तहत ही भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ़्तार पादरी और सामाजिक कार्यकर्ता फ़ादर स्टेन स्वामी की अस्पताल में मौत हो गई थी. 84 वर्ष के स्टेन स्वामी मुंबई की तलोजा जेल में थे. लेकिन उन्होंने कहा था कि ‘उन्हें जेल में स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया नहीं कराई जा रही थीं.’ उनके वकील ने बॉम्बे हाईकोर्ट को बताया कि तबीयत बिगड़ने के बाद उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया था. जहां उनकी हालत बिगड़ती गई. और आख़िरकार अस्पताल में उनकी मौत हो गई. झारखंड की राजधानी में स्टेन स्वामी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के दौरान अदालत से कहा था कि ‘जेल में उनकी सेहत लगातार गिरती जा रही है.’ उन्होंने अंतरिम बेल की अपील करते हुए कहा था कि ‘यही स्थिति लगातार जारी रही तो जल्द ही उनकी मौत हो जाएगी.’ पार्किंसन बीमारी से जूझ रहे थे स्टेन स्वामी स्वामी की तबीयत जब बहुत ज्यादा बिगड़ गई तो हाई कोर्ट के आदेश के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया. स्टेन स्वामी सुनने की क्षमता पूरी तरह खो चुके थे. वह लाइलाज पार्किंसन बीमारी से भी जूझ रहे थे. उन्हें स्पांडलाइटिस की समस्या थी.
2020 में वह कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे. आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने वाले स्टेन ने करीब पांच दशक तक झारखंड में काम किया था. उन्होंने विस्थापन, भूमि अधिग्रहण जैसे मुद्दों को जनसंघर्ष में हिस्सा लिया था.
बीबीसी से साभार