सप्ताह की कविताएँ : संघर्षरत किसानों के नाम !

किसान / प्रबोध सिन्हा
तुम क्या जानो
कि किसान क्या है
तुम कैसे जानोगे
क्योंकि तुम्हें तो
ब्रांडेड चीजों का
चस्का है
तुम क्या जानो
तुम यह जानते हो
कि पैसा
पानी की तरह
कैसे बहाया जाता है
तुम कैसे जानोगे
कि
जब तुम सुबह उठते हो
तो किसान
खेत में
अपने पसीने से
मिट्टी को
खूब
नम कर चुके होते हैं
तुम क्या जानो
तुम जब सुबह
उठते हो
तो किसान
खेतों में
मिट्टी में
पौधे रोपे चुके होते हैं
और जब तुम
अंगड़ाई लेते हो
तो किसान
दोपहर में
मोटी रोटी
और
नमक
लहसुन
और हरी मिर्च
उसी धरा पर कूटकर
रोटी पर
लगाके खा चुका होता है
तुम क्या जानो
कि किसान क्या होता है
और जब
दिनभर की
कड़ी मेहनत
और पसीने की लय को
मिट्टी में बहा चुका होता है
तो शाम को
कब
खाट पर आँख लग जाती है
तुम क्या जानो
और जब रात होती है
तो रात में
ढिबरी को लेते हुए
खेतों में टहल भी
लिया करते हैं
फसल को बचाने के लिए
ताकि तुम तक
हमतक
और उनतक
सभी के पेट की भूख
मिट सके
सिर्फ इंसान के ही नहीं
जानवर के भी
तुम क्या जानोगे
कि किसान क्या होता है
किसान वह होता है
जो खेत में हमारे
भूख के लिए
कब्र हो जाता है
ये क्या कम है
ये बहुत
बड़ी बात है
किसान को
समझों
नहीं तो
उनके फावड़े
सिर्फ फसल ही नहीं काटते
और भी
बहुत
फसल काटते हैं
तुम किसान को
क्या जानो
कि उनके दिल
कितने सुंदर होते हैं
सिर्फ और सिर्फ
हमसब के
भूख के
लिए।

तिजोरियों में गेहूं नहीं उगते / सिद्धार्थ
तिजोरियों में गेहूं नहीं उगते
आसमान से धान नहीं टपकते
टपकाने पड़ते हैं लहू धरा में
चीरने पड़ते हैं छाती धरा के
बोन होते हैं बीज के संग खाब
कमोने होते दूब संग चिंता के घाव
सीचने होते है नयनों के आब
तब जा कर कहीं मिलता है
मुट्ठी भर बीज के बदले
दोना भर स्वर्ण धन सा अनाज
और तुम कहते हो
किसानों को किस बात का है अवसाद

गोली मारो.. / आदित्य कमल
नौजवान उतरे हैं सड़क पर
गोली मारो…
जेल में ठूँसो पकड़-पकड़ कर
गोली मारो…
मांग रहे हैं शिक्षा-दीक्षा
गोली मारो…
अगर बच्चियाँ कहें सुरक्षा
गोली मारो…
जो सवाल करता है सच्चा
गोली मारो…
हर सवाल का उत्तर अच्छा
गोली मारो….
मज़दूरों की हालत ख़स्ता
गोली मारो…
उनका तो बिगड़ा है रस्ता
गोली मारो…
मांग रहे हैं बढ़ी मज़ूरी
गोली मारो…
उनकी मांग न होगी पूरी
गोली मारो..
ऐसे भी मरता किसान है
गोली मारो…
फतुही पहने है , बेजान है
गोली मारो …
सब देते हड़ताल की धमकी !
गोली मारो…
किसी को फ़िक्र नहीं वतन की
सबको गोली मारो..
कौन नागरिक ? अरे , कीट-मकोड़े !
गोली मारो…
अरगाड़े में घेर के , कोड़े –
गोली मारो..
भटक रहे सब हुए बेलाला
गोली मारो…
मुँह पर नहीं लगाते ताला
गोली मारो…
यहाँ कोई ख़ैरात नहीं है ?
गोली मारो…
मरेंगे कुछ , कोई बात नहीं है !
गोली मारो…
अरे , समस्या है तो है
गोली मारो…
बोलो भारत माँ की जय
और गोली मारो…!!

यदि तुम जीवित हो / पंकज कुमार सिंह
यदि तुम पतझड़ के पेड़ों की
उदासी देख सकते हो
बारिश के बूंदों में आँसुओं को पहचान सकते हो
नमक और चीनी के स्वाद को परख सकते हो
यदि तुम रात और दिन का फर्क समझ सकते हो
चीख़ सुन सकते हो
दर्द की तकलीफ महसूस करते हो
तो तुम जीवित हो
तुम्हारे अंदर आत्मा मौजूद है
यदि तुम जीवित हो
तो जिंदा बनकर रहो
आवाज़ लगाते रहो
हाथ लहराते रहो
मशाल जलाकर रखो
तुम्हारे शांत हो जाने से
भेड़िया तुम पर टूट पड़ेगा
और नोंच खाएगा किसी मृत पशु की तरह।

हम तुम्हारा भला चाहते हैं / महेश पुनेठा
पिछली बार उन्होंने घोषणा की थी-
हम तुम्हारा भला चाहते हैं
कुछ सालों में ही
हमारे खेतों से
हमारे अपने बीज गायब हो गये
हमारे अपने कीटनाशक गायब हो गये
हमारी अपनी खाद गायब हो गयी
बस बच गयी केवल किसानी
अबकी वो फिर बोले हैं:
हम तुम्हारा भला चाहते हैं.

खुदाई / सीमस हीनी
मेरी ऊँगली और अंगूठे के बीच
टिकी है पुरानी सी कलम, बंदूक की तरह चुस्त-दुरुस्त
मेरी खिड़की के बाहर खनखनाती-किरकिराती
कंकरीली ज़मीन के भीतर धंसती कुदाल की आवाज़
खुदाई कर रहे हैं मेरे पिता, मैं देखता हूँ नीचे
फूलों की क्यारी के बीच उनका तना हुआ पुट्ठा
कभी निहुरता नीचे, कभी ऊपर उठता
वे खेत खोदते ताल मिलाते झुकते-तनते
चला गया बीस बरस पहले मेरा मन
ज़हाँ वे आलू की खुदाई कर रहे थे.
कुदाल की बेंट थामे मजबूत हाथों से
आलू के थाले पर मारते जोरदार गहरा दाब
धंसाते ज़मीन में और उकसाते बेंत को आगे धकिया कर
तो ताज़ा मिट्टी में सने आलू छितरा जाते
जिनको चुनकर हम महसूस करते
उनका कठिन परिश्रम अपनी नन्ही हथेली पर.
हे भगवान, यह बूढा आदमी तो अपने पिता की तरह ही
भांजता है कुदाल.
मेरे दादा कोंड़ सकते थे दिन भर में टोनर के दलदल में
दूसरे किसी भी आदमी से अधिक खेत.
एक बार मैं उनके लिये ले गयाएक बोतल दूध
कागज़ की ढीली डाट लगा कर. खोल कर पी गये गटागट
फिर सीधे जुट गये और करीने से खींची डोल
और क्यारी बनाई, हाँफते हुए हौले हौले
खोद-खोद कर बना दिया सुन्दर खेत.
आलू के खेत की ठंडी खुशबू, पौधों के नीचे हलकी थपकी
निराई में निकले गीले कुश, मेड की छिलाई से उभर आई
मिट्टी से झांकती ताज़ा कटी जड़ों की याद आ गयी मुझे
लेकिन मेरे पास कुदाल नहीं कि अनुसरण करूँ
उन जैसे लोगों का.
मेरी ऊँगली और अंगूठे के बीच
टिकी है पुरानी सी कलम,
इसी से खुदाई करूँगा मैं.
(दिगम्बर द्वारा अनुदित नोबेल पुरस्कार विजेता आयरिश कवि सीमस हीनी की कविता)