मोदी सरकार के आठ साल के कार्यकाल में भारतीयों पर विदेशी कर्ज 211.3 अरब डॉलर बढ़ा

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जब मोदी देश के पीएम बने तो देश पर विदेशी कर्ज का बोझ 409.4 अरब डॉलर था, जो 2022 में बढ़कर 620.7 अरब डॉलर हो गया। -वित्त मंत्रालय में आर्थिक मामलों की रिपोर्ट

मोदी सरकार चाहे अर्थव्यवस्था में सुधार और मजबूती का दावा कितना भी क्यों न कर ले, सच को छुपाना उसके लिए संभव नहीं है। आरबीआई के आंकड़ों पर ही गौर फरमाएं तो सच यही है कि मोदी के आठ साल के कार्यकाल में भारतीयों पर विदेशी कर्ज ( Foreign debt India ) कम होने के बजाय बढ़ा है। हाल ही में वित्त मंत्रालय में आर्थिक मामलों के विभाग ने विदेशी कर्ज को लेकर जो रिपोर्ट जारी की है उसमें भी इसी बात का जिक्र है। जब मोदी देश के पीएम बने तो देश पर विदेशी कर्ज ( foreign loan ) का बोझ 409.4 अरब डॉलर था, जो 2022 में बढ़कर 620.7 अरब डॉलर हो गया। यानि मोदी राज में विदेशी कर्ज ( foreign debt ) में 211.3 अरब डॉलर की बढ़ोतरी हुई है। यानि हर भारतीय पर विदेशी कर्ज का बोझ पहले की तुलना में काफी बढ़ गया है।

दरअसल, नरेंद्र मोदी 2024 में देश के प्रधानमंत्री बने थे। तब से वो देश के पीएम पद पर बरकरार हैं। साल 2013 में देश पर विदेशी कर्ज ( foreign debt ) 409.4 अरब डॉलर था। साल 2014 में यह बढ़कर 440.6 अरब डॉलर तक पहुंच गया। यानि जिस साल मोदी पीएम बने ठीक उसी साल पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में विदेश कर्ज में 31.2 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी। साल 2021-22 में 47.1 अरब डॉलर विदेशी कर्ज में बढ़ोरती हुई है। जबकि 2020-21 वित्तीय वर्ष में भारत पर कर्ज का बोझ 573.7 अरब डॉलर था। यानि पिछले एक साल में विदेश कर्ज में कुछ बढ़ोतरी 8.2 फीसदी की हुई।

कहने का मतलब यह कि पिछले आठ साल में विदेशी कर्ज ( foreign debt ) क्रमशः साल-दर-साल बढ़ते हुए 620.7 अरब डॉलर तक पहुंच गया जो अब तक का रिकॉर्ड कर्ज है। इसको लेकर मोदी सरकार दलील दे रही है कि चूंकि भारतीय अर्थव्यवस्था आकार बढ़ा है और विदेशी निवेश भी हुए हैं, इसलिए कर्ज का आकार भी बढ़ गया है, लेकिन यह औसतन कर्ज कम हुआ है। यह आकड़ेबाजी के खेल और सुनने में तो अच्छा लगता है, लेकिन सच यही है कि हर नागरिक पर कर्ज का बोझ पहले की तुलना काफी बढ़ गया है। यहां पर इस बात का जिक्र करना जरूरी ह ेकि दीर्घकालिक कर्ज खासकर एनआरआई जमा के चलते ही विदेशी कर्ज में बढ़ोतरी हुई।

वित्त मंत्रालय के समिति की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक 2021-22 यानि मार्च 2022 के अंत तक भारत का विदेशी ऋण ( foreign debt ) पिछले वर्ष के 573.7 अरब अमेरिकी डालर के मुकाबले 8.2 फीसद बढ़कर 620.7 अरब डालर हो गया था। जीडीपी के अनुपात के रूप में विदेशी कर्ज 2022 मार्च के अंत में कम होकर 19.9 फीसद हो गया। 2021 में इसी दौरान 21.2 फीसद था। विदेशी मुद्रा भंडार 2022 मार्च अंत में पिछले वर्ष की 100.6 फीसद के आंकड़े से घटकर मामूली तौर पर 97.8 फीसद हो गया।

620.7 अरब डॉलर विदेशी ़ऋण में से दीर्घावधि ऋण की मात्रा 499.1 बिलियन अमेरिकी डालर है जो कुल कर्ज का 80.4 फीसद है। कुल ऋण बोझ का 19.6 फीसद अल्पकालिक ऋण यानि 121.7 बिलियन डालर है।

पिछले 15 वर्षों की बात करें तो भारत पर विदेशी कर्ज का बोझ लगातार बढ़ा है। साल 2006 में विदेशी ऋण का निरपेक्ष मूल्य 139.1 अरब अमेरिकी डालर था और अब यह 620.7 अरब डालर है। ये बात अलग है कि इस दौरान भारत की जीडीपी में भी कई गुना बढ़ोतरी हुई है। यही वजह है कि सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में बाहरी ऋण स्थायी स्तर पर बना हुआ है। 2006 में भारत का जीडीपी अनुपात 17.1 फीसद था। 2014 में बढ़कर 23.9 फीसद हो गया। 2022 में 19.9 फीसद हो गया है। यह 2019 के बराबर ही।

आर्थिक जानकारों के मुताबिक जैसे-जैसे सकल घरेलु उत्पाद बढ़ता है, उसी अनुपात में अर्थव्यवस्था में बाहरी ऋण के कंपोनेंट भी बढ़ जाते हैं। आर्थिक गतिविधि और निवेश में बढ़ोतरी होने का मतलब है कि कर्ज में बढ़ोतरी। कहने का मतलब यह है कि सकल घरेलू उत्पाद के साथ विदेशी ऋण के बढ़ने में कुछ भी असामान्य नहीं है। खास बात यह है कि ऋण चुकाने के लिए किसी भी देश के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार है या नहीं।

2008 में कुल ऋण अनुपात में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 138.0 फीसद के आंकड़े के साथ सबसे उच्च स्तर पर था। यह 2014 में गिरकर 68.2 फीसद हो गया लेकिन बाद में 2021 में वापस 100.6 फीसद तक चला गया जो 2022 में मामूली रूप से घटकर 97.8 फीसद हो गया है। यानि भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार विदेशी कर्ज को चुकाने के लिए है। जानकारों की राय में भारत को तत्काल चिंता करने की जरूरत नहीं है।

इसके बावजूद भारत मौजूदा वैश्विक आर्थिक उथल-पुथल के दौर में अपने विदेशी ऋण के बारे में आत्मसंतुष्ट होने का जोखिम नहीं उठा सकता है। इसकी वजह यह है कि भारतीय रुपए में हाल के दिनों में अमेरिकी डालर के मुकाबले तेजी से अवमूल्यन हुआ है। यह विदेशी कर्ज के भविष्य के संचय को प्रभावित कर सकता है और भविष्य में पुनर्भुगतान का बोझ भी इससे बढ़ सकता है।

जनज्वार से साभार

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