अंधेर नगरी – 4 : इस सप्ताह की कविताएं !

Damantantr

पूछो तो कभी / रवि सिन्हा

किस हाल में बीतेंगे बचे साल तो पूछो
पूछो तो कभी ख़ुद का भी अहवाल तो पूछो

फ़ुरसत हो कभी दैरो-हरम से तो किसी रोज़
इस क़ौम की तारीख़ का इज्माल तो पूछो

सदियों से सफ़र में ही रहा मुल्के-ख़रामाँ
माज़ी से गिराँ-बार थकी चाल तो पूछो

दजला में भी गंगा में भी फेंकी हैं किताबें
ख़र पार हुए मंज़िले-दज्जाल तो पूछो

काँधे पे कोई तिफ़्ल कि काँधे पे कोई शाह
ये कौन है कंगाल-ओ-पामाल तो पूछो

(अहवाल – हाल; दैरो-हरम – मंदिर और मस्जिद; इज्माल – संक्षेप या सारांश; मुल्के-ख़रामाँ – धीरे-धीरे चलने वाला देश; माज़ी – अतीत; गिराँ-बार – बोझ से दबा हुआ; दजला – इराक की प्रसिद्ध नदी; ख़र – गधे; दज्जाल – ढोंगी मसीहा, शैतान; तिफ़्ल – बच्चा; पामाल – कुचला हुआ, बर्बाद)


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रेलें / राजाराम चौधरी

रेलें
धमनियाँ हैं शिराएँ हैं
देश के भौगोलिक नक्शे को
देखा होगा कभी तो
प्रादेशिक सीमाओं को फलागंती
सारे देश को छेक लेती हैं
रेल पथ रेखाएँ

खेतों जंगलों के बीच गुजरती
सीटी मारती
उल्टी दिशा में भागते पेड़ घर और गाँव
अगल बगल बैठे खड़े काम करते
किसानों मजदूरों को सलाम करती
शोर मचाते बच्चों की शरारतों पर मुस्कुराती
पटररियों पर दैड़ती भागती ही चली जाती हैं
स्टेशनों पर
मानों सांसो पर थोड़ा काबू पाती
यात्रियों को पानी भरने
प्लेटफार्म पर खड़े हो शरीर सीधा करने
का मौका देती
फिर सीटी मार आगे चल देती
हड़हड़ खड़खड़
पुलों पर नदी पार करती
पर्वतों के भीतर
अंधेरी सुरंगों से गुजरती
धाटियों में संकरे मार्गों पर सरकती
चलती ही चली जाती
धूपछांव बदलते मौसम
बदलते भूदृष्य
रंग कपड़ों के
स्टेशनों पर
कितनी ही भाषाओं में बातें करते लोग
रेलें पिरोती जाती है
संस्कृतियों की विविधताओं को
पटरियों के धागों में

रेलें निर्माण से
चरित्र से है राष्ट्रीय हैं
इनका निजीकरण हो ही नहीं सकता
क्या दूरसंचार की अवरचना का
निजीकरण किया तुमने
चतुर बाणिया हो तुम
तो सचेत कामगार हैं हम
खूब समझते हैं तुम्हारी चालाकियां
संचालन का अधिकार बेचने की मंशा
लाभ धन्नासेठों का
और हानि जनता के मत्थे
नहीं चलेगा
न हम भूल सकते हैं न तुम
उस देशव्यापी राष्ट्रीय रेल हड़ताल को
जिसने तुम्हारे भूतपूर्व की
सत्ता की चूलों को हिला दियाथा
याद है तभी तो पहले से ही
अघोषित इमर्जेंसी लगा रखी है
प्रशासन न्यायालय को बाँध लिया है मुट्ठी में
खरीद लिया है मीडिया को
कैद करते जाते हो
सवाल करने वाली आवाजों को
बहुत विश्वास है तुम्हें
अपने पाखंड पर
झूठे धर्म झूठी देश भक्ति
के धूम्रावरण को
जमीनी स्च्चाई तार तार कर देगी
फिर जाग रहें हैं मजदूर
और फिर होगी
देशव्यापी हड़तालें
जो तुम्हारी
भीतर से खोखली होती जाती
सत्ती सत्ता की चूलें
हिला कर रख देंगी
और तब हमारी
बनाई रेलें
हमारी होंगी


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केवल विकास गुनहगार है / पी सी तिवारी

विकास मारा गया
उसका मरना तय था।
अगर वह बच जाता
तो शायद हैरानी होती
उसके सीने में खादी- खाकी के
उज्जवल लिबास में लिपटे
माननीयों के अनेक राज़ रहे होंगे
यदि उनमें से कुछ
बाहर आ जाते तो?
जानते मानते सब हैं
पर कोरोना काल में
यह कहने का सही वक़्त है क्या?

इस फिल्मी पटकथा में
व्यवस्था के सभी कलाकारों ने
बेहतरीन अभिनय किया
अपराध, हत्या, कब्जा, विकास, तोड़फोड़,
मुकदमे, टेलीविजन बहसें
सवाल- जवाब,
टी आर पी, समर्पण
और फिर एनकाउंटर

कोरोना काल में
एक मुद्दे से दूसरे मुद्दे को मात देने का
यह शानदार सिलसिला जारी है
इसमें घर में बैठे- बैठे ऊब गए
लोगों को रोमांचित करने का,
फिल्म बनाने, संपादकीय लिखने,
इशारों- इशारों में पोल खोलने
फिर मिल- बैठकर दावत उड़ाने
के सुनहरे मौके हैं

कब एफ आई आर हुई ?
कब एनकाउंटर?
किसके ख़िलाफ़ रिपोर्ट लिखी जाएगी
किसे तमगा मिलेगा
किसे, कब, कितना
भगाया जाएगा?
सब माननीयों के अधिकार क्षेत्र में है
उनकी महिमा अपार है
पर आज का सच यही है
कि केवल विकास गुनहगार है।

(रचनाकार उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष हैं)


मारे जाने से / स्वप्निल श्रीवास्तव

एक आदमी के मारे जाने से
बहुत से लोग बच जाते हैं
बच जाता है थाना
अदालते बच जाती हैं
और प्राकान्तर से बच
जाती है सरकार

जो लोग उसे बचाते थे वे
अपने बचाव की मुद्रा में आ
जाते हैं

वह आदमी अपने रहस्य के साथ
मारा जाता है
उसका मारा जाना भी कम
रहस्यपूर्ण नही होता

मारे जाने के पहले वह नायक
होता है फिर खलनायक में बदल
जाता है
उसके किस्से गाये जाते हैं
कुछ समय के लिए लोककथाएं
अपदस्थ कर दी जाती है

उसके प्रभामण्डल के निर्माताओं
को चैन की नींद मिल जाती है
वे निर्भय हो जाते हैं

ऐसे ही हमारे समय में कोई न कोई
आदमी खतरनाक होने लगता है
उसके होने के खतरे बढ़ने लगते है

जब वह सत्ता से ज्यादा खतरनाक
होने लगता है- उसे मार दिया
जाता है ।


ख़तरा / आशुतोष कुमार

(कवि वरवर राव के परिवार की प्रेस कांफ्रेंस से उनकी सेहत की बेहद नाज़ुक हालत के बारे में पता चला है। अगर अस्सी साल के ज़ईफ़ कवि को जेल में कुछ होता है तो यह कस्टोडियल किलिंग कहलाएगा ही। उन्हें तुरंत जेल के बाहर किसी अच्छे हस्पताल में दाख़िल करने और रिहा करने की मुहिम जोर शोर से चलाई जाए। यह कविता उनकी गिरफ़्तारी के समय लिखी गई थी।)

बंदूक चलाने वालों से
कम ख़तरनाक
नहीं होते
कलम चलाने वाले
सरकार जानती है
सरकार बेवकूफ़ नहीं है
उसे अच्छी तरह मालूम हैं
कि बंदूक चलाने वालों को
कलम से खत्म किया जा सकता है
जबकि कलम चलाने वालों को
बंदूक से नहीं
दरअसल दुनिया की सबसे खौफ़नाक जेल भी
क़ैद नहीं कर सकती कविताओं को
विचार वायरस की तरह
अदृश्य बिख़र जाते हैं
अज्ञात शरणगाहों तक
संसार के सबसे सुरक्षित शख्स को
जान का खतरा है
कवि वरवर राव को
कोई ख़तरा नहीं है
वे चले जा रहे हैं नंगे पैर
जेल की तरफ
जहां घास के फूलों से नाराज़ तितलियाँ
उनका बेसब्री से इंतज़ार कर रही हैं
अंतिम फैसले के लिए
रेड लाइट पर रुके हुए बच्चे खुश हैं
कि कल क्लास नहीं होगी
वे हाथ हिलाकर विदा करते हैं
जेल जाते हुए अपने प्यारे टीचर को
जानते हुए कि
उदासी कितनी गहरी हो गयी है
भीतर ही भीतर