इस सप्ताह की कविताएँ : भूख से जूझते लोग (भाग-2)

रोटी और कालजयी कविता / रविन्द्र कुमार दास
सिर्फ़ भूखा व्यक्ति जानता हो
रोटी का महत्त्व
ऐसा नहीं है, रोटी का महत्त्व तो
वो भी जानता है जो पैदा करता है
भूखों के लिए रोटी
और वो भी, जो बेचता है रोटी
वो तो शायद सबसे अधिक जानता है
जो छीनता है भूखों से रोटी
कई बार भरे पेट को भी
आकर्षित करती है सोंधी खुशबू
रोटी की
भले ही उसे नहीं खाना हो पूरी रोटी
उस पर कब्ज़ा तो कर ही लेता है
पर अपने सामर्थ्य भर
जैसे ज़मीन पर गिरा सारा पानी
बहता ही नहीं
कुछ खो बिला भी जाता है
रोटी का एक खंड अर्थ भी
वैसे ही रोटी से छिटक कर
गुम जाता है अक्सर कालाबाज़ार में
अभी जब मैं लिख रहा हूँ रोटी
तो इसका विशेष अर्थ
आप कर दें भूख
और नष्ट कर दें कविता को
पाठ की इस स्वायत्तता को किया जाए
पुरस्कृत
इसमें भी कोई संशय नहीं
गोया साहूकार क्यों चाहे
कि रोटी का अर्थ निश्चित हो
आप ख़ुद को झकझोर कर जगाइए
और पूछिए
कि भूखा व्यक्ति रोटी की तलाश करेगा
या कविता लिखेगा
बड़ी होती है रोटी की तलाश
किसी भी कालजयी कविता से।

भात दे हरामी / रफीक आज़ाद
बेहद भूखा हूँ
पेट में, शरीर की पूरी परिधि में
महसूसता हूँ हर पल, सब कुछ निगल जाने वाली एक भूख।
बिना बरसात के ज्यों चैत की फसलों वाली खेतों मे जल उठती है भयानक आग
ठीक वैसी ही आग से जलता है पूरा शरीर।
महज दो वक़्त दो मुट्ठी भात मिले, बस और कोई मांग नहीं है मेरी।
लोग तो न जाने क्या क्या मांग लेते हैं
वैसे सभी मांगते हैं
मकान, गाड़ी, रूपए पैसे, कुछेक में प्रसिद्धि का लोभ भी है।
पर मेरी तो बस एक छोटी सी मांग है, भूख से जला जाता है पेट का प्रांतर
भात चाहिए, यह मेरी सीधी सरल सी मांग है, ठंडा हो या गरम
महीन हो या खासा मोटा या राशन में मिलने वाले लाल चावल का बना भात,
कोई शिकायत नहीं होगी मुझे, एक मिटटी का सकोरा भरा भात चाहिये मुझे।
दो वक़्त दो मुट्ठी भात मिल जाये तो मैं अपनी समस्त मांगों से मुंह फ़ेर लूँगा।
अकारण मुझे किसी चीज़ का लालच नहीं है, यहाँ तक की यौन क्षुधा भी नहीं है मुझ में
ये जान लो कि मुझे इन सब की कोई जरुरत नहीं
पर अगर पूरी न कर सको मेरी इत्ती सी मांग
तुम्हारे पूरे मुल्क मे बवाल मच जायेगा,
भूखे के पास नहीं होता है कुछ भला बुरा, कायदे कानून
सामने जो कुछ मिलेगा खा जाऊँगा बिना किसी रोक टोक के
बचेगा कुछ भी नहीं, सब कुछ स्वाहा हो जायेगा निवालों के साथ
और मान लो गर पड़ जाओ तुम मेरे सामने
राक्षसी भूख के लिए परम स्वादिष्ट भोज्य बन जाओगे तुम।
सब कुछ निगल लेने वाली महज़ भात की भूख
खतरनाक नतीजों को साथ लेकर आने को न्योतती है
दृश्य से द्रष्टा तक की प्रवहमानता को चट कर जाती है।
और अंत मे सिलसिलेवार मैं खाऊंगा पेड़ पौधें, नदी नालें
गाँव देहात, फुटपाथ, गंदे नाली का बहाव
झंडा ऊंचा किये खाद्य मंत्री और मंत्री की गाड़ी
आज मेरी भूख के सामने कुछ भी न खाने लायक नहीं
भात दे हरामी, वर्ना मैं चबा जाऊँगा समूचा मानचित्र।
(अनुवाद – अशोक भौमिक)

बच्चों की तुकबंदी / गुंठर ग्रास
कौन हँसा, कौन हँसा, हँसा तो फँसा,
हँसना मना हो जहाँ वहाँ क्यों हँसा?
हँसा तो समझो देशद्रोह में फँसा
कोई तो वजह थी तभी तो हँसा।
रोया कौन, रोया कौन, रोने की मनाही है,
रोना गुनाह है – रोना तबाही है –
फिर भी कभी कभी तो रोना पड़ता ही है
ऐसे में कोई वजह रोना रखता ही है।
किसका मुँह बंद रहा? किसने मुँह खोला?
गूँगा ज़रूर कोई ग़लत बात बोला।
बोलने का मतलब है असलियत छुपाना
भीतर के भेद को बाहर से दबाना।
बालू पर खेल रहे कौन जीत हार से?
हारे खिलाड़ी हम खड़े हैं क़तार से
खेल से निकले हुए, लग कर दीवार से
हाथ जला बैठ गये हैं हम लाचार से
कौन मरा? किसने की मरने की हिम्मत
“कोई भगोड़ा था”, बोले हम एकमत।
बिल्कुल बेदाग़ मरा – कैसी यह ज़िल्लत –
कितनी बेकार मौत – कितनी बेलज्ज़त….
(अनुवाद – कुंवर नारायण)

भूख से डर लगता है / हूबनाथ पांडेय
मौत से डर नहीं लगता
साहब
भूख से डर लगता है
मौत से तो रोज़ की
आंख मिचौली है
गटर की सुरंग में
निहत्थे उतरते हैं
तो मौत साथ होती है
जब उठाते हैं मैला
बटोरते हैं गंदगी
सभ्य समाज की
बिना किसी सुरक्षा साधनों के
तो हाथ मिलाते हैं मौत से
कचरे में से बीनते हैं
काग़ज़ प्लास्टिक बोतल
तो दस्ताने नहीं होते
बजबजाते नाले पर
पकाते हैं भोजन
वहीं खेलते हैं बच्चे
बिना किसी सेनेटाइजेशन
बरसों से
करघे पर उंगलियां
मौत से खेलती हैं
तब जनमते हैं ख़ूबसूरत
कालीन साड़ियां शाल
पर पेट तब भी नहीं भरता
सूअर के दड़बे से भी
भयानक हैं साहब
हमारे घर
आपका बाथरूम भी
इससे बड़ा होगा
और हवादार
और साफ़ भी
फिर भी हम काट रहें हैं
एक एक पल साल की तरह
कि जानलेवा बीमारी से
बचे रहें आप सब
हमारा क्या
मौत तो हमारे घर में भी
और बाहर भी
इसलिए मौत से डर नहीं
साहब
डर तो भूख का है
जिसका इलाज फ़िलहाल
ऊपरवाले के पास भी नहीं।

भूख-प्यास / चन्द्र
दिनभर हाड़-तोड़ खटने के बाद
जब रोटी भी नसीब नहीं होती
कविता खाना नहीं बनती
सभ्यता के मुहाने पर संगमरमर के पत्थर
लोहे की गिटार की तरह रोते हैं
मज़दूरों की याद में
अक्षर चूल्हे नहीं बनते
शब्द पानी नहीं बनते
मेहनतकश की ज़िन्दगी
मुर्दहिया की तरह बन जाती है
और भाषा कुछ नहीं बोलती तो
देश की अवारी पूँजीपति देहें
चभर-चभर दही चाभती हैं पगुराती हुई
अन्न-जल से भरे गाभिन गाय की तरह
और अंडानी की पत्नियाँ
सोने के कप में चाय पीते हुए चाँदी काटती हैं और कहती हैं
भूखे हो ओ खेतों में चाम को बेदाम में दान करने वाले!
इसलिए तो मैं कहता हूँ
धरती के छाती में छिहत्तर इंची छेद कर
क से ज्ञ तक के ज्ञान भी
उड़ती हुई राख के समान होते हैं भूख में!
क्योंकि तुम्हारे ये पीलपीले राष्ट्रवाद के प्यार से
भूख-प्यास बड़े हैं
बहुत बड़े
जो कि “नदियों के बीच पुल धँसाने का काम किए
जंगल काटकर हल बनाए
खेती किए
कोयले की खदान में रक्तदान किए
ईंटों और पत्थरों के बीच छिलाई हुई ऊँगलियों के रिसते
खूनों से
देश लोक की अमर कविताएँ लिख दिए
डिब्रूगढ़ में चाय के बागान लहरा दिए
कलकत्ता-बिहार में विदेसिया गीत गवा दिए”
जाने क्या क्या करवा दिए
ऐसे मेरे मज़दूर बाबा कहते थे
कहते थे कि बाबू!”ई भुखड़ पेट ना रहीत त गाँव से शहर से
नगर से जिला से केवनो कोर्ट से वोट से तहसील से कचहरी- किला से भेंट ना होईत
धरती पर ना खेत रहीत”
और कहते थे
कि बाबू!
ई भूख है
प्यास है
कबीर की बानी नहीं
इस अथाह वेदना की वेदी को तीन लोक
चौदह भवन के मालिक भी नहीं समझ पाएँगे,
ए बाबू !

शहर और गांव / महेन्द्र ‘आज़ाद’
जब गांवों से लोग बाहर निकले
तो उन्होंने मिलकर बनाए
कस्बे
नगर और फिर
शहर;
कुछ लोग शहर बनाने में मशगूल रहे
तो कुछ उनमें रहने लगे
रहने वाले लोग अब शहरी थे.
शहर बनाने वाले लोग
प्रवासी ही रहे
वो साल में
एक-आध बार लौटते थे गांव
तीज-त्योहार के लिए
बीज बोने के लिए
फसल काटने के लिए
और फिर
किसी रेलगाड़ी,
बस,
टेक्सी में लदकर
निकल जाते
शहर के लिए
ताकि कमा सकें
कुछ रोटियां
थोड़ा सा भात
और कर सकें नून-तेल का इन्तजाम;
वैसे भी गांव में उगता ही कितना है
जमीन और उसका पानी
शैतान ने पहले ही हथिया लिया
कुछ डुबो दिया
कहीं पाट दिया सीमेंट से
कहीं गाड़ दिए इस्पात के मोटे-मोटे सरिये
अब कुछ उगता भी है तो
साल भर खाने को भरपूर नहीं
और कुछ बिकता भी है तो बहुत कम दाम पर;
आज जब फैलती है बिमारी
जिसे लोग कहने लगते हैं महामारी
शहर के शहर बन्द हो गए
वो शहरी अपने घरों में छुप गए
पर ये शहर को बनाने वाले लोग
जिनके पास शहरी जरूरत की हर चीज बनाने का हुनर है
उनको नहीं मिलता कोई काम
बेघर और खाली पेट
अपनी हिम्मत के सहारे
निकल पड़ते हैं अनन्त यात्रा पर
जिस यात्रा की मंजिल तो गांव है
लेकिन हर पड़ाव तक का सफ़र अनिश्चितता से भरा
फिर भी कदम दर कदम उन मलवे के ढेरों को पार करते
जिनमें निर्जीव सांसे चल रही हैं;
वो अपने हाथों को देखता
और देखता अपने हाथों से बनी हुई चीजें
फिर सोचता ये सब एक मिथ्या है
जैसे
केनवास पर पेंटर की पेंटिंग
कवि के उकेरे शब्दों की किताब
काम के बीच में सूरती का एक डोज़
बीड़ी का धुआं भरा कश
ईश्वर से की गई प्रार्थना
काम के दौरान की पगार
थकान के बाद की सस्ती सी शराब।