लंबे समय से स्थाई कार्य कर रहे वैध नियुक्त कर्मचारी नियमितीकरण के हकदार -सुप्रीम कोर्ट

शीर्ष अदालत ने उमादेवी प्रकरण से इस मामले को अलग करते हुए कहा कि रोजगार का सार और उसके अधिकार केवल नियुक्ति की प्रारंभिक शर्तों से नहीं निर्धारित किये जा सकते।

25 वर्षों से लगातार कार्यरत रहे विनोद कुमार एवं अन्य बनाम भारत संघ मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि रोजगार का सार और उसके अधिकार केवल नियुक्ति की प्रारंभिक शर्तों से नहीं निर्धारित किये जा सकते। एक अहम फैसले में शीर्ष अदालत ने अपीलकर्ता की सेवाओं को नियमित करने का निर्देश दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रक्रियात्मक औपचारिकताओं का उपयोग उस कर्मचारी को सेवा के नियमितीकरण से इनकार करने के लिए नहीं किया जा सकता, जिसकी नियुक्ति को “अस्थायी” कहा गया, लेकिन उसने नियमित कर्मचारी की क्षमता में काफी अवधि तक नियमित कर्मचारी द्वारा किए गए समान कर्तव्यों का पालन किया।

प्रक्रिया से नियुक्ति, लेकिन नियमित करने से इनकार

अपीलकर्ताओं विनोद कुमार व अन्य को मूल रूप से 21.02.1991 की एक अधिसूचना के अनुसार, लिखित परीक्षा और साक्षात्कार की प्रक्रिया के माध्यम से एक्स-कैडर पदों पर लेखा क्लर्क के रूप में नियुक्त किया गया था। उनके नियमितीकरण के लिए किए गए प्रतिनिधित्व को 1999 में मंडल रेल प्रबंधक द्वारा अस्वीकार कर दिया गया।

प्रशासनिक ट्रिब्यूनल ने अपील किया था खारिज

अपीलकर्ताओं ने केंद्रीय प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में मूल आवेदन दाखिल करके नियोक्ता रेलवे के आदेश को चुनौती दी। ट्रिब्यूनल ने उनके आवेदनों को इस आधार पर खारिज कर दिया कि उनकी नियुक्तियां अस्थायी थीं और विशेष योजना के लिए विशिष्ट थीं, इसलिए नियमितीकरण या स्थायी पदों में समाहित करने का कोई औचित्य नहीं था।

उच्च न्यायालय से भी राहत नहीं

उच्च न्यायालय ने ट्रिब्यूनल के निर्णय को बरकरार रखा। अदालत ने कर्नाटक राज्य के सचिव बनाम उमा देवी मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित मिसाल का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि अस्थायी या अनौपचारिक कर्मचारियों को सेवा में समाहित करने का मूल अधिकार नहीं होता।

हाईकोर्ट ने अपने उक्त फैसले में नियमित कर्मचारियों की क्षमताओं में लगातार सेवा कर रहे कर्मचारियों के रोजगार को नियमित करने से इनकार किया था।

सुप्रीम कोर्ट में चुनौती, नियमितीकरण का आदेश

पीड़ित कर्मचारियों ने सुप्रीम कोर्ट में फैसले को चुनौती दी। अपील को सर्वोच्च अदालत ने स्वीकार किया और माना कि उनकी सेवा की शर्तें, समय के साथ विकसित होने के कारण, अस्थायी से नियमित स्थिति में पुनर्वर्गीकृत करने की मांग करती हैं।

उनके कार्यों की प्रकृति को मान्यता न देना और उनकी सतत सेवा को स्थायी कर्मचारियों के समान मानना, रोजगार नियमों के उद्देश्य, न्याय और उचितता के सिद्धांतों के विरुद्ध है।

हाईकोर्ट का फैसला रद्द करते हुए जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने कहा कि चूंकि कर्मचारियों को वैध चयन प्रक्रिया के माध्यम से नियुक्त किया गया था। नियमित कर्मचारी की चयन प्रक्रिया और लगभग 25 वर्षों से लगातार सेवा कर रहे थे, इसलिए “स्थायी कर्मचारियों के समान उनकी भूमिकाओं की मूल प्रकृति और उनकी निरंतर सेवा को पहचानने में विफलता समानता, निष्पक्षता और पीछे की मंशा रोज़गार नियम के सिद्धांतों के विपरीत है।”

शीर्ष अदालत ने क्या कहा?

“अपीलकर्ताओं की नियमित कर्मचारियों की क्षमताओं में निरंतर सेवा, स्थायी पदों पर बैठे लोगों से अलग कर्तव्यों का पालन करना, और प्रक्रिया के माध्यम से उनका चयन जो नियमित भर्ती को प्रतिबिंबित करता है, उनके अस्थायी और योजना-विशिष्ट प्रकृति से एक महत्वपूर्ण विचलन का गठन करता है।”

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपीलकर्ताओं/कर्मचारियों की सेवा के नियमितीकरण को अस्वीकार करने के हाईकोर्ट के फैसले के समर्थन में प्रतिवादी ने सचिव, कर्नाटक राज्य बनाम उमादेवी के फैसले पर भरोसा करते हुए तर्क दिया कि अपीलकर्ता का रोजगार अस्थायी योजना के तहत था। उन्हें स्थायी कर्मचारियों के समान अधिकार प्रदान नहीं किया जा सका।

उमादेवी मामले से यह भिन्न है मामला

शीर्ष अदालत ने माना कि हाईकोर्ट ने वर्तमान मामले में उमादेवी प्रकरण को गलत तरीके से लागू किया। पीठ ने मामले की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए, उच्च न्यायालय के निर्णय को गलत माना।

उमादेवी मामले में कोर्ट ने पिछले रास्ते से नियुक्तियों को अनियमित और अवैध करार दिया था। उमादेवी मामले को वर्तमान मामले से अलग करते हुए यह दर्ज करने के बाद कि अपीलकर्ता लिखित परीक्षा और मौखिक परीक्षा में उपस्थित होकर वैध चयन प्रक्रिया से गुजर चुके हैं, अदालत ने माना कि अपीलकर्ताओं की सेवा शर्तें अस्थायी से नियमित स्थिति में पुनर्वर्गीकरण की मांग करती हैं।

यह उल्लेख करना उचित होगा कि उमादेवी के मामले में अदालत ने “अनियमित” और “अवैध” नियुक्तियों के बीच अंतर किया और कुछ नियुक्तियों पर विचार करने के महत्व को रेखांकित किया, भले ही वे निर्धारित नियमों और प्रक्रिया के अनुसार सख्ती से नहीं की गई हों।

अदालत ने कहा कि प्रक्रियात्मक औपचारिकताओं पर आधारित शुरुआती निर्णयों का उपयोग लगातार सेवा के माध्यम से अर्जित अधिकारों को स्थायी रूप से इनकार करने के लिए नहीं किया जा सकता। उनका प्रोमोशन विशेष अधिसूचना और उसके बाद आयी एक परिपत्र के आधार पर हुआ था, जिसमें लिखित परीक्षाओं और साक्षात्कार की प्रक्रिया शामिल थी, जो उमा देवी के मामले में चर्चित पिछले दरवाजे से नियुक्तियों से उनके मामले को अलग करती है।

पीठ ने कहा- “नियुक्ति को अवैध रूप से नहीं कहा जा सकता, यदि उन्होंने वर्तमान मामले में लिखित परीक्षा या इंटरव्यू जैसी नियमित नियुक्तियों की प्रक्रियाओं का पालन किया।”

इस आधार पर अदालत ने अपील स्वीकार कर ली और अपीलकर्ता की सेवाओं को नियमित करने का निर्देश दिया।

केस टाइटल: विनोद कुमार एवं अन्य बनाम भारत संघ और अन्य।

‘लाइव लॉ’ और ‘लॉ ट्रेंड’ के इनपुट के साथ