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शोषण, कम मज़दूरी, बेरोजगारी, पलायन और लाचारी झेलते बीड़ी करोबार में लगे दलित श्रमिक

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May 14, 2024
in Home Slider, राजनीति / समाज
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शोषण, कम मज़दूरी, बेरोजगारी, पलायन और लाचारी झेलते बीड़ी करोबार में लगे दलित श्रमिक
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आज देश में जिस तरह विभिन्न परंपरागत और लघु उद्योग चौपट हो रहे हैं, उनमें बीड़ी उद्योग भी शामिल है। दलित बीड़ी श्रमिकों की बदतर हालत कह रही है कि, वे अब जाएं तो जाएं कहां?

सागर,मध्य प्रदेश। का सागर जिला बीड़ी श्रमिकों का गढ़ माना जाता है। सागरवासियों की कई दशकों से आजीविका बीड़ी कारोबार पर टिकी रही है। इसकी मुख्य वजह यह है कि, सागर में कभी कोई विशेष फैक्ट्री या उद्योग स्थापित नहीं हो सका है। जिले में दलित समुदाय की आबादी बहुतायत में हैं। दलितों की यह आबादी बीड़ी कारोबार की रीढ़ मानी जाती है। मगर, आज देश में जिस तरह विभिन्न परंपरागत और लघु उद्योग चौपट हो रहे हैं, उनमें एक नाम बीड़ी उद्योग का भी है। सागर में बीड़ी उद्योग की बदतर हालत अब चीख-चीख कर यह कह रही है कि, दलित बीड़ी श्रमिक अब जाएं तो जाएं कहां? बीड़ी कारोबार में आई मंदी ने ना केवल दलित समुदाय को बेरोजगार किया है, बल्कि, पलायन और लाचारी का शिकार भी किया है।

बीड़ी कारोबार क्यों धाराशायी हो रहा है और बीड़ी श्रमिकों की क्या स्थिति है? यह जानने के लिए हमने सागर जिले के कुछ गांव में पड़ताल की। पहले हम पहुंचे सागर तहसील के करैया गांव।

इस गांव में हमें बीड़ी बनाती कुछ महिलायें नजर आती हैं। महिलाओं के पास पहुंच कर जब हम बीड़ी कारोबार पर बात करते हैं, तब सरोज अहिरवार बताती हैं कि, “बीड़ी कारोबार में अब बहुत मंदी आ गई है। हालत यह है कि, जब खेती-किसानी का काम लग जाता है, तब बीड़ी बनाना बंद करना पड़ता है। बीड़ी के काम में ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ते में 500 रुपए आय हो पाती हैं। महंगाई के इस दौर में कम से कम 500 रुपए तो एक हफ्ते की सब्जी के लिए चाहिए होते हैं। ऐसे में घर का खर्च तो कठिनाई से मिलती मजदूरी से ही चलाना पड़ता है।”

सरोज आगे एक सुझाव भी देती हैं। वे कहती हैं कि, “करैया गांव के आस-पास 10-12 गांव हैं। यदि इन गांव को देखते हुए सरकार कोई फैक्ट्री शुरू कर देती है, तब यहां के लोगों को आजीविका का सुनिश्चित साधन मिल जाएगा। जिससे लोगों को परिवार का भरण-पोषण करने में आसानी होगी।”

आगे अपनी दलान में तेंदूपत्ता काटती चंपा (करीब 65 वर्ष) कहती हैं कि, “जब से मैंने होश संभाला है तब से बीड़ी का काम ही मेरे हाथों में रहा है। इस बीड़ी के काम में सट्टेदार ने जितनी आमदनी दी, बस वही मेरे पास रही। अब तक सरकार से राशन और पेंशन के अलावा कुछ मिला नहीं।”

फिर चम्पा की सहेली काशीबाई कहती हैं, “मैंने 16 साल की उम्र से बीड़ी बनाई है। लेकिन, सरकारी राशन के लिए गरीबी रेखा का परमिट तक नहीं बना। बीड़ी बनाने में जो फंड कटौती हुई वह सट्टेदार के हाथ से हमारे हाथ में आयी ही नहीं।”

काशीबाई आगे बोलती हैं कि, बीड़ी का काम तो अब मन-शौक का हो गया है। बीड़ी उद्योग से अब हम बच्चे नहीं पाल सकते हैं।”

करैया गांव के आगे है हनोता गांव। इस गांव में पहुंचने पर हमारी मुलाकात होती है काशीराम अहिरवार से। वह बताते हैं कि, “बीड़ी कारोबार अब इस तरह बैठ गया है कि, बीड़ी मजदूर को ऊपर नहीं उठा सकता। बीड़ी मजदूर अब यदि बीड़ी कारोबार पर निर्भर रहता है, तब वह खाली पेट रह जाएगा।” जब हमने पूछा कि, बीड़ी कारोबार क्यों दम तोड़ रहा है? तब काशीराम कहते हैं कि, “बढ़ते गुटखा और सिगरेट के प्रचलन से बीड़ी कारोबार चरमरा गया है। वहीं, आज जंगलों में जिस तरह से कटाई हो रही है, उससे तेंदू पत्ते के पेड़ खत्म हो रहे हैं। तेंदू पत्ता की कमी भी बीड़ी रोजगार को निगल रही है।”

आगे जब हमने सवाल किया कि, बीड़ी कारोबार और बीड़ी के नशे से क्या स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है? तब काशीराम अपना उदाहरण देते हुए बोलते हैं कि “मैं बीड़ी के नशे का आदी हूं। बीड़ी पीने से कई बीमारियों का शिकार हो गया हूं। पहले दांत खराब हुए, फिर सांस चलने लगी। अब इसके साथ आंखों से कम दिखाई देता है।”

वहीं आगे बात हमारी तिजईं (उम्र 78 वर्ष) से होती है। तिजईं करीब 40 वर्ष की उम्र से बीड़ी के नशे में लिप्त हैं। उनका कहना है कि, “बीड़ी के नशे का असर यह है कि, यदि बीड़ी नहीं पीते, तब पेट फूलने लगता है।”

तिजईं के परिजन बताते हैं कि, “तिजईं को दिन में खाना ना मिले तो कोई परेशानी नहीं, मगर बीड़ी का बंडल रोज चाहिए। अगर वह बीड़ी ना पियें तब उनका स्वास्थ्य‌ और ज्यादा खराब हो जाता है।”

आगे जब हम कहैया गांव से सटी है सुरखी विधानसभा पहुंचे। तब सुरखी का बाजार हमें बड़ा सहज और देशीपन से ओतप्रोत नजर आया। बाजार के बीचों-बीच हम दुकानों को निहारते हुए जा रहे थे कि, हमारी नजर पड़ी तुलसीराम अहिरवार पर। हमने देखा कि, उनका आधा पैर कटा हुआ है। आधा पैर कटा होने के बावजूद तुलसीराम जूता-चप्पल पालिश व बनाने का काम कर रहे थे। तुलसीराम का पैर कैसे कटा और उनकी स्थिति कैसी है? यह जानने के लिए हम उनके करीब पहुंचे। जब हमने तुलसीराम से बातचीत की तब वह बताते हैं कि, “मैं बीड़ी के नशे का आदी था। नशे का प्रभाव यह हुआ कि, मेरा पैर गैंग्रीन रोग की चपेट में आ गया। पैर के इलाज में हमारा 50 हजार रुपए खर्च हुआ, मगर पैर में आराम नहीं लगा। रोग का दर्द इतना दर्दनाक था कि, मैं रात भर सो नहीं पाता था। ऐसे में तिली अस्पताल के डॉक्टर को मेरे पैर का अंगूठा काटना पड़ा। बावजूद मुझे गैंग्रीन रोग से मुक्ति नहीं मिली। तब डॉक्टर को मेरा पैर ही काटना पड़ा।”

तुलसीराम आगे बताते हैं कि, “गैंग्रीन रोग के संबंध में डॉक्टर का कहना था कि, बीड़ी पीने से धुआं लगातार शरीर के अन्दर प्रवेश हो रहा था। ऐसे में धुआं ने गैंग्रीन रोग को जन्म दे दिया।”

सुरखी के बाजार में आम लोगों की व्यस्तताओं को देखते हुए हमने अन्य गांव की ओर अपना रुख किया। जब हम सुरखी के आगे हीरापुर गांव पहुंचे। तब हम मिले हीरापुर गांव के बीड़ी कारोबारी और ठेकेदार बाबूलाल राठौर से। बीड़ी कारोबार की बदहाली पर बात की, तब वे बताते हैं कि, “एक साल पहले हमारे अंडर 200 बीड़ी मजदूर बीड़ी बनाने का काम करते थे। हमारी बीड़ी विदवास, हीरापुर और खांपुआ गांव में बनती थी। जिस बालक ब्रांच में हमारा बीड़ी का लाइसेंस था, अब वह ब्रांच बंद हो चुकी है। बीड़ी का कारोबार ब्रांच बंद होने से गिर रहा है।”

जब हमने पूछा कि, आपकी ब्रांच बंद क्यों चुकी? “तब बाबूलाल कहते हैं कि, हमारी बीड़ी कानपुर जाती थी। सागर से वहां पहुंचते-पहुंचते 20 हजार रूपए तब का टैक्स लग जाता था। अधिक टैक्स की मार बीड़ी का काम सुस्त कर गयी।”

आगे हमें, गांव की बुजुर्ग महिला प्रेमरानी सहित अन्य महिलाएं बताती हैं कि, “बीड़ी बनाते- बनाते जिंदगी गुजरी जा रही है। मगर, ऐसा कोई लाभ नहीं मिला कि ज़िंदगी बदल सके। कई महिलाओं के बीड़ी कार्ड भी बने हैं, लेकिन, बीड़ी कार्ड से कोई लाभ नहीं हो रहा। आज एक दिन बीड़ी बनाने में हमें मुश्किल से 50-70 रूपए मिल पाता है। इतने पैसे में बेटा-बेटी पढ़ाना, घर खर्च चलाना बहुत खलता है”

महिलाओं के पास ही मौजूद कंछेदी का कहना हैं कि, “हमने एक हजार बीड़ी सवा रुपए से लेकर आज 100 रुपए तक बनाई है और बनाते आ रहे हैं। मगर, हमारी जिंदगी जस की तस है। मलाल है कि, जिंदगी भर बीड़ी बनाने के बाद भी बच्चों का जीवन सुरक्षित नहीं कर पाए।”

कंछेदी से जब हमने यह कहा कि, जब बीड़ी उद्योग की हालत खराब है, तब कोई और रोजगार क्यों शुरू नहीं करते? तब वह कहते हैं कि, “बीड़ी उद्योग से एक लगाव है। यह उद्योग यदि हम छोड़ देंगे, तब करेंगे क्या? हमारे पास अन्य रोजगार भी तो नहीं है। यदि सरकार विशेष तौर पर अन्य उद्योग करने के लिए कोई आर्थिक मदद करेगी तब ही यह कारोबार छोड़ेंगे।”

आगे राहुल कहते हैं कि, “आज का युवा बीड़ी का काम नहीं कर रहा क्योंकि, बीड़ी के काम में कम कमाई है‌। वहीं, सागर में और कोई विशेष रोजगार नहीं है।इसलिए यहां से युवाओं का पलायन बढ़ता जा रहा है। युवा अब अन्य शहरों पर काम के लिए आश्रित है।”

देश के लोकप्रिय गांधीवादी और समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर जिन्होंने बीड़ी मजदूरों के अधिकारों को लेकर काफी संघर्ष किया। जब उनसे हमने बीड़ी कारोबार और बीड़ी श्रमिकों की स्थिति पर चर्चा की। तब वह बताते हैं कि, “बीड़ी श्रमिकों की स्थिति बहुत ही दयनीय है। वजह यह है कि, बीड़ी मजदूर सामान्य तौर बीड़ी बनाते है। बीड़ी मजदूर नियमित मजदूर के रूप में नहीं माने जाते हैं। बीड़ी के जो दायित्व है वह ठेकेदार के पास है।”

आगे वह कहते हैं कि, बीड़ी का कारोबार कोई अच्छा कारोबार नहीं है। यह तो एक नशा है। यह नशा समाज को बिगाड़ने वाला है। आज बीड़ी मालिकों ने खुद इस कारोबार को बंद कर नए कारोबारों की ओर रुख किया है। 

ऐसें में बीड़ी मजदूरों के लिए एक वैकल्पिक रोजगार के तौर पर खादी के कपड़े का काम, ग्रामीण उत्पादन, आचार, पापड़ बनाने, के काम शुरू करवाए जा सकते हैं। जिससे उनको रोजगार स्थापित करने में मदद मिलेगी।

जब हम बीड़ी कारोबार और बीड़ी मजदूरों से संबंधित आंकड़ों की तरफ नजर डालते हैं तब प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो का डेटा हमें बताता है कि, देश में 49.82 लाख बीड़ी श्रमिक पंजीकृत हैं, इन श्रमिकों में 36.25 लाख महिलायें हैं।

वहीं, डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, भारत तंबाकू उत्पादों का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है, जहां 267 मिलियन वयस्क धूम्रपान या तंबाकू का उपयोग करते है। जिससे प्रति वर्ष 1.35 मिलियन से अधिक मौतें होती हैं। बीड़ी देश में सबसे आम धूम्रपान उत्पाद है। जिसका सेवन 72 मिलियन वयस्क करते हैं। बीड़ी उद्योग अनुमानत: 4.9 मिलियन लोगों को रोजगार देता है। भारत में 90% बीड़ी बनाने वाली महिलाओं के लिए विशिष्ट स्वास्थ्य सुविधाओं की आवश्यकता है।

जबकि, नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन बताता है कि, बीड़ी के नशे से पीड़ित लोगों को अक्सर अस्थमा, कैंसर, श्वांस, हाथ-पैर, गर्दन दर्द, दांतों की बीमारी जैसे कई लोगों से ग्रसित होते हैं।

सरकार यदि, वाकई दलित बीड़ी श्रमिकों के आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन में सुधार लाना चाहती, तब उसे दलित बीड़ी श्रमिकों के लिए नये रोजगार, धंधे स्थापित करने हेतु विशेष आर्थिक सहयोग की नीति बनाने की दरकार है, ताकि, बीड़ी श्रमिकों की बदहाल स्थिति को नये सिरे से संवारा जा सके।

जनचौक से साभार

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