भाजपा की उत्तर-कोरोना काल की मंशा

भाजपा की सरकार से मांग: मज़दूरों की मेहनत चूसना – किसानों की ज़मीन लूटना किया जाए आसान!
भाजपा ने 3 से10 अप्रैल के बीच विभिन्न बैठकों के बाद भारत की अर्थव्यवस्था को पुनर्नियोजित करने के लिए कुछ सुझाव सरकार के पास रखे हैं। आर्थिक विषयों पर भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्णा अग्रवाल ने बताया की यह सुझाव पार्टी के सामाजिक संपर्कों पर आधारित हैं, और वर्तमान सरकार ने इन सुझावों को काफ़ी खुलेपन से सुना है। दरअसल सत्ताधारी पार्टी द्वारा रखे गए यह सुझाव सरकार की आने वाली नीतियों की रूपरेखा माने जा सकते हैं और इनका आंकलन भाजपा और सरकार के असली मंसूबों को समझने के लिए ज़रूरी हैं।
क्या है इस नयी परिकल्पना के मुख्य आधार?
मीडिया से बात करते हुए अग्रवाल ने बताया की, “परामर्श से यह निकला कि कोविड19 दुनिया में भारत के लिए एक अवसर हैं क्योंकि कई देश भारत को विनिर्माण हब के रूप में देखना पसंद करेंगे ।” लिहाज़ा सारे सुझाव विनिर्माण के विकास को बढाने के नज़रिए से ही दिए जा रहे हैं। व्यावहारिक रूप से इसका सीधा मतलब बनता है की मालिक वर्ग और मेहनतकश वर्ग के बीच शक्ति संतुलन में सरकार और खुल कर मालिक वर्ग के पक्ष उनको खुश करने के लिए काम करेगी। इसकी प्रमुख शर्तें कुछ इस प्रकार हैं:
शर्त 1: मज़दूरों की बढ़ती बेबसी – श्रम कानूनों में परिवर्तन
विनिर्माण उद्योग स्थापित करने में सहुलियत के लिए पहली ज़रुरत हैं दबे-बेबस मज़दूरों की बड़ी आबादी जिनका निरंकुश शोषण किया जा सके। इसके लिए आवश्यक है की ना केवल मज़दूरों की सुरक्षा के लिए मौजूद सभी काननों को ख़त्म किया जाए, बल्कि, उन्हें कानूनन गुलामी की शर्तों पर काम करने की स्थिति में खड़ा कर दिया जाए। इस उद्देश्य से सरकार पहले ही श्रम कानूनों में व्यापक परिवर्तन कर चुकी है जिसमें काम के घंटे बढ़ाना, स्थायी मजूदूरी ख़तम करके असुरक्षित अप्ल्कालीन मजदूरी को प्रचलित करना, मज़दूरों के संगठित होने को और कठिन बन्नाना इत्यादि। लेकिन इस परामर्श के बाद भाजपा प्रवक्ता के अपने शब्दों में उनकी मांग है कि “श्रम कानूनों सहित श्रम मुद्दों को हटा देना चाहिए”! साथ ही अनुबंध यानी काम के कॉन्ट्रैक्ट के मानकों में भी परिवर्तन होना चाहिए। जहाँ इन सुझावों में मज़दूरों की बात हुई भी तो इस नज़र से की परवाई मज़दूरों को इतने दूर तक अधिकार दिए जाने चाहिए जिससे वे इस दौर में ज़रुरत पड़ने पर काम पर लौट सके। इस नीति की एक झलक जिला के अन्दर मज़दूरों को काम पर जाने की अनुमति देते हुए उन्हें घर जाने से रोकने वाले आदेश में भी देखने को मिली थी।
शर्त 2: उत्पादन लागत में कटौती – ज़मीन की कीमत में गिरावट और भूमि अधिग्रहण में आसानी
अगर भारत में विदेशी निवेश लाना है और इसे एक उत्पादन का गढ़ बनाना है तो यहाँ निवेशियों को अपने उद्योग खड़े करने के लिए सस्ते दामों में बिजली और ज़मीन मुहैय्या करानी होगी। इस विषय पर भाजपा का कहना है की देश में मौजूदा ज़मीन अधिग्रहण कानून बेहद जटिल और बोझिल हैं और इनके सरलीकरण की ज़रुरत है। कानून में मौजूदा जटिलताओं को देखें तो पाएँगे की इनमें प्रमुख है सरकार द्वारा ज़मीन अधिग्रहण पर लगायी गयी पाबंदियां और ज़मीन पर पहले से निर्भर किसान, आदिवासियों, निवासियों के मुआवज़े के अधिकार जिसमें वाजिब मुआवज़े के साथ वैकल्पिक ज़मीन, नए उदोग में विस्थापित लोगों का रोज़गार, ग्राम सभा के निर्णय से आदिवासी क्षेत्रों में अधिग्रहण पर रोक इत्यादि जैसे कई प्रावधान शामिल हैं। 2013 में अधिग्रहण विरोधी आन्दोलनों के दबाव में आ कर कांग्रेस सरकार द्वारा बनाये गए कानून की पूंजीपति वर्ग ने जम कर निंदा की थी और अब भाजपा इसे ख़तम करके निवेशियों की चहेती बनना चाहती है। ज़मीन का दाम कम होने का दूसरा पहलु है की सरकार दमनकारी नीतियों से कम्पनियों के लिए ज़मीन अधिग्रहण करेगी| इससे एक ओर किसानों पर भारी चोट पड़ेगी और दूसरी ओर आदिवासी समुदायों और पर्यावरण पर|
शर्त 3: आज्ञाधीन नागरिक – डाटा संग्रहण के द्वारा जनत पर बढ़ता नियंत्रण
इन परामर्शों में डाटा के क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञों की भागीदारी महत्वपूर्ण रही है| इन्हें उद्योगों और वित्तीय क्षेत्र के साथ ही इसे सरकार की नीतियों को निर्धारित करने में अग्रिम भूमिका दि गयी है| इस नीति का ज़ोर लोगों के बारे में सूचना इकठ्ठा कर के इसके द्वारा सरकार का जनता पर नियंत्रण बढ़ाने पर रहा है| इसके तहत सरकार डाटा संग्रहण के माध्यम से लोगों की गतिविधियों, पसंद-नापसंद और फैसलों तक को नियंत्रित कर सकती है जिसे जनता की स्वतंत्रता पर बड़ी चोट पद सकती है| आरोग्य सेतु एप और साथ ही कोरोना मरीज़ों की कलाई पे बाँध कर उन्हें ट्रैक करने वाला नया उपकरण नागरिकों के निजता के लिए बड़े खतरे माने जा रहे हैं| पिछले ही महीने सरकार ने कम्पनियों से दिल्ली समेत 9 राज्यों के सभी लोगों के फ़ोन की सूचना मांगी थी जिसपर विपक्ष और टेलीफोन कंपनियों ने सरकार की करारी आलोचना की थी| मज़दूर किसान आवाम की हित-विरोधी नीतियों को लागू करने के लिए जाना पर पूरा नियंत्रण एक अनिवार्य शर्त है जिस क्षमता को विकसित करना की भाजपा की कोशिशें इन परामर्शों में साफ नज़र आयीं|
ऐसी कठिन शर्तों से किसको होगा लाभ?
मीडिया से बात करते हुए अग्रवाल ने बताया है, “परामर्श से यह निकला कि कोविड19 दुनिया में भारत के लिए एक अवसर हैं क्योंकि कई देश भारत को विनिर्माण हब के रूप में देखना पसंद करेंगे|” चीन से वैश्विक विनिर्माण उद्योग का दीर्घ कालीन तौर से पीछे हटना इस चर्चा की प्रमुख पृष्ठभूमि है| इस माहामारी से वैश्विक उत्पादन प्रणाली की चीन पर निर्भरता से बनने वाली समस्याएं काफ़ी साफ़ प्रकट हुई हैं| साथ ही, चीन और अमरीका के बीच व्यापारिक सम्बन्ध खराब होने से पहले ही कई कम्पनियां वैकल्पिक उत्पादन स्थल ढूंढ रहीं थीं| ऐसे में विभिन्न देशों की सरकारें इस निवेश को अपनी ओर आकर्शि करने के उपरोक्त शर्तों को पूरा करने की होड़ में हैं, जिसमें भारत सरकार भी शामिल है| किन्तु शोध बताते हैं कि पिछले दो सालों में वैश्विक स्तर पर भारत में निवेश करने की रूचि कम हुई है और मुकाबले में इंडोनेशिया, थाईलैंड, फिलिप्पीन्स जैसे दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों की ओर झुकी है| अब तक के दौर में भी हमने देखा है कि “मेक इन इंडिया” जैसी नीतियों के द्वारा देशी-विदेशी निवेश आकर्षित करने की सभी कोशिशों के बाद भी मोदी काल में बेरोज़गारी तेज़ी से बड़ी है|
फिलहाल वैश्विक स्तर पर चल रही आर्थिक मंदी कई दशकों की सबसे खतरनाक मंदी मानी जा रही है| ऐसे में विदेशी निवेश के देखे जा रहे ख्व़ाब और भी असाध्य हैं| क्या भाजपा और उसके सैकड़ों विशेषज्ञ यह नहीं जानते? बहरहाल सच तो यह है की मंदी के दौर में जहां जनता बेरोज़गारी से बदहाल होती है, तब भी चंद बड़े पूंजीपतियों द्वारा मुनाफे कमाए जाते हैं| दुःख की बात है की भाजपा देश की बहुमत प्राप्त पार्टी होने के बावजूद भी अपने सुझावों में जनता की ज़रूरतों की अवहेलना कर के इन मुट्ठीभर लोगों के मुनाफे की तरफ़दारी करती नज़र आ रही है |
कई विशेषज्ञों की ली सलाह – पर मज़दूर, किसान, अवाम का नहीं रहा कोई प्रतिनिधित्व
सूचना अनुसार भाजपा ने इस प्रक्रिया में 50 से अधिक बड़े अर्थशास्त्रियों, विभिन्न बड़े उद्यमियों, लघु और मध्यम उद्योगों व एनबीऍफ़सी यानी की शेयरबाज़ार, इंश्योरेंस इत्यादि कम्पनियों के प्रतिनिधियों को और इन्टरनेट डाटा विशेषज्ञों के साथ 4 स्तरों में बैठकें कीं|परामर्श के निष्कर्षों को देख के आम मज़दूर, किसान, युवा ज़रूर सोचेगा की इन गोष्टीयों में उनके हक़ की बात करने वाला क्या कोई नहीं था? आम तौर पर देश की नीति बनाने में जनता और जनप्रतिनिधियों की खास एहमियत होती है| इस विषय पर भाजपा प्रवक्ता ने कह कि “पार्टी के नेटवर्क मज़बूत हैं, इसलिए वे सरकार को ज़मीनी स्तर की सूचना पहुंचा पाते हैं”| यह अलग बात है की इस ज़मीनी हकीकत में उन्होंने ने इसका जायजा नहीं लिया की उनके द्वारा प्रस्तावित ज़मीन अधिग्रहण और रोज़गार की बढ़ती असुरक्षा का लोगों के जीवन पर क्या असर पड़ेगा|
जनसंगठनों के पक्ष से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सम्बंधित संगठन स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय मज़दूर संघ भी इसी प्रक्रिया में शामिल रहे, किन्तु मज़दूर हकों की बात करने की जगह उनकी देशभक्ति का मुख्य ज़ोर चीन का मुकाबला करने और किसी भी तरह विदेशी निवेश (अतः विदेशी मुनाफे) को बढ़ावा देने के पहलु पर ही रहा|