इस सप्ताह की कविता : हर दिन फ़ादर मदर का !

वो शख्स सूरमा है ..मगर बाप भी तो है
रोटी खरीद लाया है तलवार बेचकर

-मैराज़ फैजाबादी

तुम्हारी कब्र पर मैं / निदा फ़ाज़ली

तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातेहा पढ़ने नही आया,

मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था ।

मेरी आँखे
तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ
वो, वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी ।

कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,
मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं,
तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं |

बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम |

तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
तुम्हारी कब्र में मैं दफन तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फातहा पढनें चले आना।


पितृ दिवस पर एक कविता / माधव मधुकर

बार – बार उन्हीं काले जलाशयों में
काईदार सीढ़ियों से
घिसटते पांव नीचे उतरना
और अनुभूतियों के दलदल में
धंसते हुए करते रहना
सीपियों की तलाश

फिर अपनी ही अभिव्यक्ति के आईने में
निहारते हुए पाना
अपना ही लहूलुहान चेहरा
आहत आस्था , क्षत – विक्षत विश्वास ।

किंतु ओ पिता !
निरंतर हैं गतिमान
चट्टानी अभियान में
उठे हुए पांव ,
प्रतिक्षण सन्नध्द
अंधेरे से
लड़ते हुए हाथ !


मेरे भीतर / राजेश मल्ल

मेरे भीतर
थोड़ा सा बचा है पानी
जो तुम्हारी यादों के साथ आंखों से रिस रहा है धीरे धीरे।
मेरे भीतर
थोड़ा सा ही बचा है आक्सीजन
जो बहुत-बहुत कम पड़ गया
बचाए न जा सके बहुत सारे मेरे अपने लोग।
मेरे भीतर
थोड़ा सा बचा है नमक
पिछले दिनों बहुत कम पड़ गया
और हजारों लोगों का जीवन हो गया बेस्वाद।
मेरे भीतर
थोड़ी सी बची है आवाज
जो गीत-कविता बनने से पहले
बदल जाती है बेआवाज रूलाई में।


पीटर हैरिसन की एक कविता

चूँकि हम इनसान हैं,
सर्वोच्च शिखर होना चाहिए
हमारी संस्कृति का
इंसान होना।
आप भी यही मानते हैं क्या? कि मानवता ने
अपने धनुष का निशाना इसी तरफ साधा था?

लेकिन इनसान बनने के बजाय
आदमी बन गये माल-असबाब
और उपभोक्ता, और अगर नहीं
तो उन्होंने खुद को उतार दिया
मुनाफे की राह में, मिटा दिये जाने
या हटा दिये जाने के लिए।
शायद मानवता के तीर का निशाना
उल्टा सध गया था।

(कविता counterpunch से साभार)



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