वैश्विक पूंजीवाद: मुनाफ़े की पूजा, भले ही यह अपने विनाश का ही रास्ता हो

Fossil fuel

प्रबीर पुरकायस्थ | Translated by राजेंद्र शर्मा

कॉप 29 टांय-टांय फिस्स हो गया। जहां कॉप 28 की घोषणा में जीवाश्म ईंधन के दौर को खत्म करने की बात थी और धनी देशों ने, जलवायु परिवर्तन तथा गरीबी के दुहरे खतरे का सामना कर रहे देेशों को फंड मुहैया कराने का वादा किया था, वे इन वादों से पीछे हट गए हैं।

न सिर्फ यह कि उन्होंने अपने ही जीवाश्म ईंधन उपयोग को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के कोई वादे नहीं किए हैं, उन्होंने विकासशील देशों की पर्यावरण सहायता की 1.3 ट्रिलियन डालर की मांग के सामने, वाणिज्यिक तथा अन्य प्रवाहों के रूप में सिर्फ 300 अरब डालर सालाना का वादा किया है और वह लक्ष्य भी 2035 तक हासिल किया जाना है। हां! इसकी पवित्र इच्छा जरूर जतायी गयी है कि इस राशि को बढ़ाकर 1.3 ट्रिलियन डालर कर दिया जाएगा, जैसी कि विकासशील देशों की मांग है। लेकिन, इस संबंध में कोई वादे तक नहीं किए गए हैं और सिर्फ हाथ हिलाने भर से काम चला लिया गया है। सबसे गरीब देशों तक के लिए कोई वित्तीय सहायता नहीं दी जानी है, जबकि उन्हें जलवायु परिवर्तन और गरीबी के दुहरे हमले का सामना करना पड़ रहा है।

विकासशील देशों के लिए 300 अरब डालर के जिस पर्यावरणीय वित्तपोषण का वादा किया गया है, उसमें ऋण तथा वाणिज्यिक वित्तपोषण शामिल होंगे। इसका अर्थ यह है कि विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं को पर्यावरण-अनुकूल या हरित बनाने के नाम पर, उनके ऊर्जा बुनियादी ढांचे की मिल्कियत, धनी देशों के हाथों में आ जाएगी। यह वेध्य देशों की मदद करने के नाम पर, एक और नव-उपनिवेशवादी उद्यम ही है। इसके साथ, फर्जी कार्बन मार्केट/ ट्रेड तथा ऑफसैट्स के लिए फंड को और जोड़ लीजिए, जो कि जैसाकि हम जानते ही हैं, लोगों के साथ धोखाधड़ी के सिवा और कुछ नहीं है। इसके जरिए न तो ग्रीन हाउस गैसों में कमी होती है और न ही गरीब देशों को कोई मदद मिलती है। यह सब तो महज हरी-धुलाई का मामला है और जलवायु परिवर्तन के निराकरण के नाम पर धनी देश और उनके कार्पोरेशन ठीक यही तो कर रहे हैं।

ऊर्जा के क्षेत्र में बड़ा बदलाव

इस लेख में मैं ऊर्जा क्षेत्र की वृहत्तर चुनौती पर ही ध्यान केंद्रित करूंगा, बिजली उत्पादन जिसका एक प्रमुख हिस्सा है। इसके बाद ही अगला सबसे बड़ा क्षेत्र परिवहन का है, जिसमें बाजार की शक्तियों ने नाटकीय तरीके  से बिजली पर आधारित वाहनों के पक्ष में करवट ली है। यहां हम कृषि तथा उद्योग–जिससे आशय इस्पात, उर्वरक, रसायन, भवन (निर्माण तथा सामग्री) आदि, प्रोसेस उद्योगों से है–को छोड़ देते हैं, जिनसे निपटना फिलहाल कहीं मुश्किल है। अठारहवीं सदी के मध्य से लगाकर, उद्योगों तथा घरेलू उपभोग के लिए बिजली का उपयोग ही, वातावरण में कार्बन डाइ आक्साइड की मात्रा बढऩे के साथ जुड़ा रहा है। इसके बाद परिवहन क्षेत्र का नंबर आता है, जो तब हुआ जब हम कारों, ट्रकों, बसों आदि के लिए पैट्रोल तथा डीजल के उपयोग और रेलगाडिय़ों के लिए कोयला/ भाप का उपयोग करने की ओर बढ़े। अब कार्बन उत्सर्जनों और वैश्विक ताप में वृद्धि का संबंध इतना प्रकट हो गया कि प्रमुख वैज्ञानिक हस्तियों ने 1980 के दशक तक आते-आते जलवायु परिवर्तन की बात करनी शुरू कर दी। बड़ी तेल तथा गैस कंपनियों को कार्बन/ ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जनों के प्रभाव के संबंध में दसियों साल से पता था। लेकिन, इस सचाई को स्वीकार करने तथा उसके  निराकरण के उपायों पर विचार करने के बजाए, उन्होंने तो अपनी ही जानकारियों को दबा दिया। उसके ऊपर से उन्होंने भांति-भांति के, जलवायु परिवर्तन की सचाई को ही नकारने वालों को पैसा और दिया, ताकि ये कंपनियां अपने मुनाफे बटोरती रहें, फिर भले ही मानव सभ्यता ही खतरे में क्यों नहीं पड़ जाए। बड़ी तस्वीर यह है कि पहली बार, नवीकरणीय ऊर्जा की पूंजी लागतें, जीवाश्म ईंधन आधारित संयंत्रों से नीचे चली गयी हैं। नवीकरणीय ऊर्जा संयंत्रों के मामले में संचालन लागतें करीब-करीब शून्य होती हैं, क्योंकि ये संयंत्र सूर्य की किरणों या वायु से चलते हैं। पहले से मौजूद जीवाश्म ईंधन आधारित बिजलीघरों के बड़े हिस्से के मामले में, पूंजी लागतें पहले ही वसूल की जा चुकी हैं और इस तरह के संयंत्रों से बिजली के लिए हम जो लागत चुकाते हैं, सारत: ईंधन की लागत ही होती है। इस तरह के संयंत्रों की अब भी जरूरत बनी रहने की इकलौती वजह यह है कि हमें तब ऐसे संयंत्रों से ही बिजली मिल सकती है, जब सूरज नहीं निकलता है या पर्याप्त रूप से हवा नहीं चलती है। अभी तक हमने बिजली के ग्रिड स्तर पर भंडारण में पर्याप्त निवेश नहीं किए हैं, जिससे सौर या पवन ऊर्जा उपलब्ध न होने की सूरत में बिजली की मांग पूरी नहीं हो पाती है। बहरहाल, तकनीकी स्तर पर तो अब वह समस्या भी हल हो गयी है। जैसा कि हम पहले चर्चा कर चुके हैं, पंप्ड स्टोरेज से बैटरी का काम लिया जा सकता है। ग्रिड से जुड़ा पंप्ड स्टोरेज, मिसाल के तौर पर पुरुलिया पंप्ड स्टोरेज सिस्टम, ग्रिड के लिए उक्त समस्या का एक आसान तथा अपेक्षाकृत सस्ता समाधान है। इसका अर्थ यह है कि हमें ग्रिड स्तर की इलेक्ट्रोकैमिकल बैटरियों–जिस तरह की बैटरियों का हम सेल फोनों में तथा अपने कंप्यूटरों में उपयोग करते हैं–की जरूरत ही नहीं है, जबकि पहले यह समझा जाता था कि इस तरह की बैटरियों के बिना नवीकरणीय ऊर्जा में संक्रमण संभव ही नहीं है।

ऊर्जा संक्रमण के रास्ते पर

इस तरह अब ऊर्जा संक्रमण की कुंजीभूत समस्या यह है कि क्या हमारे पास सोलर पैनल तथा विंड टर्बाइन बनाने के लिए आवश्यक औद्योगिक बुनियादी ढांचा है, तभी नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ाया जा सकता है और जीवाश्म ईंधन आधारित बिजलीघरों को क्रमश: उपयोग से बाहर किया जा सकता है। अगर हम ग्रिड पर केंद्रित कर बिजली उत्पादन को संबोधित करते हैं, मोटे तौर पर कुल ऊर्जा-संबद्ध कार्बन उत्सर्जनों का 40 फीसद हिस्सा ग्रिड के हिस्से में आता है। पिछले दस वर्षों में एक बड़ा बदलाव यह हुआ है कि ग्रिड से जुड़ी सौर तथा पवन ऊर्जा की संस्थापना में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। ऐसा इसलिए हुआ है कि इस एक दशक में ऊर्जा उत्पादन की आर्थिकी में नाटकीय तरीके से बदलाव आया है। आज ग्रिड से जुड़े सौर तथा पवन ऊर्जा उत्पादन की प्रति किलोवाट ऑवर लागत, बिजली उत्पादन के किसी भी जीवाश्म ईंधन–कोयला, तेल या प्राकृतिक गैस–आधारित रास्ते के मुकाबले घटकर बैठती है। 2023 में सौर तथा पवन ऊर्जा की क्षमताओं में नयी बढ़ोतरी, ऊर्जा के दूसरे सभी स्रोतों यानी कोयला, गैस तथा तेल, सभी की क्षमताओं में बढ़ोतरी से ऊपर निकल गयी। दुनिया भर में और खासतौर पर चीन में, सौर तथा पवन बिजली उत्पादन उपकरणों के लिए औद्योगिक क्षमता तेजी से बढ़ी है। बिजली उत्पादन की इस आर्थिकी का अर्थ यह है कि हम कमतर कार्बन के पथ पर देर के बजाए, जल्द ही संक्रमण करने की स्थिति में होंगे। जिन देशों में दुनिया की तीन-चौथाई आबादी रहती है, उनके लिए नवीकरणीय ऊर्जा स्थापित करना, जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा उत्पादन के किसी भी रूप के मुकाबले सस्ता पड़ेगा।

हरित ऊर्जा में चीन सबसे आगे

चीन इस रुझान का प्रमुख संचालक रहा है। इस संदर्भ में मैं न्यूयार्क टाइम्स को उद्मृत करना चाहूंगा क्योंकि ऐसा लगता है कि न्यूयार्क टाइम्स भी चीन प्रशंसकों के क्लब में शामिल हो गया है! यह अखबार लिखता है: 2023 में चीन समेत पूरी दुनिया ने 425 गीगावाट नयी सौर बिजली स्थापित की थी; चीन को छोड़कर दुनिया ने 162 गीगावाट क्षमता की स्थापित की थी। चीन ने 263 गीगावाट जोड़े थे; अमरीका ने सिर्फ 33 गीगावाट जोड़े। 2019 तक चीन, वैश्विक सौर ऊर्जा क्षमता वृद्धियों का करीब एक-चौथाई ही जोड़ रहा था; पिछले साल उसने शेष दुनिया की कुल वृद्धि से 62 फीसद ज्यादा बढ़ोतरी की थी। इन पांच वर्षों में ही चीन ने अपनी इस क्षमता वृद्धि को आठ गुने से ज्यादा बढ़ा लिया। चीन को छोड़कर दुनिया ने अपनी दर को दोगुना भी नहीं किया था।

भारत का प्रदर्शन भी अच्छा

जहां चीन हरित ऊर्जा के मामले में विश्व अगुआ है और अमरीका विश्व का पिछडू है, यूरोपीय यूनियन और भारत का प्रदर्शन भी बहुत खराब नहीं है। उन्होंने वर्ष 2023 के दौरान अपनी नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता में लगभग 13.5 गीगावाट की बढ़ोतरी की है। जहां भारत ने अपनी पैनल तथा मॉड्यूल विनिर्माण क्षमता में काफी बढ़ोतरी की है, वह सौर सेल उत्पादन क्षमता के मामले में पीछे बना हुआ है। इस मामले में उस पर, देश के सौर ऊर्जा के प्रमुख खिलाड़ी, अडानी सोलर के खिलाफ अमरीकी अधिकारियों के हाल के कदमों और इन आरोपों का भी असर पड़ सकता है कि आंध्र प्रदेश में अडानी सोलर पॉवर की 7 गीगावाट बिजली की आपूर्ति कर रही एसईसीआई का सौदा एक भ्रष्ट सौदा था और इस पर आंध्र प्रदेश सरकार के अधिकारियों के विरोध के बावजूद दस्तखत किए गए थे।

यूरोपीय यूनियन जो हरित नीतियों में शुरूआत से आगे रहा था, अब भी तेल तथा प्राकृतिक गैस का अपना उपभोग जारी रखे हुए है। वे अपनी हरित नीतियों का ढोल तो पीटते हैं, लेकिन वास्तविक आचरण में वे इसकी नीतियां स्थापित कर रहे हैं कि कैसे जलवायु परिवर्तन के नाम पर तटकर बाधाएं ऊंची की जाएं। अमरीका के प्रति बढ़ती अनुचरता के साथ वे दुनिया के तथा उसके उद्योगों के भी भविष्य की बलि देने के लिए तैयार हैं, जोकि आयातित ईंधन की ऊंची कीमतों के चलते, दूसरों से प्रतियोगिता करने में ज्यादा से ज्यादा असमर्थ होते जा रहे हैं।

विकसित दुनिया की उलट चाल

अब सवाल नवीकरणीय ऊर्जा की लागत का नहीं रह गया है बल्कि तेल, प्राकृतिक गैस तथा कोयला से चालित ऊर्जा क्षेत्र में लगी लागतों का है, जिन्हें छोड़ने के लिए मिसाल के तौर पर अमरीका तैयार नहीं है। फिर चाहे इसकी वजह से मानव सभ्यता के लिए, जिस रूप में हम उसे जानते हैं, खतरा बढ़ता ही क्यों न हो। विकासशील देशों पर लगाए जा रहे तथाकथित ‘‘कार्बन तटकर’’–जो वर्तमान उत्सर्जनों पर आधारित हैं न कि ऐतिहासिक उत्सर्जनों पर–यूरोपीय उद्योगों को संरक्षित करने के ही कदम हैं। इसे यूरोपीय यूनियन के कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) का नाम दिया गया है, जो उन अपेक्षाकृत पुराने उद्योगों को बचाने के लिए संरक्षणात्मक तटकर मात्र हैं, जो अब भारत, चीन, तुर्की, रूस और पूर्वी एशियाई तथा दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के सामने प्रतिस्पर्द्धी नहीं रहे हैं।

अब इसी जनवरी  से ट्रंप अमरीका के राष्ट्रपति का पद संभालने जा रहे हैं और अर्जेंटीना के राष्ट्रपति जेवियर मिलेई के जलवायु परिवर्तन नकारवादी, जलवायु परिवर्तन संबंधी तमाम नीतियों पर ही पानी फेरना चाहते हैं। उनके लिए तो दुनिया भविष्य में गर्मी से मरती है तो मर जाए, वे तो आज पूंजी के मुनाफों का प्रवाह जारी रखना सुनिश्चित करने चाहेंगे। यह सबसे बढ़कर एक राजनीतिक चुनौती है, न कि आर्थिक या तकनीकी चुनौती। यह ऐसी चुनौती है जिसका मुकाबला करने के लिए, 7 के गिरोह (जी-7) द्वारा संचालित मौजूदा तथाकथित नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था तैयार ही नहीं है। इसके बजाए, वे ऐसी वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था चाहते हैं जिसमें मुट्ठीभर पूर्व-उपनिवेशकर्ता तथा सैटलर औपनिवेशित देशों का राज बना रहे और वे दुनिया को लूटते रहें, भले ही यह सर्वनाशी जलवायु परिवर्तन को ही न्यौता देता हो। यह फ्रांसीसी क्रांति से पहले के लुई-16वें (या उसकी चहेती मदाम पोंपादोर) की प्रसिद्ध उक्ति का 21वीं शताब्दी का प्रारूप है–मेरे बाद, प्रलय आने दो!

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