कोरोना काल: नाकाम है मोदी की आयुष्मान भारत योज़ना

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प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत चलाई जा रही आयुष्मान भारत स्कीम को केंद्र सरकार दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना बताती है।

स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन का दावा है कि मोदीकेयर के नाम से 2018 में शुरू की गई आयुष्मान भारत योजना के अंतर्गत देश के 10 करोड़ बीपीएल कार्ड धारक (लगभग 50 करोड़ लोगों)  गरीब परिवारों को स्वास्थ्य सुरक्षा मुहैया करवाई जा रही है। योजना का शुरुआती बजट था 2000 करोड़ रुपए।

इस बीमा योजना के तहत परिवार के हर सदस्य का एक बीमा कार्ड बनता है जिससे पांच लाख रुपए तक का इलाज मुफ्त होता है। सरकारी अस्पताल के अलावा अगर निजी अस्पताल में भी इलाज करवाया जाए तो इस योजना के तहत पांच लाख का भुगतान बीमा कंपनी की ओर से किया जाएगा।

इकनॉमिक टाइम्स के अनुसार सामाजिक आर्थिक जनगणना के आधार पर इस योजना के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्र 8.03 करोड़ परिवार और शहरी क्षेत्र के 2.33 करोड़ परिवार आएंगे, कुल मिलाकर 10 करोड़ से ज्यादा परिवार यानी आबादी निचला 40 प्रतिशत हिस्सा और फ़ोकस ग्रुप था ग्रामीण क्षेत्र जैसा कि सरकार का दावा था।

आयुष्मान भारत स्कीम के दो हिस्से हैं – स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र (HWCs) की स्थापना जिसके तहत प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था के आधारभूत संरचना पर ध्यान देने का दावा किया गया और दूसरी है प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (PM-JAY) जिसके जरिए वंचितों को 5 लाख़ रुपए का स्वास्थ्य बीमा सुरक्षा प्रदान करने का दावा किया गया। इस योजना में 1,350 मेडिकल पैकेज शामिल हैं।

फ़रवरी 2018 में ही क़रीब डेढ़ लाख “स्वास्थ्य और कल्याण केन्द्र” खोलने की घोषणा की गई थी। नेशनल हेल्थ अथॉरिटी की वेबसाईट के मुताबिक अगस्त 2020 तक देश में 12.55 करोड़ नए आयुष्मान कार्ड ज़ारी किए गए, कुल 1.09 करोड़ हॉस्पिटल एडमिशन हुए हैं और योजना में करीब 22,796 हॉस्पिटल शामिल हैं।

ये तो थे सरकारी आंकड़ें मगर हकीक़त क्या है

भारत की 20 प्रतिशत आबादी अभी भी 130 प्रति दिन (2011 पीपीपी) पर गुज़ारा कर रही है। भारत की जनता की 70 % स्वास्थ्य जरूरतें निजी क्षेत्र के अस्पतालों के हवाले है और भारत में कुल अस्पताल के बिस्तरों का 50% हिस्सा निजी क्षेत्र का है। ज्यादातर अस्पताल 25 या उससे कम बेड वाले हैं।

जनज्वार. कॉम की रिपोर्ट के मुताबिक यूपी-बिहार बॉर्डर के ग्रामीण पृष्टभूमि वाले 5 जिलों में 1 करोड़ 68 लाख की आबादी पर सिर्फ 2 आईसीयू और 18 वेंटिलेटर है। मौजूद वेंटिलेटर की कुल 18 संख्या में से अगर आबादी के अनुसार गिनती करें तो नौ लाख 36 हजार 111 की जनसंख्या पर एक वेंटिलेटर पड़ेगा । इसी तरह कोविड मरीजों के लिए कुल 1716 बेड है । जिसका आबादी के आधार पर आकलन करें तो 9819 लोगों पर एक बेड उपलब्ध है।

दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के अनुसार कोविड की दूसरी लहर के दौरान शहरी क्षेत्र के निजी अस्पतालों ने इलाज के नाम पर काफ़ी पैसे वसूले। इन 20,000 से ज्यादा पंजीकृत अस्पतालों में आयुष्मान भारत के तहत कोविड के इलाज की सुविधा नहीं थी। क्योंकि इस योजना के तहत निजी अस्पताल की जो दरें तय की गई हैं वो कोविड के दौरान अस्पतालों द्वारा वसूली गई दरों से काफी कम है।

आयुष्मान भारत योजना के तहत आईसीयू में बेड का 1 दिन का चार्ज ₹3000 से ₹5000 के आसपास है जबकि कई शहरों में आईसीयू बेड के लिए मरीजों को प्रतिदिन के दर से पचास हजार रुपए से लेकर एक लाख रुपए तक का भुगतान भी करना पड़ा। इस वजह से कई छोटे निजी अस्पतालों ने कोविड मरीजों को भर्ती नहीं किया।शहरों में रह रहे असंगठित क्षेत्र के प्रवासी मजदूरों को आयुष्मान भारत योजना के बारे में नहीं पता है तो लाभ मिलना दूर की बात है।

अगर हम ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था और खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना के संक्रमण और मृतकों की बढ़ती संख्या को देखते हुए टिप्पणी की थी कि राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था रामभरोसे है। बिहार से लेकर पंजाब तक ग्रामीण क्षेत्र में कोविड संक्रमण और उसकी वजह से मृत्यु की दर काफी ज्यादा है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है और सरकारी अस्पतालों में सामान्य दवाइयां और जांच की सुविधा तक उपलब्ध नहीं है तो आयुष्मान भारत योजना का सवाल ही नहीं उठता है। ग्रामीण क्षेत्र की स्वास्थ्य व्यवस्था अभी भी झोलाछाप डॉक्टरों के हवाले है। ग्रामीण क्षेत्रों में इलाज के अभाव में मरे कोविड के मरीजों के शव नदियों में प्रवाहित किए जा रहे हैं।

आयुष्मान भारत योजना हो या राज्य सरकारों द्वारा प्रायोजित कोई अन्य स्वास्थ्य योजना, स्वास्थ्य सुविधा पूरी तरीके से ठेके पर काम कर रहे संविदा नर्सों और अन्य स्वास्थ्य कर्मचारियों पर निर्भर है जिन्हें ना वक्त पर तनख्वाह मिलती है ना उनकी नौकरी की सुरक्षा है। हाल ही में गोवा, पंजाब, बिहार इत्यादि राज्यों में स्वास्थ्य कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी थी।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों के 5,183 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 78.9 फ़ीसदी सर्जन, 69.7 फ़ीसदी प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ, 78.2 फ़ीसदी फिजीशियन और 78.2 फ़ीसदी बच्चों के डॉक्टरों की कमी है। कुल मिलाकर 76.1 फीसदी स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की कमी है।

स्वास्थ्य मंत्रालय के रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में 24,918 पद में से डॉक्टरों के 8,638 पद खाली हैं।

फिलहाल राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के पास आयुष्मान भारत योजना के तहत कोरोना संक्रमित मरीजों के इलाज और इलाज में खर्च की गई राशि का आंकड़ा नहीं है। कई राज्य सरकारों ने कोविड का इलाज राज्य द्वारा संचालित स्वास्थ्य योजनाओं के तहत करने की घोषणा की। राजस्थान में नई योजना चिरंजीवी स्वास्थ्य योजना तक जारी कर दी गई। मगर आधारभूत स्वास्थ्य संरचना कमजोर होने के कारण इस प्रकार की कोई योजना प्रभावी नहीं है।

भारतीय बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण (IRDAI) ने पिछले साल स्पष्ट किया था कि कोरोनावायरस संक्रमण के कारण होने वाली बीमारी को मानक व्यापक क्षतिपूर्ति / मेडिक्लेम प्रकार की स्वास्थ्य योजनाओं के तहत विधिवत कवर किया गया है। अस्पताल के बिस्तरों की अनुपलब्धता के कारण घरेलू उपचार के मामलों में, मरीज़ अपने बीमाकर्ताओं से क्षतिपूर्ति का दावा करने के लिए इस मानदंड को पूरा करने में असमर्थ हैं।

आयुष्मान भारत के डिप्टी सीईओ डॉक्टर विपुल अग्रवाल ने अप्रैल में दिए एक साक्षात्कार में बताया था कि कोविड महामारी शुरू होने के बाद से आयुष्मान भारत के तहत चार लाख कोविड संक्रमित लोगों का इलाज हुआ है और दस लाख टेस्ट कराए गए हैं। हेल्थ एक्सपर्ट के अनुसार  जिस देश में ढाई करोड़ से ज्यादा कोई भी संक्रमण के मामले हो वहां अगर 10 लाख लोगों का इलाज भी इस योजना के तहत हो जाए तब भी कम है।

ज़रूरत थी कि कोविड की पहली लहर के बाद समय रहते सरकार आपदा से निपटने के लिए संसाधनों को जुटाती और व्यवस्थित करती मगर चुनाव को प्राथमिकता दी गई। दूसरी तरफ आईएमए की सलाह और चेतावनी को नजरअंदाज कर स्वास्थ्य व्यवस्था को रामदेव जैसे लोगों की सलाह पर दिशा निर्देश दिए जा रहे हैं।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में निजीकरण के रथ पर सवार भारत सरकार ने स्वास्थ्य सुविधाओं को निजी क्षेत्र के हवाले करने की घोषणा तक कर दी थी। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति सुधारने के बजाय निजी क्षेत्र के हवाले करने की बात कही गई थी। इस आपदा के समय भी निजी क्षेत्र के अस्पतालों ने यह बता दिया कि उन्हें सिर्फ अपने मुनाफे और हॉस्पिटैलिटी से मतलब है।

इस हेल्थ इमरजेंसी में यह स्पष्ट हो गया कि आयुष्मान भारत योजना या अन्य किसी स्वास्थ्य योजना को लागू करने और जनता को सस्ती तथा समेकित स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने के लिए निजी क्षेत्र की नियत पर कभी भी भरोसा नहीं किया जा सकता है। इसलिए जरूरत है कि संपूर्ण देश की स्वास्थ्य व्यवस्था का राष्ट्रीयकरण हो, बजट में स्वास्थ्य पर खर्च को बढ़ावा दिया जाए और निशुल्क स्वास्थ्य सुविधा का लाभ प्रत्येक नागरिक का अधिकार माना जाए।