जन्मदिवस पर: सिर्फ भक्ति नहीं, मुक्ति आंदोलन है रविदास की परंपरा

रविदास के समता और मुक्ति के विचार को तमाम हमलों से बचाना है और बेगमपुरा की राह पर, मेहनतकश आवाम के मुक्ति आंदोलन का अभिन्न हिस्सा बनाते हुए, उनको जन-परंपरा में स्थापित करना है।
[आज रविदास के महान विचार फिर से खूब प्रचलित हो रहे हैं, लेकिन उनको सांप्रदायिक और जातिवादी खेमे में क़ैद किया जा रहा है। रविदास ने बस खुद के भीतर नहीं, समाज के ढांचे में दुख के कारण ढूँढे। 600 साल पहले ही उन्होंने मेहनत की लूट, जुल्म का राज, जाति-धर्म-लिंग के नाम पर भेदभाव, बंटवारा, नफरत और अत्याचार के खिलाफ लड़कर एक बराबरी का समाज बनाने की कोशिशें की थीं। आज हमारी जरूरत और जिम्मेदारी है कि हम रविदास के विचारों पर चर्चा करें और उनके संघर्ष को आगे बढ़ाएँ।
[आज रविदास के महान विचार फिर से खूब प्रचलित हो रहे हैं, लेकिन इस दौर में एक बड़ा खतरा यह मंडरा रहा है कि तीखे सांप्रदायिक और जातिवादी माहौल और हमले का सशक्त प्रतिरोध खड़ा करने की कोशिश में ये खुद भी जातीय घेरों में सिमट जाए, संप्रदायों में बंट जाए और धार्मिक कट्टरता में फंस जाए। ऐसे में रविदास को उनके वास्तविक रूप में, विचारों में और उनके दृष्टिकोड को जानना-समझना आज पहले से ज्यादा ज़रूरी हो गया है।
रविदास (रैदास) का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1433 को हुआ था। उनका एक दोहा प्रचलित है- चौदह सौ तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास। इस लिहाज से इस साल (2025) उनका जन्मदिवस 12 फरवरी है। इस अवसर पर रविदास से सही अर्थों में परिचित होने की दृष्टि से ‘मेहनतकश’ पाठकों के लिए रविदास जन्मोत्सव समिति, जयपुर द्वारा 2024 में जारी एक अहम लेख हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। -संपादक]

अब मैं हरियो रे भाई।
थकित भयौ गाइण अरु नाचण, थाकी सेवा पूजा।
रांम जन होउ न भगत कहाँऊँ, चरन पखालूँ न देवा।
जोई-जोई करौ उलटि मोहि बाधै, ताथैं निकटि न भेवा।।२।।
पहली ग्यांन का कीया चांदिणां, पीछैं दीया बुझाई।
सुनि सहज मैं दोऊ त्यागे, राम कहूँ न खुदाई।।३।।
दूरि बसै षट क्रम सकल अरु, दूरिब कीन्हे सेऊ।
ग्यान ध्यानं दोऊ दूरि कीन्हे, दूरिब छाड़े तेऊ।।४।।
पंचू थकित भये जहाँ-तहाँ, जहाँ-तहाँ थिति पाई।
जा करनि मैं दौर्यौ फिरतौ, सो अब घट मैं पाई।।५।।
पंचू मेरी सखी सहेली, तिनि निधि दई दिखाई।
अब मन फूलि भयौ जग महियां, उलटि आप मैं समाई।।६।।
चलत चलत मेरौ निज मन थाक्यौ, अब मोपैं चल्यौ न जाई।
सांई सहजि मिल्यौ सोई सनमुख, कहै रैदास बताई।।७।।
इस बाणी में रविदास खुद को अपने समय तक के लगभग सारे ही भारतीय दर्शन से पृथक होते हुए कह रहे हैं कि उन की तमाम खोज भौतिक शरीर में ही आ कर खतम हुई है। दुनिया का सत्य उतना है जितना पांचों इंद्रियों से अनुभव किया जा सकता है। इस जग में ही मन फल-फूल रहा है और साथी वो है जो सामने है। इसका तो यही अर्थ है कि रविदास की दर्शन की खोज भौतिकवाद के किसी एक रूप में आ कर खतम हुई। लेकिन रविदास पर जितना भी काम मिलता है, वो सब उन्हें रहस्यवादी कहता है, और बस जातिविरोधी आदर्श के आस-पास घूमता हुआ दिखता है।
रविदास के खुद के और उनके बार में जो साहित्य और कलकृतियाँ उपलब्ध हैं, उन सब के प्रचलित अर्थ अक्सर सरलीकरण का शिकार लगते हैं। ऐसा महसूस होता है कि रविदास के दर्शन पर गहन अध्ययन की आवश्यकता है। फिलहाल एक शुरुवाती अध्ययन की कोशिश हम इस लेख में करेंगे।
रविदास का समय
मध्यकाल में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म का रूढ़िवादी, कट्टर रूप प्रचलित था। धर्म से काम-धंधा, रहन-सहन, राज-पाठ, मान-सम्मान सब तय होता था, लेकिन धर्म पर संस्कृत/अरबी जानने वाले कुछ “ऊंचे कुल” और “ऊंची जाति” के लोगों का कब्जा था। धार्मिक कट्टरता, धार्मिक नफरत, जातिवाद, ऊंच-नीच, छुआछूत, पितृसत्ता, को सबसे घृणित तरीके से करने वाला सबसे श्रेष्ठ माना जाता था।
साथ ही कई लोगों के लिए हिन्दू धर्म के मूल में निहित पदानुक्रमित वर्ण व्यवस्था अनुसार धर्म को छूने का अधिकार नहीं था। इस्लाम में भी यूं तो कोई भी कुरान पढ़ सकता था और मस्जिद जा सकता था, पर कुरान की व्याख्या खुद करने का अधिकार यहाँ भी नहीं था। हिन्दू और मुस्लिम बस्तियों-गाँव-मोहल्लों में कुल और जाति आधारित बंटवारा साफ देखा जा सकता था।
हर धर्म के लोग अपने ईश्वर को बाकी तमाम लोगों के ईश्वर से ऊपर मानते थे, भाईचारे और अपनापन अपने ही कुल, धर्म, बिरादरी, जाति या राज्य तक सीमित थे।
“वासुदेव कुटुंबकुम”, “आदमजात” ऐसी बातें धार्मिक उद्घोषणाओं में बोली जाती थीं, लेकिन इंसानियत की ऐसी कोई परिभाषा समाज में नहीं थी जिसमें सारे इंसान आ जाएँ। ये एक विशेष प्रकार का पार्थक्य या अलहदापन था, जिसे अंग्रेजी में ‘एपार्थाइड’ कहते हैं।
‘पार्थक्य’ को दुनिया भर में मानव सभ्यता की सबसे घृणित अभिव्यक्तियों में से एक माना जाता है। आडंबर, पाखंड, अंधविश्वास, जातिवाद, नस्लवाद, संप्रदायवाद, पितृसत्ता, दासता, बंटवारा, भेदभाव, दूरी, रंगभेद, ऊंच-नीच, दंडात्मक अनुशासन, नसली सफाया और नरसंहार; ये सब इस ‘पार्थक्य’ की आम अभिव्यक्ति माने जाते हैं; जो सबके सब यहाँ मौजूद थे।
अगर हम गौर से देखें तो हम पाते हैं कि महान भारतीय संस्कृति ब्राह्मणवादी वैदिक परंपरा नहीं है, महान भारतीय सांस्कृति कट्टर हिन्दू धर्म और कट्टर मुस्लिम धर्म में शांतिपूर्ण सहवास वाली संस्कृति भी नहीं है। महान भारतीय सांस्कृति है – भारतीय उपमहाद्वीप के सदियों पुराने ‘पार्थक्य’ के खिलाफ यहाँ के करोड़ों गरीब, मेहनतकश, शोषित, दमित, “अशिक्षित” “छोटे” “नीचे” बंदहिजासु का निरंतर संघर्ष।
भक्ति आंदोलन और उसके सामाजिक पहलू
(रविदास की बाणी में)
मध्यकाल में इस पार्थक्य के खिलाफ एक व्यापक संघर्ष उभरा, जिसे आज भक्ति आंदोलन के नाम से जाना जाता है। भक्ति आंदोलन कई सदियों तक पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला हुआ नजर आता है। भक्ति आंदोलन के विचारकों को संत कहा जाता था।
भक्ति आंदोलन के विचारकों की बाणियों में हमें भारतीय उपमहाद्वीप के सदियों पुराने ‘पार्थक्य’ का तीखा विरोध मिलता है। संस्कृत और अरबी के वर्चस्व को तोड़ कर भक्ति आंदोलन सरल क्षेत्रीय भाषाओं में एक बेहतरीन दर्शन को लाया। जटिल कर्मकांडों और पोथियों से निकाल कर दर्शन को सत्संग, कीर्तन, भजन, कव्वाली, दोहों जैसी रचनात्मक शैली के जरिए जन-जन तक ले गया; और बिना किसी भेदभाव के हर जाति, लिंग, नस्ल, वर्ग, क्षेत्र, व्यवसाय के लोगों के अनुभवों के समावेश का रास्ता खोल कर सच्चे रूप में एक जनदर्शन के फलने-फूलने का एक जरिया बना।
पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन सौं, कौन करैहै प्रीत॥
[ गुलामी, दूसरों पे निर्भर रहना, सबसे बड़ा पाप है और गुलाम पर कोई दया कर सकता है, अच्छा बर्ताव भी कर सकता है, लेकिन गुलाम से कोई प्रेम नहीं कर सकता। ]
गंगा-स्नान करने से पाप धुलते हैं, इसके जवाब में रविदास की उक्ति है:
“मन चंगा तो कठौती में गंगा”
ये मात्र एक धार्मिक सुधारवादी संघर्ष नहीं था, ये तो तमाम संगठित-धर्मों के ही खिलाफ एक नए “सहज” इंसान की तलाश थी।
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा
[कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव; जब इनमें से किसी एक को देखने की बजाए सबको देखा, तो इनमें से किसी एक को भी वेद, कुरान, पुराण आदि के साथ सहज नहीं पाया]
न ही ये आंदोलन आध्यात्म तक सीमित था। इस आंदोलन में सामाजिक बदलाव का पहलू बहुत शक्तिशाली है। धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता और जातिवाद के जाल से इसने भारत के असंख्य लोगों के जीवन के कई पहलुओं को मुक्ति दिलाई। ईश्वर और ईश्वर के प्रतिनिधियों और ईश्वरीय किताबों की बात मानने वाले सेवक के रूप से हटकर, भक्ति आंदोलन एक ऐसा दर्शन पेश करता है जिसमें इंसान की जगह ईश्वर के साथ या उससे ऊपर या उससे स्वतंत्र है।
जीवन जीने और संसार को समझने के लिए इंसान को किसी बिचौलिये की जरूरत नहीं है, उसका खुद का अनुभव और श्रम ही काफी है। जिस युग में वर्चस्वशाली लोग अपने चाटुकारों से अग्निकुंड, सूर्य, चंद्र से शुरू होने वाली वंशावलियाँ लिखा कर खुद की ईश्वरीय उत्पत्ति बताते हुए सत्ता का धार्मिक अधिकारी बताते हों, उस युग में मेहनतकश विचारकों का करोड़ों लोगों द्वारा “माहराज” कहलाना एक आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनैतिक हस्तक्षेप बेशक है। इंसान को कारक से कर्ता में परिवर्तित करता नजर आता है यह महान भारतीय जनदर्शन।
रविदास की बाणी सिर्फ जातिगत ऊंच-नीच पर ही चोट नहीं, पूरी जाति-व्यवस्था को ही एकता और मानवता के खिलाफ बताती है।
ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन।
पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीण ।।
[ किसी गुणहीन व्यक्ति का सिर्फ इसलिए सम्मान नहीं करना चाहिए क्योंकि वह किसी ऊंची जाति में जन्मा है। अगर कोई व्यक्ति गुणवान है तो उसका सम्मान करना चाहिए, भले ही वह कथित नीची जाति से हो]
जात-जात में जात है, ज्यों केलन के पात ।
रैदास मनुस न जुड़ सके, जब तक जात न जात ।।
जात-पात के फेर में उलझत हैं सब लोग ।
मानवता को खा रहा रैदास जात का रोग ।।
भक्ति आंदोलन के सभी विचारक कोरे संत नहीं थे, कबीर साहब कपड़ा बुनते थे, रविदास साहब चमड़े और जूते का काम करते थे, सेन साहब बाल काटते थे, दादू साहब रुई कातते थे, नवल साहब सफाई का काम करते थे। इन्होंने श्रम के सम्मान की बात ही नहीं की, शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम की दूरी को भी जीवंत चुनौती दी, साथ ही श्रम के मूल्य की बात की और श्रम को मानव प्रकृति बताया।
लगभग हर धर्म की सीख है कि केवल कर्म किये जा, फल की इच्छा न कर। रविदास श्रम के इस अपमान का खंडन करते हैं:
“करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस
कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रैदास”
[आदमी को हमेशा श्रम करते रहना चाहिए, कभी भी मेहनत के बदले मिलने वाले फल की आशा नही छोड़नी चाहिए। श्रम करना मनुष्य की प्रकृति है और रैदास कहते हैं कि इस बात को करके सत्य प्रमाणित भी कर सकते हैं।]
धार्मिक कट्टरता और धार्मिक नफरत का ही विरोध ही नहीं, रविदास धर्म के तमाम धार्मिक स्थलों और कर्मकांडों को बेकार बताते हैं, लेकिन फिर भी सहिष्णु हैं।
मस्जिद सों कुछ घिन नहीं, मंदिर सों नहीं पिआर।
दोए मंह अल्लाह राम नहीं, कहै रैदास चमार॥
जब सब करि दोए हाथ पग, दोए नैन दोए कान।
रैदास प्रथक कैसे भये, हिन्दू मुसलमान॥
बल्कि रविदास धर्म की पूरी अर्थव्यवस्था के खिलाफ ही विद्रोह करते हैं:
बांभन झूठा, वेद भी झूठा, झूठा ब्रह्म अकेला रे
मंदिर भीतर मूरति बैठी, पूजत बाहर चेला रे
लड्डू भोग चढावति जनता, मूरति के ढिंग केला रे
पत्थर मूरति कछु न खाती, खाते बांभन चेला रे
जनता लूटति बांभन सारे, प्रभु जी देति न धेला रे
पुन्य पाप या पुनर्जन्म का, बांभन दीन्हा खेला रे
स्वर्ग नरक बैकुंठ पधारो, गुरु शिष्य या चेला रे
जितना दान देवगे जैसा, वैसा निकरै तेला रे
बांभन जाति सभी बहकावे, जन्ह तंह मचै बबेला रे
छोड़ि के बांभन आ संग मेरे, कह विद्रोहि अकेला रे
ये उच्च वर्ग का सांस्कृतिक और राजनैतिक वर्चस्व ही है जो भक्ति आंदोलन के सामाजिक पहलू को इतना छोटा करके पेश करता आया है। जैसे कि संत शब्द की व्याख्या को हिन्दू आध्यात्मिक गुरु तक सीमित करके ब्रह्मणवाद के दायरे में लाना, जबकि खुद रविदास ने ‘संत-साधु’ और ‘ऋषि-मुनि’ को अलग कहा है। ‘संत’ का मूल अर्थ ‘सद्’ है, और मूल अर्थ ‘सत्य को जानने वाला’ है। ‘साधो’ शब्द का इस्तेमाल भी रविदास ने ‘साधक’ के रूप में किया है, ‘सत्य की खोज करने वाले’ के रूप में।
रविदास की परंपरा के विचारकों को साहब भी कहा जाता था। साहब अरबी का शब्द है, जिसका मूल अर्थ है ‘साथ देने वाला’। रविदास की परंपरा से जुड़े शब्दों और बणियों की व्याख्या करते समय इसी परंपरा के भीतर ही अर्थों का चयन करना चाहिए, इसी परंपरा के तर्क-विधा का इस्तेमाल करना चाहिए, न कि उस संस्कृति और तर्क विधा का जिसका रविदास की परंपरा ने सदा विरोध और खंडन किया है। विखंडन इस तर्क विधा का अभिन्न पहलू है।
मेहनतकशों के ‘संत’ रैदास
रैदास जाति से “चमार” थे और ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था अनुसार “अछूत” थे। “अछूतों” को धर्म को छूना भी मना था, वैदिक श्लोक सुन लेने पर कान में गरम तेल डालने जैसी सजा की बात की वकालत मनुस्मृति जैसी संहिताओं में उल्लेखित हैं। साथ ही समाज में “ढोल, गंवार, शूद्र , पशु, नारी” को “ताड़ना के अधिकारी” बताने वाली “प्रभु” द्वारा बनाई “मर्यादा” प्रचलित थी।
रविदास ने न सिर्फ इस सीमा को लांघ कर धर्म पर हर व्यक्ति का अधिकार बताया, महिलाओं को अपने शिष्यों के रूप में और विचारकों के रूप में स्वीकार किया, बल्कि धर्म की परिभाषाओं को भी अपने अनुभव अनुसार ढाला। चमड़े-जूते का अपना काम करते हुए उन्होंने श्रमिक और वैचारिक जीवन की दूरी को भी चुनौती दी।
जातिवाद और गरीबी से उत्पन्न अमानवीयकरण को रविदास साफ शब्दों में कहते हैं और ये कहते हैं कि भक्ति आंदोलन के दर्शन में वो शक्ति है कि दमित-शोषित वर्ग अपनी मानवता को वापस हासिल कर सके। उनकी बाणी को सिख धर्म के ग्रंथ में बहुत बड़ी जगह दी गई और गुरुमुखी लिपि के कई अक्षर भी उन्होंने बनाए।
जा देखे घिन उपजै, नरक कुंड में बास
प्रेम भगति सों ऊधरे, प्रगटत जन रैदास
[ जिसे देखने से लोगों को घृणा आती, जिनका जीवन स्तर इतना दयनीय है कि नर्क-कुंड के समान है, उसी जगह प्रेम और भक्ति का दर्शन पहुंचता है तो वहीं पर नजर आता है कि रैदास भी मनुष्य है।]
15 वीं और 16 वीं शताब्दी में जनमें और प्रचलित हुए रैदास का जन्म बनारस में हुआ और वे चमड़े का काम करते थे। उस समय शहरों में कारीगरी से जुड़े उद्योग पनप रहे थे और इसी कारण शहरों में विभिन्न जातियों और धर्मों से आनेवाले कारीगर आपस में घुल-मिल रहे थे।
व्यापार के बढ़ने के साथ ये कारीगर दूर-दूर की यात्राएँ करते और अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न समुदायों के संपर्क में आते। इससे न सिर्फ इनका जीवन स्तर बेहतर हुआ और इन्हें विचार-विमर्श का मौका मिला, बल्कि इन्हें दुनिया की एक व्यापक तस्वीर भी मिली। शायद यही कारण है कि ये शोषण-दमन भरी जड़-सत्य की उस तस्वीर को तोड़ पाए जो सीमित अनुभव के कारण आम लोगों को अपने-अपने गाँव में अपनी अलग बस्तियों, व्यवसायों, सामाजिक श्रेणियों और आर्थिक संबंधों में बांधे हुए थी।
रविदास का ‘बेगमपुरा’
कबीर और रविदास उन भक्ति विचारकों में मुख्य हैं जिन्होंने भक्ति आंदोलन में उपस्थित विद्रोह को आगे बढ़ा कर, समता युक्त समाज के निर्माण के लिए एक प्रस्तावना और खाका पेश किया। कबीर का आदर्शलोक है अमरदेश और रविदास का आदर्शलोक है ‘बेगमपुरा’।
“कुछ ही समय बाद तुलसीदास ने बेगमपुरा और अमरदेस को ख़ारिज करते हुए “गौ -द्विज हितकारी ” रामराज की अवधारणा रखी।” यानि ये नए समाज के खाके उस समय भी प्रचलित और प्रभावशाली रहे होंगे, वरना एक बुनकर और एक “चमार” क्या कह रहा है, इससे उच्च जाति और वर्ग को फरक यूँही नहीं पड़ता। “भक्ति संतों के सराय/गादि सिर्फ ठहरने की जगह नहीं बल्कि इस नए समता युक्त समाज के अभ्यास के स्थान थे, जहां दमित-शोषित वर्ग द्वारा सामूहिक आवास, शिक्षा, विचार विमर्श, न्याय, सामूहिक रसाई, सामूहिक अर्थव्यवस्था आदि तमाम तरह के अभ्यास किये जाते थे।
सूफी ‘दरगाह’, सिख ‘दरबार’, नाथपंथी ‘थान’, अन्य लोक विचारकों के ‘गोट’ व ‘मेले’ आदि सब की मूल अवधारणा और संरचना कुछ-कुछ ऐसी ही है। कल्ले खाँ के ‘सराय’ के विभिन्न ढांचे आज भी पूरी दिल्ली के कई हिस्सों में फैले मिलते हैं, इनसे हमें ‘सराय’ के अर्थ को नए नजरिए से देखने की जरूरत महसूस होती है। जहां ब्राह्मणवादी व्यवस्था में साथ खाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है, वहीं दरगाह और दरबार में होने वाले लंगरों में मिल कर खाना समता का अभ्यास है और भोजन मूलभूत मानव अधिकार। वहाँ सामूहिक अर्थव्यवस्था, जो बाजार के भीतर होते हुए भी सत्ता के कब्जे में नहीं है, जनता के एक अलग ढांचे में संरक्षण पाती है।
जनता की सामूहिकता से निकली कला जो सबसे कमजोर तबकों के बीच उपस्थित संसाधनों के माध्यम से ही उमदा वैचारिक विमर्श और सामाजिक विकास का जरिया बनती है। सामूहिक विमर्श और अभ्यास से पनपती एक संस्कृति जो जड़ नहीं है और जिसमें हर तबके के लोग लगातार अपने अनुभव जोड़ते रहते हैं। ये सब बहुत ही शक्तिशाली औज़ार हैं।
ये बात जनता, यानि हम और आप, चाहे भूल गए हों, सत्ता ये बात अच्छी तरह समझती है और अच्छी तरह याद रखती है। तभी तो आज इन तमाम जन-विचारकों के सामाजिक पहलू को भुलाने और इन्हें अध्यात्म के दायरे में समेटने की कोशिश की जा रही है।

सामाजवादी आदर्शलोक के प्रथम विचारक
बेगमपुरा: बे-गम-पुरा, जहां कोई गम नहीं है
बेगमपुरा सहर को नाउ, दुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ।
ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफुन खता न तरसु जुवालु।
अब मोहि खूब बतन गह पाई, ऊहां खैरि सदा मेरे भाई।
काइमु-दाइमु सदा पातिसाही, दोम न सोम एक सो आही।
आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहि मामूर।
तिउ तिउ सैल करहिजिउ भावै, महरम महल न को अटकावै।
कह ‘रैदास ’ खलास चमारा, जो हम सहरी सु मीतु हमारा।
इस बाणी में रविदास कहते हैं कि उनका आदर्श शहर बेगमपुरा है। बेगमपुरा में न सिर्फ ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, छूतछात, अन्याय, चिंता, आतंक और यातना नहीं है, बल्कि टैक्स/लगान और संपत्ति का कोई मालिक नहीं है(यानि सार्वजनिक है?)। कोई दूसरे–तीसरे दर्जे का नागरिक नहीं है, यानि सब एक समान हैं। वहाँ न सिर्फ भोजन-पानी उपलब्ध है बल्कि उन्हें छुपा के नहीं रखा जाता है, जगजाहिर रहता है कि वहाँ उपलब्ध है। सदा आबाद रहता है और वहां लोग अपनी इच्छा से जहां चाहें आते-जाते हैं। जो चाहे कर्म (व्यवसाय) करते हैं, महल (सामंत, पैसे वाले) किसी के भी विकास में बाधा नहीं डालते हैं।
रैदास “चमार” कहते हैं कि जो भी हमारे इस बेगमपुरा के विचार का समर्थक है, वो हमारा मित्र है। खास बात ये है कि जब रैदास कहते हैं कि ये उनकी प्रिय रहने की जगह है, वे इसे “बतन” कहते हैं। वतन मूलरूप से अरबी का शब्द है जिसका अर्थ है अपनी धरती, सरज़मीं, मातृभूमि, स्वदेस।
यानि बेगमपुरा एक सामाजिक व्यवस्था का प्रस्ताव है। इसके मुख्य सिद्धांतों को देखें तो ये एक समाजवादी व्यवस्था का प्रस्ताव है। क्योंकि रविदास का समय उन सामाजिक आधारों को अभी तक पेश नहीं करता जिनके आधार पर एक वैज्ञानिक समाजवाद की परिकल्पना की जा सके, इसलिए ये एक “समाजवादी आदर्शलोक” का प्रस्ताव बन पाया। ये दुनिया में समाजवादी आदर्शलोक की पहली सोच है। यानि रविदास भारत में मध्यकालीन भौतिकवाद और समाजवाद दोनों के अंकुर हैं – दर्शन और समाजशास्त्र में रुचि रखने वालों के लिए ये एक विस्फोटक संबंध हो सकता है।
रैदास का महान विचार आज फिर से खूब प्रचलित हो रहा है, लेकिन इस पर ये खतरा है कि तीखे सांप्रदायिक और जातिवादी माहौल और हमले का सशक्त प्रतिरोध खड़ा करने की कोशिश में ये खुद भी जातीय घेरों में सिमट जाए, संप्रदायों में बंट जाए और धार्मिक कट्टरता में फंस जाए।
हमें आज रविदास के समता और मुक्ति के विचार को न सिर्फ इन तमाम बेड़ियों से बचाना है, बल्कि बेगमपुरा की राह पर आगे बढ़ते हुए, भारतीय मेहनतकश आवाम के मुक्ति के आंदोलन का अभिन्न हिस्सा बनाते हुए, रविदास को जन-इतिहास और जन-परंपरा में स्थापित करना है।

रविदास जन्मोत्सव समिति, जयपुर द्वारा 2024 में प्रकाशित व प्रचारित लेख