कच्चे तेल की कीमत धडाम, पर लाभ किसको?

मुनाफे की बेदी पर तेल और तेल की धार…
कोरोना/लॉकडाउन के बीच सोमवार को वायदा बाजार में कच्चे तेल (क्रूड ऑइल) का भाव जीरो से नीचे चला गया था। हालत ये हैं कि तेल के बड़े उपभोक्ता देशों में जमीन से निकाले गए क्रूड को रखने के लिए जगह कम पड़ती जा रही है। फिरभी इसका लाभ किसे मिलेगा? …वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक साथी मुकेश असीम की टिप्पणी…
क्रूड ऑइल का दाम कल गिरकर 1.5 डॉलर प्रति बैरल या कुछेक पैसे प्रति लीटर हो गया। पूँजीवादी बाजार में माँग-पूर्ति का नियम ऐसे नतीजे पैदा करता है। अब तक हमने किसानों को नुकसान से बचने के लिये सब्जी, टमाटर, दूध फेंकते देखा है। अब किसी दिन हो सकता है कि क्रूड भरे खड़ा कोई टैंकर इस करोड़ों लीटर तेल को समुद्र में बहा भाग निकले ताकि नुकसान कम हो।
सामान्य मानवीय दृष्टि से यह कितना भी गलत लगे पर मुनाफे के गणित से यह कदम पूर्णतया ‘तार्किक’ बन जाता है। जैसे 7.7 करोड़ टन अनाज भरे होने, सड़ने, चूहों द्वारा खाये जाने के मुकाबले गोदामों को भूखे लोगों के लिये न खोलने का निर्णय भी पूँजीवादी सत्ता के लिये ‘तार्किक’ ही होता है!
हर बड़े शहर में लाखों फ्लैट-मकान खाली पड़े होने पर भी झोंपड़पट्टियों के एक कमरे में रहते 10-12 मजदूरों से ‘सामाजिक दूरी’ बनाये रखने के लिये कहना भी ऐसे ही पूर्णतया ‘तार्किक’ होता है, निजी संपत्ति आखिर पूँजीवाद का पवित्रतम ‘मंदिर’ जो ठहरा।
और किसी मंदिर के दरवाजे तो कभी सबके लिये खुलने की कल्पना की भी जा सकती है पर इसकी, नहीं नहीं, कभी नहीं, हरगिज नहीं!

सामूहिक सामाजिक जरूरतों की पूर्ति के बजाय पूँजीपतियों के मुनाफे के लिये उत्पादन वाली पूँजीवादी व्यवस्था अपने इसी गणितीय तर्क से फसल जलाने-फेंकने से तेल बहाते हुए एक दिन दुनिया भर में बमवर्षा और करोड़ों के जनसंहार के ‘तार्किक’ फैसले पर पहुँचती है।
20वीं सदी के दो विशाल युद्ध, और अनेक छोटे भी, सनक और पागलपन नहीं बल्कि इसी पूँजीवादी तार्किकता का परिणाम थे।
मज़दूर वर्ग की राजनीति में आए भटकाव और बिखराव ने एक बार फिर उसी पूँजीवादी तार्किकता को अपना विनाशकारी खेल खेलने की छूट दी है। पर क्या हम अब भी अपनी ताकतों को एक लक्ष्य के लिये एकजुट करने की तैयारी करेंगे या अपने-अपने मठों में अफीम के नशे में मगन रहेंगे?
–साथी मुकेश असीम के वाल से