आसान और मुश्किल / राजेन्द्र राजन
कितना आसान है
किसी और मुल्क में हो रहे
जुल्म के खिलाफ बोलना
इस पर वे भी बोलते हैं
जो अपने मुल्क में तमाम सितम
चुपचाप देखते रहते हैं
कभी मुंह नही खोलते।
कितना आसान है
दूसरों को उदारता का पाठ पढ़ाना
इस धर्म के कट्टरपंथी भी
करते रहते हैं
उस धर्म के
कट्टरपंथ की निंदा।
कितना आसान है
महापुरुषों की तस्वीरों और प्रतिमाओं पर
फूल चढ़ाकर
अपनी जिम्मेदारियों से बचे रहना
हमारे समय के निठल्ले और कायर भी
गाते हैं पुरखों की वीरता के गीत
सुनाते हैं क्रांतिकारियों के किस्से।
कितना आसान है
अतीत के अत्याचारियों से लड़ना
हमारे समय के अत्याचारी भी
करते हैं अतीत के अत्याचारों की चर्चा।
कितना मुश्किल है
अपने गिरेबां में झांकना
खुद को कसौटी पर कसना।

पागलों का देश / स्वप्निल श्रीवास्तव
पागलों का एक देश था
सबसे बड़ा पागल उस मुल्क
का बादशाह था
अव्वल दर्जे के पागलों को
बड़े ओहदों से नवाजा
गया था
जिसके पास थोड़ी अक्ल थी
उसे पागलखाने में भेजने की
तैयारी की जा रही थी
नागरिकों को पागल बनाये जाने
के कई कारखाने चल रहे थे
उसमें से किसिम किसिम के पागल
पैदा हो रहे थे
पागलपन ही उस देश की
नागरिकता थी
जो पागल नही था उसे देश निकाला
दे दिया गया था
पागलों के बीच जो बातचीत
होती थी ,उसे विमर्श कह कर
महिमामण्डित किया जाता था
मनुष्यों की तरह नही थी
उनकी हरकते
उन्हें देखकर जंगल के बाशिंदे
हँसते थे
मानव जाति को हजारों साल
सभ्य होने में लगे थे
लेकिन कुछ सालों में उसने
असभ्य होने का रूतबा हासिल
कर लिया था।

राम- राज / संजीव माथुर
बात
शोकग्रस्त है
मुलाकातों को
लकवा मार गया है
संवाद
अपराध है
हमारे चारों ओर
ऐसा ही राम-राज है।
राज्य सत्ता
मदमस्त है
सरकार
अस्त-व्यस्त है
जनता
अभ्यस्त है
हमारे चारों ओर ऐसी ही राम-लीला चालू है।
संकट
संख्याग्रस्त है
तर्क विवेक
जीवन रिक्त हैं
हम
दिशा भ्रष्ट हैं
हमारे चारों ओर ऐसी ही राम इच्छा का योग है।

मैं स्वीकार करता हूं / राजेश मल्ल
मैं स्वीकार करता हूं कि
मैं इतना मनुष्य कभी भी नहीं बन पाया
की समझूं तुम्हारी सांस हमेशा क्यों घुटती रहती है।
यह कि बात करते समय तुम हमेशा छोटे क्यों दिखते हो।
मैं स्वीकार करता हूं कि
सारे प्रयासों के बावजूद
तुम गालियां और गलबहियां वाले साथी नहीं बन पाए।
सारी किताबें और कवायद निष्फल रहीं
इतनी सी बात जानने में कि मैं जन्मना श्रेष्ठ हूं
और बहुत बड़ी खाईं है हमारे बीच।
मैं यह ठीक से जानता हूं कि
इतना लिख भर देने से मै मनुष्य नहीं बन जाऊंगा
लेकिन और क्या बचा है स्वीकार करने के अतिरिक्त।
मैं स्वीकार करता हूं कि
बहुत देर हो चुकी है जब कि
बहुत सारा कालिख पोत चुकां हूं
अपने चेहरे पर
उनके हाथों से जो जन्मना हमारे अपने पाए गए थे।
बावजूद इसके मैं कोई दावा नहीं कर सकता
की तुम्हारे हाथों का संकोच
मेरे कंधों तक धरती में गाड़ दिया है
और मैं निष्कलुष हो गया हूं।
मैं स्वीकार करता हूं कि
बराबरी और आजादी की तमाम लड़ाई
बाहर से बहुत ज्यादा भीतर धंसी हुई है।
मैं स्वीकार करता हूं कि
कहना, लिखना और जीना एक साथ मुश्किल है
और तुम्हारी घुटती हुई सांस को
अपने भीतर की आत्मग्लानि से तुलना करना बेमानी है।
मैं स्वीकार करता हूं कि
फिर भी कुछ न कुछ ऐसा होगा
कि मैं भी मनुष्य बन सकूंगा सारे अपराधों के बावजूद।

लोहे का स्वाद / हुसैन हैदरी
लोहार ने पढ़ ली
सुदामा पांडे ‘धूमिल’ की कविता
और सीधा पहुँच गया अस्तबल
पूछने घोड़ों से ही
लोहे का स्वाद
कुछ ने हिनहिनाते हुए कहा
थोड़ा फीका
थोड़ा तीखा
थोड़ा कड़वा
कुछ ने पैर पटकते हुए कहा
थूक जैसा
ख़ून जैसा
पस जैसा
कुछ ने लगाम खींचते हुए कहा
ग़ुलामी का
विवशता का
क्रोध का
घोड़े चीख़ने लगे एक साथ
मच गया अस्तबल में शोर
और लोहार ने उठा लिया
लोहे का हथौड़ा
दे मारा
एक घोड़े के सर
फिर पूछा सन्नाटे में
“अब बताओ
धीमे स्वर में
शुद्ध भाषा में
शांति और प्रेम से
एकमत हो कर
लोहे का स्वाद”
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