देश पर कॉर्पोरेटों के कब्ज़े के ख़िलाफ़ उठे हैं किसान

मेहनतकश मज़दूर किसान होगा दिवालिया-1
दिल्ली के विभन्न बॉर्डरों पर बैठे लाखों लाख किसान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ना केवल देश की करीबन आधी आबादी कृषि पर निर्भर हैं, बल्कि इस आन्दोलन का देश की खाद्य सुरक्षा, बेरोज़गारी व सरकार द्वारा देशी-विदेशी पूँजी का पक्ष ले कर व्यापक मेहनतकश तबके के विरुद्ध काम करने जैसे विभिन्न मुद्दों के साथ भी सीधा सम्बन्ध है। … किसान सवाल और कृषि कानूनों पर विशेष लेख..
धारावाहिक पहली किस्त..
सरकार द्वारा लाये गए तीन कृषि कानूनों का पुरजोर विरोध करके पंजाब और हरियाणा के किसान इसमें अगवाई कर रहे हैं। इसमें उन्हें देश के अन्य राज्यों जैसे महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, राजस्थान के किसानों का भी समर्थन मिल रहा है।
किसानों का दृढ़ और जुझारू संघर्ष आज़ादी के बाद होने वाले सबसे बड़े जनआंदोलनों में गिना जा रहा है और मोदी सरकार के पूरे कार्यकाल में उनकी जनविरोधी नीतियों को ऐसी चुनौती पहली बार मिली है। साथ ही यह पहला आन्दोलन है जो सीधे रूप से सरकार के पीछे खड़े अडानी अंबानी जैसे बड़े पूँजीपतियों पर निशाना साध कर उनकी और सरकार की मिलीभगत का पर्दाफाश कर रहा है।
इस आन्दोलन का विकास और सफलता इन सभी लिहाज से भारत की पूरी मेहनतकश आबादी के संघर्षों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण है।
लम्बे समय से देश में खेती गहरे संकट में रही है। गाँव देहात से जुड़े लोग यह भली तरह जानते हैं। उसी संकट से भागते-बचते मज़दूरों की एक बड़ी आबादी शहर में काम ढूँढने आती है। अन्य लोगों को यह संकट किसानों द्वारा बड़ी तादात में आत्महत्या के आकड़ों में देखने को मिलता था।
किन्तु आंदोलन के कारण एक लम्बे समय में पहली बार यह संकट पूरे देश के सामने एक राजनैतिक मुद्दा बना है। इससे संकट को चुपचाप झेलने या देखने के बदले, लोगों के लिए इसे समझने और इससे निकलने के रास्ते ढूँढने का अवसर भी बना है।

आन्दोलन में देखी जा रही व्यापक और जुझारू एकता के बावजूद, सही मायने में समस्या का समाधान इस मुद्दे पर देश की पूरी मेहनतकश जनता और मज़दूरों की बड़ी आबादी की भागीदारी भी मांगती है। आइये, इस मुद्दे के विभिन्न पहलुओं को समझें:
सरकारी नीतियों से बना है कृषि क्षेत्र का संकट
हरित क्रांति:
स्वतंत्र भारत का बड़ा हिस्सा ग्रामीण और कृषि आधारित होने के बावजूद, स्वतंत्रता के समय भारत में अनाज और खाद्य फसलों का बड़ा संकट था। एक दौर तक अमरीका से आयत के द्वारा और सहयोग के रूप में अनाज पाने के बाद, 1960 के दशक में देश को अनाज उत्पादन में आत्म निर्भर बनाने के उद्देश्य से हरित क्रांति की नीतियां लागू की गयीं। ‘हरित क्रांति’ के तहत बढ़ाई गयी खेती प्रणाली रासायनिक खाद, बीज और ट्यूबवेल के इस्तेमाल से उत्पादन बढ़ाने पर निर्भर रही।
अमरीका के नेतृत्व में दुनिया भर के विभिन्न देशों में लायी गयी इन तकनीकों के पीछे मोनसांटो और कारगिल जैसी बीज और रासायनिक खाद और कीटनाशक बनाने वाली अमरीकी कंपनियों के मुनाफ़े बढ़ाने का उद्देश्य शुरू से ही छिपा हुआ था।
इस पद्धति से गेहूं और धान का उत्पादन ज़रूर बढ़ा। एक समय तक एपीएम्सी मंडियों द्वारा सरकार ने इन कृषि उत्पादों को खरीदने और सार्वजनिक वितरण व्यवस्था (पीडीएस) के द्वारा जनता को मुफ्त व सस्ते दामों में आनाज उपलब्ध कराने का काम भी किया।
लेकिन दूसरी ओर भारत में अनाज, सब्जियों के प्रजातियों की विभिन्नता का बड़े पैमाने पर नाश हुआ, गेहूं-चावल छोड़ कर ज्वार, बाजरा और अन्य स्थानीय अनाज खाना और उगाना कम हो गया जिससे जनता के पोषण पर नकारात्मक असर पड़ा, ज़मीन और पानी की गुणवत्ता गिरी व खेती में लागत कई गुणा बढ़ गयी और किसान खेती करने के लिए कंपनियों पर आधारीत हो गए।
इस बढ़ते लागत की पूर्ती किसान ब्याज ले कर और कुछ सरकारी सब्सिडी द्वारा करते रहे। लेकिन इस रकम का बड़ा हिस्सा खाद, बीज और उपकरण बनाने वाली अमरीकी कम्पनियों को मुनाफ़े के रूप में जाता रहा। वहीँ जहाँ पंजाब हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश जैसे हरित क्रांति से प्रभावित राज्यों में किसानों की कुछ उन्नति हुई, वहीँ इसी उन्नति के नीचे बढ़ते क़र्ज़, घटती आमदनी और बिगड़ते पर्यावरण का एक गहरा संकट बनने लगा।
उदारवादी नीतियों का दौर:
1980 के दशक से उदारवादी नीतियों के आने के साथ कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश घटने लगा और विदेशी कंपनियों पर रोकटोक हटते गए। 1994 में वर्ल्ड ट्रेड संगठन (WTO) में हुए समझौते के अनुसार सरकार ने विदेशी कृषि उत्पाद को भारतीय मंडी में बिक्री की अनुमति दे दी, साथ ही कृषि में सरकारी खर्च को और भी कम करना शुरू कर दिया। गाँव में हज़ारों बैंक शाखाएं बंद कर दी गयीं, वहीँ किसानों पर विभिन्न प्रकार के साहूकारों और बिचौलियों का क़र्ज़ बढ़ता गया।
2000 के दशक तक न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार द्वारा उपज खरीदने की प्रणाली मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश जैसे सीमित क्षेत्रों में केवल धान और गेहूं की फसलों के लिए ही प्रभावी रह गयीं।
2003 में एपीएम्सी कानून में परिवर्तन के ज़रिए निजी ख़रीदारी को बढ़ावा दिया गया व ठेके पर खेती (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) की भी अनुमति दे दी गयी, जिसके तहत कई प्रदेशों ने मंडियों के विषय में अपने कानून बदले और बिहार जैसे राज्यों ने सरकारी मंडी को समाप्त कर दिया।
इसी वक्त से खेती में सट्टेबाजी – अर्थात, ख़रीद-बिक्री के खेल से कृषि उत्पाद की कीमत तय किये जाने — की नीति भी लागू कर दी गयी। इन नीतियों के तहत कई किसान बेहतर मूल्य पाने की उम्मीद में खाद्य फसल से हट कर नगदी फसल उगाने लगे, किन्तु फसलों के भाव में अनियंत्रित उतार चढ़ाव कई किसानों के दिवालिये का कारण बन गए।
नीतियों का निर्माण बड़े किसानों के हित में
इन सरकारी नीतियों का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह सभी नीतियां बड़े और मध्यम किसानों को दिमाग में रख कर बनाई गयीं। जबकि अपूर्ण भूमि सुधार और पीढ़ी दर पीढ़ी ज़मीन के बटवारे के कारण आज भारत की किसान आबादी में से 86% किसान छोटे और सीमांत किसान की श्रेणी में आते हैं जिनके पास 5 एकड़ से कम ज़मीन है। सरकार और अफसरों की यही समझदारी बनी रही की किसानों का यह बड़ा हिस्सा अंततः खेती के कारोबार से बाहर हो जाएगा।
किन्तु अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में पर्याप्त रोज़गार ना मौजूद होने के कारण किसान एक ओर निर्वाह के लिए खेती पर निर्भर भी रहा और दूसरी ओर निर्माण जैसे असंगठित क्षेत्रों और शहरों में असंगठित प्रवासी मज़दूर के रूप में आंशिक और असुरक्षित रोज़गार में भी शामिल रहा। निर्वाह खेती और असुरक्षित मज़दूरी – शोषण के यह दो पहलु एक दुसरे के लिए लाभकारी रहे।
जहाँ खेती में बढ़ती लागत का एक अंश गैर किसानी रोज़गार से पूरा किया जाता है, वहीँ असंगठित औद्योगिक रोज़गार की असुरक्षा को निर्वाह खेती के सहारे मंद किया जाता है, जिससे मालिक और सरकार मज़दूरों के निर्वाह की ज़िम्मेदारी से हांथ धो सकें, जैसा की कोरोना लॉकडाउन के समय हमने देखा।
इन नीतियों का कुल नतीजा
- भारतीय कृषि में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे कुछ क्षेत्रों में खेती का विकास होने के बावजूद बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, पूर्वी यूपी इत्यादि कई क्षेत्रों में खेती मात्र निर्वाह का साधन बन कर रह गयी जहाँ की बड़ी ग्रामीण आबादी प्रवासी मज़दूर के रूप में शहरों की ओर पलायन करने पर मजबूर हुई और अपर्याप्त रोज़गार की स्थिति में सस्ते मज़दूरों और बेरोजगारों की बड़ी फ़ौज को तैयार किया।
- जिन क्षेत्रों में खेती से मूल्य कमाने के संसाधन रहे वहां भी किसान एक ओर बढ़ती लागत व क़र्ज़ और घटती ज़मीन की उर्वरता और पानी के स्तर का सामना करने लगे। दूसरी ओर धान और गेहूं के अतिरिक्त वे पूरी तरह निजी खरीददार और अंतर्राष्ट्रीय मंडी के उतार चढ़ाव पर निर्भर हो गए।
- 90 के मध्य से किसानों की आत्महत्या खासकर हरित क्रांति से प्रभावित पंजाब, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश जैसे क्षेत्रों में एक दुखद सामाजिक परिघटना बन कर उभरी। 1995 से 2015 के बीच सरकारी आकड़ों के मुताबिक़ 3 लाख किसानों ने आत्महत्या की। मोदी सरकार के आने के बाद किसान आत्महत्या के आंकड़े दर्ज और प्रकाशित होने बंद कर दिए गए।
- 2001 से 2011 के बीच भारत में 85 लाख किसानों ने खेती छोड़ी, वहीँ खेतिहर मज़दूरों की संख्या 3.75 करोड़ बढ़ गयी। बड़े और मध्यम किसानों को छोड़ कर अधिकतर किसानों के लिए खेती से मुनाफ़ा कमाना कमोबेश असंभव हो गया, वहीँ छोटे और सीमांत किसान खुद की मज़दूरी और निवेश की भरपाई करने में भी असमर्थ रहे। सरकारी आंकड़ों[i] के मुताबिक़ एक छोटे किसान का पूरा परिवार प्रति माह खेती से 4000 रु करीब आमदनी कर पाता है, जो उनके कुल पारिवारिक खर्च के 60% को भी पूरा नहीं कर सकता। वे मज़दूरी और गैर कृषि क्षेत्रों में काम कर के इस अंतर को पूरा करते हैं।
जारी…