दिल्ली: ‘सावित्री-फ़ातिमा मेला’ में बच्चों की सक्रियता; खेल, विज्ञान प्रदर्शनी और विविध सांस्कृतिक आयोजन

सबकी लाइब्रेरी, एसजीयू और इलाके में रहने वाले लोगों के साझा प्रयासों से आयोजित हुआ सावित्री-फ़ातिमा मेला, दिल्ली जैसे महानगर में वैकल्पिक उत्सव का एक प्रभावी उदाहरण बनकर उभर रहा है।
सावित्री-फ़ातिमा मेला, 2025 : ‘सावित्री-फ़ातिमा का मिशन अधूरा, हम सब करेंगे मिलकर पूरा’
दक्षिण दिल्ली के वसंत कुंज क्षेत्र की बस्तियों में साल का पहला रविवार अपनी ख़ास जगह बनाने लगा है, पिछले तीन सालों से इस दिन पर ‘सावित्री-फ़ातिमा मेला’ का आयोजन किया जाता है। इस बार भी मेले का इंतज़ार इलाक़े के बच्चों को था। भले ही मेला एक दिन का हो, लेकिन इसकी प्रक्रिया कई दिनों पहले शुरु हो गई थी। जिसमें मेले की तैयारी करना, मेले का प्रचार करना और मेले से पूर्व कई और कार्यक्रमों का आयोजन करना शामिल है। मेले से दस दिन पूर्व बस्ती के बच्चों ने वसंत कुंज स्थित संजय वन की सैर करके वहाँ की वानस्पतिक और जैव विविधता को जाना, उसी प्रक्रिया में उन्होंने संजय वन पर ‘गूँज’ नाम की एक शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री भी बनाई।

5 जनवरी को साल का पहला रविवार था, जिस दिन मेले का आयोजन तय किया गया। अल-सुबह ही मेला परिसर में इलाक़े के छात्र आने लगे थे, मेले के शुरुआती कार्यक्रमों में खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया। शरीर को जमा देने वाली ठण्ड में भी प्रतिभागियों ने अपने खेल-कौशल का प्रदर्शन किया। चढ़ते सूरज के साथ मौसम भी मेले में आए लोगों का साथ देने लगा था, उसी श्रृंखला में आगे बच्चों के बीच विज्ञान प्रदर्शनी लगायी गई। प्रदर्शनियों में हमारे आस-पास के चीजों की वैज्ञानिक समझ बनाने का प्रयास वहाँ के छात्र कर रहे थे।

एक तरफ़ क्या, क्यों और कैसे पूछने वाले छात्रों के समूह थे तो दूसरी तरफ़ हर सवाल का धैर्य के साथ जवाब देने वाले वे छात्र जिन्होंने पिछले कई दिन प्रदर्शनी की तैयारी में बिताए थे। जहाँ एक तरफ़ विज्ञानी प्रदर्शनी लगी हुई थी तो दूसरी तरफ़ पर्दे पर फ़िल्में भी दिखाई जा रही थी। बस्ती के बच्चों द्वारा बनाई गई फ़िल्म ‘गूँज’ के साथ, कैनेडियाई लघु फ़िल्म ‘नेबर्स’ भी दिखाई गई। बच्चों के लिए बिक्री की छोटी दुकानें, ‘सावित्री-फ़ातिमा का मिशन अधूरा, हम सब करेंगे मिलकर पूरा’ जैसे नारे, बच्चों के ठहाके और आवाज़ें मिलकर मेला परिसर को पूरा मेलामयी बना रहे थे।

आधा दिन बीत जाने के बाद मेले का नजारा भी बदल रहा था, बाक़ी आधे दिन मेले में आएँ बस्ती के बच्चों के साथ-साथ और लोग भी मंच पर अपनी नज़रें टिकाए बैठे थे। मंच पर कहानी, कठपुतली का खेल, नाटक और नृत्य का आयोजन किया गया। बच्चों द्वारा प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ पर एक नाटक प्रस्तुत किया गया, साथ ही बस्ती में बोली जाने वाली विभिन्न भाषाओं के गाने मिलाकर एक नृत्य की प्रस्तुति की गई। मेहमान कलाकारों द्वारा भी कहानी, कठपुतली और एक नाटक का प्रदर्शन किया गया। दिन के ख़त्म होते-होते पुरस्कार वितरण के साथ मेले की समाप्ति की औपचारिक घोषण हुई, लेकिन औपचारिक घोषणा के साथ जो ख़त्म हो जाए वो मेला कैसा- आख़िर में अगले साल फिर मिलने का वादा करके बच्चों को विदा किया गया।

सबकी लाइब्रेरी, संग्रामी घरेलू कामगार यूनियन और इलाके में रहने वाले लोगों के साझा प्रयासों से आयोजित हुआ सावित्री-फ़ातिमा मेला, दिल्ली जैसे महानगर में वैकल्पिक उत्सव का एक प्रभावी उदाहरण बनकर उभर रहा है। आज जब हमारे पारंपरिक, ग़ैर पारंपरिक उत्सव बाज़ार की चपेट में आकर खर्चीले होते जा रहे हैं, पलायन करके आयी मेहनतकश आवाम का शहर से कोई सांस्कृतिक जुड़ाव नहीं बन पा रहा है, और बेहतर शिक्षा की पहुँच भी मेहनतकश तबकों तक नहीं बन पा रही है, ऐसे में सावित्री-फ़ातिमा मेले जैसे उदाहरण शहर में एक नई वैकल्पिक संस्कृति के निर्माण की संभावना दिखाते हैं।

बच्चे एक दिन
~अशोक वाजपेयी
बच्चे
अंतरिक्ष में
एक दिन निकलेंगे
अपनी धुन में,
और बीनकर ले आयेंगे
अधखाये फलों और
रकम-रकम के पत्थरों की तरह
कुछ तारों को ।
आकाश को पुरानी चांदनी की तरह
अपने कंधों पर ढोकर
अपने खेल के लिए
उठा ले आयेंगे बच्चे
एक दिन ।
बच्चे एक दिन यमलोक पर धावा बोलेंगे
और छुड़ा ले आयेंगे
सब पुरखों को
वापस पृथ्वी पर,
और फिर आँखें फाड़े
विस्मय से सुनते रहेंगे
एक अनन्त कहानी
सदियों तक ।