आइए शहीद-ए-आज़म भगतसिंह को जानें, उनके ख्वाब को पहचानें!

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भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु शहादत दिवस 23 मार्च: “युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है।”

“इंक़लाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।” -शहीदे आज़म भगत सिंह

आज हम एक ऐसे दौर में हैं, जब पूँजीवादी लूट, दमन और झूठ-फ्राड भरे विचारों की पूरी आँधी बह रही है। धूल-रख-गर्द से सच को ढ़ंकने, विचारों को कुण्ठित करने की मुहिम तेज हो गयी है। कहीं भगत सिंह ‘यंग्री यंग मैन’ के रूप में निरूपित हो रहे हैं, तो सत्ता प्रतिष्ठानो से लेकर कतिपय ताकतें भगत सिंह को पगड़ी पहनाकर पंथी घोषित कर रही हैं।

इसके बावजूद आज यह स्थापित हो चुका है कि भारतीय मुक्ति संग्राम की दो धाराओं में भगतसिंह क्रान्तिकारी धारा के प्रतीक पुरुष थे। अपनी शहादत के पूर्व तक भगतसिंह वैचारिक समझदारी और स्पष्ट क्रान्तिकारी समझ के साथ गाँधी जी के समान्तर खड़े हो चुके थे। लेकिन साजिशाना तरीके से भगतसिंह और उनकी क्रान्तिकारी धारा को ‘बन्दूक और पिस्तौल से आजादी लाने वाले’ युवा शहीदों के रूप में ही स्थापित किया जाता रहा है।

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घर से मिली इंक़लाबी विरासत

भगत सिंह का जन्म एक क्रांतिकारी परिवार में 28 सितंबर, 1907 को लायलपुर ज़िले के बंगा में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। उनका पैतृक गांव खट्कड़ कलां है। उनकी माता का नाम विद्यावती व पिता का नाम किशन सिंह था। जन्म के समय 1906 में लागू किये हुए औपनिवेशीकरण विधेयक के खिलाफ प्रदर्शन करने के जुल्म में उनके पिता किशन सिंह, चाचा अजित और स्वरण सिंह जेल में थे।

चाचा अजित सिंह ने सैयद हैदर रजा के साथ भारतीय देशभक्त संघ की स्थापना की थी। अजित सिंह ग़दर पार्टी से जुड़े थे। भगत सिंह शहीद करतार सिंह सराभा को अपना आदर्श मानते थे। 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह के बाल मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला।

ऐ भगतसिंह तू ज़िंदा है हर एक लहू के कतरे में…

भगत सिंह ने 5वीं तक की पढाई गांव में की, फिर दयानन्द एंग्लो वैदिक हाई स्कूल, लाहौर में उनका दाखिला हुआ। बहुत छोटी उम्र में भगत सिंह, स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए। 14 वर्ष की आयु में ही वे असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे। गाँधी जी द्वारा आंदोलन वापस लेने से देश के तमाम युवाओं की तरह भगतसिंह भी निराश व आक्रोशित हुए। अपनी पढाई जारी रखने के लिए उन्होंने लाहौर में लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित राष्ट्रीय विद्यालय में प्रवेश लिया, जो क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र था।

भगत सिंह ने क्रांतिकारी गतिविधियां जारी रखीं। 1926 में भगवती चरण बोहरा, सुखदेव और अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर उन्होंने ‘नौजवान भारत सभा’ का गठन किया, जिसके वे सेक्रेट्री थे। इस दौरान उन्होंने देशभर के तमाम क्रांतिकारियों से भी संपर्क बनाया। इसी क्रम में उनका चंद्र शेखर आजाद से संपर्क हुआ।

काकोरी काण्ड में राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाक़ उल्ला, राजेन्द्र लहिड़ी व रौशन सिंह को फाँसी व 16 अन्य क्रांतिकारियों को कारावास होने से क्रांतिकारी दल हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन बिखर गया, जिसे चन्द्रशेखर आजाद पुनरगठित कर रहे थे।

भगत सिंह और उनके साथी भी इस दल से जुड़े और उनके सुझाव पर 1928 में दल के नाम में समाजवादी (सोशलिस्ट) शब्द जोड़कर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ) रखा गया। यह दल के वैचारिक विकास का महत्वपूर्ण मुकाम था। यहाँ से उनकी क्रांतिकारी गतिविधियां जोर पकड़ती गईं।

एचएसआरए केवल गोरों से ही आज़ादी नहीं, बल्कि नए इन्कलाबी तेवर के साथ पूरे मेहनतकश जन की वास्तविक मुक्ति का संगठन था। इस धारा से घबड़ाये जालिम अंग्रेजों ने 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी दे दी, लेकिन यह शहादत नए इंकलाब का परचम बन गया।

इतिहास के विकास क्रम में भगतसिंह

भगत सिंह अपने समय में जारी मुक्तिकामी संघर्ष में क्रान्तिकारी आन्दोलन के लगातार विकसित और परिष्कृत होने के क्रम में उसके शीर्ष पर पहुंचे थे। उन्होंने मौजूदा वैश्विक समर और वैचारिक वैज्ञानिक जीवन दृष्टि को भी आत्मसात कर परिपक्वता हासिल कर सके थे।

तभी तो वे एक तरफ खुद विशुद्ध आर्यसमाजी पृश्ठिभूमि से यात्रा कर नास्तिक और द्वन्द्वात्मक भैतिकवादी बने तो दूसरी तरफ धर्म आधारित आतंकवादी आन्दोलन को जन संगठन पर आधारित क्रान्तिकारी पार्टी गठन की सुस्पष्ट सोच तक पहुंच सके और समाजवादी क्रान्ति का लक्ष्य प्रतिपादित किया। ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ उसकी चरम परिणति थी।

1920 का दशक इतिहास में भारी उथल-पुथल भरा रहा है। एक तरफ 1917 में रूसी क्रान्ति दुनियाभर की मेहनतकश अवाम के लिए एक नए दौर का आगाज़ था। इसने साम्राज्यवाद व पूँजीवाद पर वैचारिक और व्यवहारिक दोनो धरातलों पर श्रेष्ठता साबित की और मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी निर्माण के नित नये कीर्तिमान स्थापित किए। साथ ही प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका ने भी दुनियाभर में जारी मुक्तिकामी संघर्षों को नया आयाम दिया।

भारत में रौलेट ऐक्ट के आने और जालियावाला बाग काण्ड के खूनी ताण्डव, असहयोग आन्दोलन से पूरे देश में एकीकृत आन्दोलन का शानदार उभार और गाँधी जी द्वारा अचानक उसे वापस लेने से जनमानस में पैदा गुस्सा और निराश ने एक नयी सुगबुगाहट पैदा कर दी थी। जिसने ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के गठन का भी आधार मजबूत किया।

यही वह समय है जब पूरे देश में मज़दूर आन्दोलन नये आवेग से आगे बढने लगा था और सांगठनिक शक्ल लेने लगा था। ट्रेड यूनियनों के बनने से लेकर एटक का गठन तक का होना, मई दिवस मनाने की परम्परा की शुरुआत और कम्पनशेसन एक्ट, ट्रेड यूनियन एक्ट सहित तमाम श्रम कानूनी अधिकारों को हासिल करने का यह महत्वपूर्ण दौर था। किसानो, छात्रों-युवाओं के आन्दोलन नये रूप में विकसित होने लगे थे। एक सर्वभारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनाने की जद्दोजहद आगे बढ़ रही थी।

दमन के बीच देश का मुक्तिकामी संग्राम नयी करवटें ले रहा था। अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद सैद्धान्तिक और आन्दोलनात्मक बहसें गुणत्मक रूप से आगे बढ़ने लगी थीं। क्रान्तिकारी आतंकवादी कार्यदिशा के गर्भ से क्रान्तिकारी जनदिशा और धर्मआधारित सोच वैज्ञानिक भैतिकवादी सोच की दिशा में विकसित होने लगी थी, जिसे महत्वपूर्ण मुकाम पर भगतसिंह और उनके साथियों ने पहुंचाया।

यह गौरतलब है कि जहाँ युगान्तर, अनुशीलन से लेकर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन और गदर पार्टी की क्रान्तिकारी परम्परा को ही विकसित करते हुए भगतसिंह और उनके साथी वैज्ञानिक समाजवाद तक की यात्रा पूरी कर सके, तो वहीं, उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट नेतृत्व से सीखते हुए मौलिक चिन्तन व अध्ययन से देश की तत्कालीन ठोस परिस्थितियों के सटीक मुल्यांकन द्वारा क्रान्ति की आम दिशा निर्धारित की।

विकास के इसी क्रम में भगतसिंह गाँधी और कांग्रेस के समकक्ष उपनिवेश के खिलाफ मुक्ति की एक सुसंगत सोच व राष्ट्रवाद की सही समझदारी स्थापित करते हुए वैज्ञानिक समाजवाद को ही वास्तविक विकल्प के रूप में विकसित कर सके।

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तूफानी वैचारिक विकास यात्रा

भगतसिंह का पूरा चिन्तन बेहद अल्प समय में तूफानी गति वाली विचार यात्रा है। किताब और भौतिक जगत से अध्ययन की जबरदस्त भूख वैचारिक विकास की अहम कड़ी थी। कूका व कूकी विद्रोह हो, 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या गदर आन्दोलन, शहीद कर्तार सिंह सराभा हों या काकोरी के शहीद, तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक धटनाएं हों या धर्म, जाति, अछूत समस्या अथवा बढ़ती साम्प्रदायिकता, हर सवाल पर हस्तक्षेप करते हुए आगे बढ़ते जाना भगत सिंह व उनके साथियों की कुशाग्र बुद्धि और बढ़ती परिपक्वता का ही प्रमाण है।

समकालीन युवा नेताओं जवाहर लाल नेहरू व सुभाष चन्द्र बोस का ससम्मान मूल्यांकन, लाला लाजपत राय के प्रति श्रद्धा और उनसे समझौताहीन तीखे वैचारिक संघर्ष, गाँधी जी से गहन संघर्ष जारी रखना आदि सूसंगत राजनीतिक कर्म की बानगी मात्र है। भगवती चरण बोहरा के साथ उनका लिखा लेख ‘बम का दर्शन’ तो गाँधी जी स्पष्ट जवाब है। उनकी ‘जेल नोटबुक’ विचारयात्रा और परिपक्वता का दर्पण है।

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क्रान्तिकारी जनदिशा में शानदार प्रयोग

जिस वक्त भगतसिंह की पीढ़ी क्रान्तिकारी आन्दोलन में कदम रख रही थी, कांग्रेस की सुधारवादी राजनीति के बरअक्स ‘युगान्तर’, ‘अनुशीलन’ आदि की धारा ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ तक पहुँची थी, जहाँ मूलतः आतंकवादी कार्यदिशा हावी थी। दूसरी ओर गदर पार्टी का प्रयोग और उसका सकारात्मक-नकारात्मक रूप समने था। भगतसिंह और उनके साथियों ने इस पूरी क्रान्तिकारी धारा को आत्मसात किया और तत्कालीन परिस्थितियों में जन दिशा के अद्भुत प्रयोग किये।

नौजवान भारत सभा का गठन इस कड़ी में एक नयी शुरुआत थी। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं का इस्तेमाल, विचारों के प्रचार के लिए अदालत के प्लेटफॉर्म का खूबसूरत उपयोग, भूख-हड़ताल को जनान्दोलन बनाने जैसे कई प्रयोग किये, तो लाला जी की मौत का बदला लेते हुए भी उसका प्रचारात्मक उपयोग किया।

‘नौजवान भारत सभा’ और फिर ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ’ के घोषणा पत्रों में जनदिशा की पूरी सोच को उपस्थित किया। साथ ही मज़दूरों किसानों के संश्रय, छात्रों-युवाओं की भूमिका आदि को भी खूबसूरती से निरूपित किया।

मज़दूर व किसान आन्दोलनों पर

भगतसिंह स्पष्ट करते हैं कि ”क्रान्ति राष्ट्रीय हो या समाजवादी, जिन शक्तियों पर हम निर्भर हो सकते हैं वे हैं किसान और मज़दूर।”

इसीलिए उनकी निगाह तत्कालीन चल रहे मज़दूरों व किसानों के आन्दोलन पर लगातार लगी रही। यह दौर इन आन्दोलनों के एक नये उभार का दौर था। 1928 में बारदोली, कानपुर, मेरठ व पंजाब में किसानों के सत्याग्रह आन्दोलन उठ रहे थे, तो लिलुआ रेलवे बर्कशाप, टाटा की जमशेदपुर मिलों, जमशेदपुर में सफाई कर्मियों और बम्बई की कपड़ा मिलों में हड़तालें चल रही थीं।

‘किरती’, जिसके सम्पादक मण्डल में भगतसिंह थे, ने जून, 1928 में लिखा कि-

“1928 में हिन्दुस्तान में फिर प्राण धड़कते नजर आने लगे हैं। …उधर सत्याग्रह की धूम है और इधर हड़तालों का भी कम जोर नहीं। बड़ी खुशी इस बात की है कि फिर प्राण जगे हैं और पहले-पहल ही किसानों और श्रमिकों का युद्ध छिड़ा है। इस बात का भी आने वाले बड़े भारी आन्दोलन पर असर रहेगा। वास्तव में तो यही लोग हैं कि जिन्हें आजादी की जरूरत है। किसान और मज़दूर रोटी चाहते हैं और उनकी रोटी का सवाल तबतक हल नहीं हो सकता जबतक यहाँ पूर्ण आजादी न मिल जाये। वो गोलमेज कान्फ्रेंस या अन्य ऐसी किसी बात पर रुक नहीं सकते।”

इसी लेख में लिखते हैं “…सबसे अधिक सेवा करने वाले भाईयों को हम भंगी-भंगी कहकर पास न फटकने दें और उनकी गरीबी का लाभ उठाकर थोड़े-से पैसे देकर काम कराते रहें और बेगार भी खूब घसीटें। खूब! आखिर उन्हें उठना ही था।… हम चाहते हैं कि सभी किसान और मज़दूर संगठित हों और अपने अधिकारों के लिए यत्न करें।”

अपने अन्तिम दौर में लिखे दस्तावेज में वे साफ तौर पर कहते हैं कि “हमें याद रखना चाहिए कि श्रमिक क्रान्ति के अतिरिक्त न किसी और क्रान्ति की इच्छा करनी चाहिए और न ही वह सफल हो सकती है।”

इसी दस्तावेज में वे “ट्रेड यूनियनों पर कब्जा करना और नयी ट्रेड यूनियनों व संगठनों को जुझारू रूप में स्थापित करना” और “दस्तकारों की समितियाँ, मज़दूरों और बौद्धिक काम करने वालों की यूनियनें हर जगह स्थापित की जाये” बुनियादी काम बताते हैं।

धर्म, साम्प्रदायिकता और जातिवाद पर सतत हमला

1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिन्दू-मुस्लिम एकजुट संघर्ष का नायाब उदाहरण पेश हुआ। अंग्रजों ने इसका सबक निकाला और साम्प्रदायिक बंटवारे की कुटिल जमीन तैयार कर दी। भगतसिंह का दौर इस दिशा में एक खतरनाक मुकाम पर था। यही वह समय था, जब ‘हिन्दू महासभा’ और ‘राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ’ की पौध आरोपित हुई। उधर ‘मुस्लिम लीग’ भी विस्तार लेने लगा था।

आन्दोलनों को भटकाने के लिए धार्मिक कट्टरपंथियों का सहारा लेकर ब्रिटिश हुक्मरान साम्प्रदायिक दंगों को हवा दे रहे थे। इसका रूप उस वक्त कैसा था, इसको भगत सिंह व सथियों की शहादत (23 मार्च, 1931) के तत्काल बाद कानपुर में हुए भयानक दंगे के रूप में देखा जा सकता है, जिसे रोकने के प्रयास में गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हो गये। जाहिरातौर पर यह भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु की शहादत से पैदा होने वाले जनान्दोलन को रोकने के लिए कुटिल साजिश भी थी।

भगतसिंह ने साम्प्रदायिकता पर लगातार चोट की। वे लिखते हैं “इन ‘धमों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि ये धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। …इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है।”

उन्होंने लिखा “लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। ग़रीब मेहनतकश और किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए।”

उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में धर्म को निजी आस्था और इसे राजनीति से अलग करने की बात कही। अन्धविश्वासों और समाज में प्रचलित कूप्रथाओं पर लगातार तीखा प्रहार किया और जनमानस में वर्ग आधारित वैज्ञानिक सोच के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया।

वे लिखते हैं “निरा विश्वास और अन्धविश्वास खतरनाक है, इससे मस्तिस्क कुण्ठित होता है और आदमी प्रतिक्रियावादी हो जाता है।” अपने अन्तिम दस्तावेज में बताया “हमें अन्धविश्वासों, भावनाओं, धार्मिकता या तटस्थता के आदर्शों से खेलने की जरूरत नहीं है।”

शहीदे आज़म ने लिखा है “जो आदमी प्रगति के लिए संघर्ष करता है, उसे पुराने विश्वासों की एक-एक बात की आलोचना करनी होगी, उस पर अविश्वास करना होगा और उसे चुनौती देनी होगी। इस प्रचिलित विश्वास के एक-एक कोने में झांक कर उसे विवेक पूर्वक समझना होगा।”

समाज में जड़ जमाए जातिगत विभेद पर भी भगतसिंह ने तीखे प्रहार किये- “30 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जो 6 करोड़ अछूत कहलाते हैं, उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जायेगा! उनके मन्दिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे! कुएँ से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआँ अपवित्र हो जायेगा!”

वे आह्वान करते हैं “उठो! अछूत कहलाने वाले असली जनसेवकों उठो! …तुम असली सर्वहारा हो…संगठनबद्ध हो जाओ। …उठो और वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आन्दोलन से क्रान्ति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश के मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो, सोये हुए शेरों! उठो, और बगावत खड़ी कर दो।”

भगतसिंह ने स्त्री-पुरुश भेदभाव पर भी चोट की और पार्टी में ‘स्त्री समिति’ बनाने का सुझाव देते हुए उनकी प्रारम्भिक जिम्मेदारी के तौर पर “स्त्रियों को क्रान्तिकारी बनाना और इनमें से प्रत्यक्ष सेवा के लिए सक्रिय सदस्य भरती करना” बताया।

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युवाओं का आह्वान

देश के विद्यार्थियों और नौजवानों का आह्वान करते हुए वे कहते हैं “सभी देशों को आजाद करवाने वाले वहाँ के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं। क्या हिन्दुस्तान के नौजवान अलग-अलग रहकर अपना और देश का अस्तित्व बचा पाएंगे? …वे पढ़ें, जरूर पढ़ें। साथ ही पॉलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपना जीवन इसी काम में लगा दें। अपने प्राणों का इसी में उत्सर्ग कर दें। वरन् बचने का कोई उपाय नज़र नहीं आता।”

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सच्ची आज़ादी का सपना अधूरा है

क्रान्ति कैसी हो? भगत सिंह के शब्दों में “सर्वहारा श्रमिक वर्ग की क्रान्ति, सर्वहारा के लिए।”

उन्होंने स्पष्ट किया “हम वर्तमान ढ़ांचे के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के पक्ष में हैं। हम वर्तमान समाज को पूरे तौर पर एक नए सुगठित समाज में बदलना चाहते हैं। इस तरह मनुष्य के हाथों मनुष्य का शोषण असंभव बनाकर सभी के लिए सब क्षेत्रों में पूरी स्वतंत्रता विश्वसनीय बनायी जाये।”

जैसा कि भगत सिंह ने आगाह किया था, 1947 में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष ‘एक समझौते में’ समाप्त हो गया और ‘गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों’ के हाथ में सत्ता आ गयी। मेहनतकश वर्ग के साथ इस धोखे से देश एक पीड़ादायी दौर से गुजरने को अभिषप्त हो गया। लेकिन देश का सामाजिक-आर्थिक ढ़ांचा एक क्रमिक विकास में आगे बढ़ता रहा और तदोनुरूप वर्ग शक्ति संतुलन भी बदलता रहा। आज उत्पादन सम्बन्धों, सामाजिक-आर्थिक संरचना, राज्य सत्ता के चरित्र व कार्य प्रणाली में भारी बदलाव आ चुका है।

यह भी ध्यानतलब है कि आज पतनशील पूँजीवाद के संरक्षण में साम्प्रदायिकता और जातिवादी विभेद एक बटबृक्ष का रूप ले चुका है। मोबाइल, इण्टरनेट, वट्सऐप, फेसबुक के इस दौर में सोशल मीडिया पर वर्चास्व बना प्रतिगामी विचारों की सुनामी पैदा की जा रही है। मेहनतकश वर्गों के बीच नित नये हमलों का रूप विस्तारित होते जा रहे हैं। गुलामी की बेड़ियाँ और ज्यादा जकड़ गई हैं।

निष्चित रूप से ऐसे हालात में भगतसिंह की प्रासंगिकता और ज्यादा बढ़ जाती है।

शाहीद-ए-आज़म आह्वान करते हैं “नौजवानों को क्रान्ति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है, फैक्ट्री-कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गांव की जर्जर झोपडियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस इंक़लाब की अलख जगानी है, जिससे आज़ादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असंभव हो जाएगा।”

आज के कठिन चुनौतीपूर्ण इस दौर में हमें शाहीदे आज़म की यह बात याद रखनी होगी-

“युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है – चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति हों या अंग्रेज़ और भारतीय पूँजीपतियों का गँठजोड़ हो, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।”

भगत सिंह व साथियों का ख्वाब आज भी अधूरा है। मेहनत की लूट के खिलाफ़ युद्ध जारी है! जो भगत सिंह के वारिस हैं उन्हें अंतिम जंग में शामिल रहना है, ताकि शहीदों के अधूरे ख्वाब को मुकम्मल जीत में बदल जा सके। ताकि एक ऐसे समाज का निर्माण हो, जहां आदमी द्वारा आदमी के लूट का खत्म हो!

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