सत्य को लकवा मार गया है -इस सप्ताह की कविताएँ !

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मसला / वीरेन डंगवाल

बेईमान सजे-बजे हैं
तो क्या हम मान लें कि
बेईमानी भी एक सजावट है?

क़ातिल मज़े में हैं
तो क्या हम मान लें कि
क़त्ल करना मज़ेदार काम है?

मसला मनुष्य का है
इसलिए हम तो हरगिज नहीं मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही
बना है मनुष्य..


सत्य / नागार्जुन

सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह
पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से
टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए–जाए
सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता
पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात

सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है
कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सत्य को लकवा मार गया है

वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक
लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा
लोथ की तरह, स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!


जब एक पोस्टर का जीवन / कुमार अम्बुज

जिन चीजों के लिए हमें
एक मिनट का भी इंतजार नहीं करना चाहिए
उनके लिए हम एक साल, दस साल, बीस साल
न जाने कितने वर्षों तक इंतजार करते चले जाते हैं
जैसे प्रतीक्षा करना भी जीवन बिताने का कोई उपाय है
जब ऋतुओं के अंतराल में पतझर आता है
हम आदतन अगले मौसम का इंतजार करने लगते हैं
लेकिन देखते हैं हतप्रभ कि अरे, यह तो पलटकर
वापस आ गया है पतझर

सब कुछ नष्ट होते चले जाने के दृश्य
चारों तरफ चित्रावली की तरह दिखते हैं
मुड़कर देखने पर दूर तक कोई दिखाई नहीं देता
न किसी के साथ चलने की आवाज आती है
तो कुछ इच्छाएँ प्रकट होती हैं, कहती हैं हम अंतिम हैं
हमें एक पुराना नीला फूल खिलते हुए देखने दो
देर रात में उस लैम्पपोस्ट के नीचे से गुजरने दो
दोस्त के साथ बचपन के शहर में रात का चक्कर लगाओ
यह जानते हुए कि उस पौधे की प्रजाति खत्म हो चुकी है
लैम्पपोस्ट का कस्बा कब का डूब में आ गया
और दोस्त को गुजरे हुए बीत गया है एक जमाना
इच्छाओं से कहता हूँ: तुम अंतिम नहीं हो, असंभव हो

आगे चलते हुए वह एक अकेला बच्चा मिलता है
जो रास्ते में मरी एक चिड़िया को देखकर
इस तरह रोने बैठ जाता है
जैसे जिंदगी में पहली ही बार अनाथ हुआ हो
प्रतीक्षा भरी इस अनिश्चित दुनिया में
वह भोर के तारे को उगता हुआ देखता है
और उसे अस्त होते हुए भी
वह समझ लेता है कि यतीम होते चले जाने के
इस रास्ते से ही गुजरकर सबको निकलना है

सभ्यता की राह में फिर दिखती हैं वे दीवारें
जिन पर लगाये पोस्टर फाड़ दिए गए हैं
दरअसल, चलते-चलते हम आ गए हैं उस जगह
जहाँ एक पोस्टर तक का जीवन खतरे में है
और सबको अंदाजा हो जाता है
कि अब मनुष्यों का जीवन
और ज्यादा खतरे में पड़ चुका है।


इसे भी देखें –

https://mehnatkash.in/2020/05/25/this-week-poems-of-oppression-and-resistance/

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ! / डॉक्टर रूपरेखा वर्मा

वह बच गई
और पढ़ भी गई
पढ़ी तो इम्तिहान पास किया
और भी ढेर सा पढ़ डाला
ढेर सा और भी पढ़ डाला
तो जागरूक हो गयी
जागरूक हो गयी तो सवाल पूछने लगी
सवाल पूछने लगी
तो अपनी राय बनाने लगी
अपनी राय बनाने लगी
तो सरकार से टकरा गयी
और जेल में डाल दी गयी!



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