इस सप्ताह : आदित्य कमल की कविताएं !

उजाले सड़क पर उतरने लगे हैं / आदित्य कमल
रियाया को जब वो कुचलने लगे हैं
तो समझो कि दिन उनके ढलने लगे हैं !
सितम की तपिश की ये बेचैनियाँ हैं
शहर के शहर अब उबलने लगे हैं ।
सदियों के सोए हुए जग रहे हैं
दबे लोग करवट बदलने लगे हैं ।
सैलाब – सैलाब उमड़ा हुआ है
जमे दर्द सबके पिघलने लगे हैं ।
जिनकी आवाज़ें मसल दी गई थीं
वो सब चीखने ,शोर करने लगे हैं ।
अंधेरे जो हद से गुजरने लगे तो
उजाले सड़क पर उतरने लगे हैं ।

गोली मारो / आदित्य कमल
बच्चे भी उतरे हैं सड़क पर
गोली मारो…
जेल में ठूँसो पकड़-पकड़ कर
गोली मारो…
मांग रहे हैं शिक्षा-दीक्षा
गोली मारो…
अगर बच्चियाँ कहें सुरक्षा
गोली मारो…
जो सवाल करता है सच्चा
गोली मारो…
हर सवाल का उत्तर अच्छा
गोली मारो….
नौजवान सब हुए बेलाला
गोली मारो…
मुँह पर नहीं लगाते ताला
गोली मारो…
मज़दूरों की हालत ख़स्ता
गोली मारो…
उनका तो बिगड़ा है रस्ता
गोली मारो…
मांग रहे हैं बढ़ी मज़ूरी
गोली मारो…
उनकी मांग न होगी पूरी
गोली मारो..
ऐसे भी मरता किसान है
गोली मारो…
फतुही पहने है , बेजान है
गोली मारो…
सब देते हड़ताल की धमकी !
गोली मारो…
किसी को फ़िक्र नहीं वतन की
सबको , गोली मारो…
यहाँ पे क्या ख़ैरात खुला है ?
गोली मारो…
तेरा पेट ही कहाँ भरा है !
इनको , गोली मारो…
कौन नागरिक ? कीट-मकोड़े !
गोली मारो…
अरगाड़े में घेर के , कोड़े –
गोली मारो…
अरे , समस्या है तो है
गोली मारो…
बोलो भारत माँ की जै
और गोली मारो…!!

फिर / आदित्य कमल
लोहा ज़रा गलाओ फिर
फ़ौलादें ढलवाओ फिर ।
भट्ठी थोड़ी तेज़ करो
और आग सुलगाओ फिर ।
उनके तेवर आक्रामक
तुम भी सान चढ़ाओ फिर ।
दमन की लाठी तेज़ चली
अपने लोग जुटाओ फिर ।
चट्टानी कर लो एका
चलो भई, टकराओ फिर !
ख़ून के आँसू मत रोना
दर्द गीत हैं, गाओ फिर !
चीरो अब सन्नाटों को
नारे नए लगाओ फिर
तलवारें सर पर लटकीं
तो तलवार उठाओ फिर !
अभी लड़ाई लंबी है
साथी, हाथ बढ़ाओ फिर !
लाख कलम पर बंदिश हो
‘कमल’ ग़ज़ल सुनाओ फिर ।

देश सुरक्षित हाथों में है / आदित्य कमल
शासक कहता है – घबराओ मत
देश सुरक्षित हाथों में है !
उधर लोग मदमत्त झूमने लगते हैं
इधर लोग काँपते रहते हैं
देखते रहते हैं अपने को
देखते रहते हैं – वह हाथ
ताकते रहते हैं टुकुर-टुकुर देश !!
क्या सुरक्षित है यहाँ ?
करोड़ों लोगों की दो जून की रोटी
दिहाड़ी, काम-धाम
खेती-बाड़ी, नौकरी, रोजगार
बच्चे, बूढ़े, औरत, नौजवान
हमारी आत्मा, हमारी जान
शिक्षा-दीक्षा, स्वास्थ्य, सुकून
हमारी साँसें, हमारी आवाज
गली-रास्ता, मोहल्ला-समाज
क्या सुरक्षित है यहाँ ?
कौन सुरक्षित है यहाँ ?
हम बिल्कुल सुरक्षित नहीं हैं
तुम्हारे शासन में, लुटेरों !
यहाँ तो सुरक्षित है सिर्फ –
तुम्हारी लूट की बुनियाद
ज़हरीली नफ़रत और उन्माद
हवस का कीचड़-गाद।
ठगो मत हमें,
तुम्हारी पैदा की हुई हैं – असुरक्षाएँ
और उसपर फैलाते हो
असुरक्षा का और भी गहरा भय
फिर देते हो आश्वासन अभय का…
……… सुरक्षा का !
दरअसल तुम
अपने हाथ सुरक्षित करना चाहते हो, धूर्तो !
ताकि दबाए रख सको हमारी गर्दन
खींचते रहो धरती पर अपनी-अपनी लकीरें
गाड़े रहो अपने झंडे
गींजते रहो निजी संपत्ति की लिप्सा के लीद
और बचाए रख सको अपनी गद्दी !

हत्यारा / आदित्य कमल
इस हत्यारे समय में
होती रहती है हत्या, या फिर हत्याएँ
मौत तो आम है – कभी भी, कहीं भी ।
और आमतौर पर
दे दिए जाते हैं जाँच के आदेश भी
कर दिया जाता है ऐलान कि
दोषियों को हरगिज़ बख्शा नहीं जाएगा इस बार ।
लेकिन हत्याओं का सिलसिला
है कि थमता ही नहीं
अपराधों की बढ़ती ही जाती है कड़ी
मरते रहते हैं लोग….
यहाँ तक कि हो जाती है-हत्या
सबूत और गवाह तक की
यहाँ तक कि जांच करने वालों की भी
और फिर से शुरु होती है एक नई जांच
फिर सबूत, फिर गवाह
और फिर ……हत्या !
कोई साजिश है या यही है आम तरीका ?
सब आम ही है आजकल –
हत्याओं का सिलसिला भी
जांच का सिलसिला भी
हत्यारे के ‘अब तक ना पकड़े जाने’
का सिलसिला भी ……..!
और बार-बार यह दुहराना भी कि
दोषियों को हरगिज़ बख्शा नहीं जाएगा इस बार ।
क्या आपको पता है
कि इसकी कड़ी आखिर
कहाँ जाकर जुड़ती है ?
नहीं पता तो, पता तो करना होगा
करनी ही होगी शिनाख्त-असल हत्यारे की ।
ज़िंदगी कोई जासूसी फिल्म तो है नहीं,
कि अंत में पर्दा उठे और सामने आए -हत्यारा !
और तब हम भौंचक रह जाएँ — अरे !!!
अरे , वो तो इस बार भी ढिठाई से कह रहा है-
दोषियों को हरगिज़ बख्शा नहीं जाएगा इस बार !!