आज करोड़ों नौजवान-महिला-मजदूर-किसान-विध्यार्थी हैं जो रोज़ी-रोटी के लिए छोटा-मोटा काम करने को मजबूर हैं और छिपी बेरोज़गारी का शिकार हैं, इसके अलावा करोड़ों बेकारी की मार झेल रहे हैं। बीते 2 सालों मे कोरोना का असर हम प्रवासी मज़दूर, ठेका मज़दूर, महिला, किसान-छात्र-नौजवान आदि तमाम मेहनतकश जनता पर देख़ सकते हैं। तमाम सरकारी संस्थाएं व प्रशासन, भ्रष्ट सरकारी और गैरसरकारी अफ़सर और जनता द्वारा चुने गए वोटों के भूखे जनप्रतिनिधि निजी हितों के लिए बेरोज़गारी को अधिकाधिक बढ़ाने के जिम्मेदार हैं। काँग्रेस हो या बीजेपी या कोई अन्य सरकार, सब ने जनता को भयंकर बेकारी, भुखमरी और गरीबी में धकेला है। क्या जनता द्वारा ‘जनता के शासन’ की यह ज़िम्मेदारी है? देश में 77% से अधिक संपत्ति व धन-दौलत चंद पूँजीपतियों और बड़े धन्नासेठों के पास है। अमीर और ज़्यादा अमीर और गरीब और ज़्यादा गरीब! क्या यह गैरबराबरी और मुनाफ़े पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था बेकारी, भुखमरी, महंगाई और गरीबी आदि बीमारियों को जन्म नहीं दे रही है?
आकड़ों के हिसाब से 2019 में पिछले 45 सालों में सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी थी। यह सब मोदी सरकार के शासन में हुआ जिसने अपने भाषणों में 2 करोड़ नौकरियां व अन्य स्वरोजगार के अवसर की बात कर “पकौड़ा तलो” जैसे जुमले फ़ेंक कर युवाओं के मुह पर तमाच मारा है। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, डिजिटल इंडिया और प्रधानमंत्री रोज़गार योजनाओं मे गिने चुने लोगों को तकनीकी शिक्षा देकर सरकार बड़े-बड़े पूँजीपतियों के लिए सस्ते मज़दूर तैयार कर रही है। देश के तमाम संसाधनों, जल-जंगल-जमीन, कल-कारखानों, बिजलीघरों, तेल कुओं, खनिजों, बैंको, बीमा कंपनियों, विश्वविध्यालयों आदि सार्वजनिक संपत्ति को सरकार देशी – विदेशी पूँजीपतियों के हवाले कर रही है। बल्कि जरूरत है कि सरकार हर एक को सम्मानजनक रोज़गार दे, जिसमे काम की सुरक्षा, उचित तंख्वाह, काम के घंटे ,स्थायी काम सहित भुलभूत कानूनी अधिकारों की गारंटी और सवाल करने की जगह हो। मनरेगा जैसी योजनाओं में 100 दिन काम देने के वादे की ज़मीनी हक़ीक़त कुछ ओर ही है! जरूरत है 365 दिन रोज़गार दे। महंगाई का हाल और आर्थिक तंगी को देखते हुये हर एक मेहनतकश के लिए मूलभूत जरूरत के साथ उचित व समान शिक्षा-स्वस्थय-रोज़गार, तमाम मौलिक अधिकार, बुढ़ापे के जीवन सहित अन्य समस्याओं में सुरक्षा के लिए उचित न्यूनतम मज़दूरी, निर्वाह मज़दूरी और स्थाई काम पर स्थाई रोज़गार सुनिश्चित करना सरकार की जरूरी ज़िम्मेदारी बनती है, जिसमे न्यूनतम मज़दूरी 25 हजार हो और उचित बेरोज़गारी भत्ता मुहैया करे।

आज बेरोज़गार होना एक अपराध जैसा मालूम होता है। समाज और परिवार में बेरोज़गार निठल्ला, आवारा, आलसी, धरती पर बोझ जैसे तानों का सामना, खुद को कोसना और क़िसमत का रोना रो रहे हैं। समाज की यह नफ़रत, अपमान और घृणा नशे, आत्महया और अपराध की तरफ़ धकेल रहीं है। लाखों नौजवान खेती छोडने, शहर के कारखानों और झुग्गी–झोपड़ी में बसने को मजबूर हैं। तमाम सरकारी नौकरियों की प्रतियोगी परीक्षाओं मे आज पेपर लीक, नकल, कोर्ट रोक और बड़े–बड़े अधिकारियों और नेताओं के रिशतेदारों का दबदबा और मोटी रिश्वत के तले नौकरी पाने का सिलसिला है। हाल यह है कि 100 पदों पर 3-4 लाख नौजवान भीड़ मे लगे हुये हैं, जिसमें बड़े-बड़े डिग्री धारक तक है। कोचिंग संस्थानों की मोटी रकम भी सरकारी नौकरी की दौड़ में नौजवानो को पीछे धकेल देती है। यह एक छटनी प्रक्रिया नहीं तो क्या है?
देश में आजकल कोई भी समस्या हो उसका जिम्मेदार बढ़ती आबादी और सरकारी नौकरी के मामले में जातिगत आरक्षण को ठहराया जाता है। शासक वर्ग भी इस सफ़ेद झूठ को ज़ोर-जबरदस्ती जनता पर थोपता है। देश मे रोज़गार के अवसर मे कमी को आरक्षण से जोड़ना न्यायसंगत नहीं होगा। आरक्षण खत्म होने से भी कुल बेरोज़गारी पर इसका असर न के बराबर रहेगा। हमें सबके लिए स्थायी, सुरक्षित और सम्मानजनक रोजगार के लिए लड़ना है और अच्छा रोजगार उच्च जाति के ही नियंत्रण में न हो, ऐसे एक गैर-बराबरी मुक्त समाज के लिए भी लड़ना है। हालत यह है कि रोज़गार व काम-धंधा देने की बात तो छोड़ दो, मुश्किल से काम पर लगे हुए को भी तालाबंदी और छटनी के नाम पर बेरोज़गार किया जा रहा है। अमीरी और गरीबी की बढ़ती खाई के पीछे आज की इस पूंजीवादी व्यवस्था में, जहां तमाम उत्पादन के साधनों पर बड़े–बड़े धन्नासेठों का कब्ज़ा है और मालिक वर्ग अपने अधिकाधिक मुनाफ़े के लिए मज़दूर और तमाम मेहनतकश से कम से कम मज़दूरी मे ज़्यादा से ज़्यादा काम करवाता है , मुनाफ़े की होड़ मे अधिक उत्पादन किया जाता है और जब अधिक उत्पादन जनता की खरीद की क्षमता की कमजोरी की वजह से बिक नही पाता तो, यह पूंजीवादी संकट मंदी को जन्म देता है और तब लाखों मजदूरों और कर्मचारियों को कारखानों-कंपनियों से छटनी के नाम पर बाहर धकेल दिया जाता है। तो पूंजीवादी व्यवस्था मे अधिक मुनाफ़े की चाह बेरोज़गारी, भुखमरी और गरीबी जैसी तमाम समस्याओं को जन्म देती है। मालिक अपने आरामदायक जीवन के लिए मशीनीकरण और विज्ञान का गलत इस्तेमाल कर बेरोजगारी की जमात बढ़ाते हैं और सरकार पूँजीपतियों-धन्नासेठों को टेक्स मे छूट देती है, मुनाफ़े की गारंटी देती है, विदेशी कंपनियों को यहाँ निवेश के लिए आकर्षित करती है और मुक्त व्यापार के नाम पर देश को निजीकरण, उदारीकरण और वैश्विकरण का शिकार बनाती है। मानवता के इतनी प्रगति के बावजूद लोग जानवर से भी गया-गुजरा जीवन जीने को मजबूर क्यों है? सारा करा कराया इस मुनाफ़े पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था का है।
दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं में गिरावट, देश की सरकारी नीतियों का पर्दाफाश, पूंजीवादी शिक्षा के काले दिन, तमाम मौलिक और सामाजिक सुरक्षा मे नाकामियाबी, देश की सीमाओं पर तनाव, एकाधिकार पूंजीपतियों का बाजार और छोटे-मोटे व्यापरियों को निगलना और साथ ही मजदूर-किसान-छात्र–नौजवानों का फूटता गुस्सा; इस व्यवस्था को पतन की तरफ धकेल रहा है। पूंजीवादी संकट को बेनकाब न होने देने के लिए पूंजीपति वर्ग अपने हथियार के रूप मे सरकार और उससे जुड़े जातिवादी, पित्रसत्तात्मक, रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी सोच वाले संगठनों के बल पर, अपने ही द्वारा बनाए गए पूंजीवादी जनवाद (लोकतन्त्र) की धज्जी उड़ाते हुये, फासीवाद को सामने रखता है जिसमे इस बेरोज़गारी का इस्तेमाल धर्म और जाति के झगड़ों और नफ़रत के ईंधन बतौर किया जाता है।
बेकारी से पीड़ित नौजवानों का गुस्सा पिछले एक समय मे तानाशाही सरकार और पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ राजस्थान समेत देश के अलग–अलग राज्यों मे फूटा है। सरकारी भर्ती प्रक्रिया, फीस बढ़ोत्तरी, रिज़ल्ट मे गड़बड़ियाँ, रिश्वतखौरी, पेपर लीक, सरकारी पदों में कटौती, शिक्षा बजट मे कमी आदि मुद्दों पर सड़क जाम, काले झंडे, ट्विटर ट्रेंड और मोदी के जन्मदिवस को “जुमला दिवस” और “राष्ट्रीय बेरोज़गारी दिवस” मना कर युवा बेरोजगारों ने केंद्र और राज्य की सरकारों को कढ़घरे मे खड़ा किया है। शर्म की बात है कि पूंजीवादी सरकारें और पूंजीपति भारत के विकासशील पैमाने के बतौर देश के युवाओं को काम का अधिकार, सम्मानजनक रोज़गार और उचित बेरोज़गारी भत्ता तक उपलब्ध नही करवा पाए हैं!!
बेरोज़गारी, भुखमरी, गरीबी आदि के लिए अपने आप को दोषी मानना इन समस्याओं का समाधान नहीं है। इसके लिए जिम्मेदार केवल यह पूंजीवादी व्यवस्था है जो हमारी मेहनत के बल पर खड़ी है, जहां केवल निजी संपति का बोलबाला है। हमने इतिहास मे रूस समेत अन्य देशों की समाजवादी क्रांतियों में देखा है कि जहां देश के तमाम उत्पादन के साधन और प्रकृतिक संसाधन जब मज़दूर किसान और तमाम मेहनतकश आबादी के पास गए और सहकारिता के माध्यम से देशों को समाजवाद की तरफ बढ़ाया गया, तो वहाँ बेरोज़गारी का कोई नामो-निशान नहीं बचा था। तो जरूरत है कि आज धर्म-जाति से ऊपर उठकर असली दुश्मन पर हमला करें। इस व्यवस्था को बदलकर एक ऐसी व्यवस्था के लिए संघर्ष करने की जरूरत है जिसका काम पूरे समाज का कल्याण करना हो और उस व्यवस्था को देश के आम मजदूर-किसान-नौजवान मिलकर मेहनतकश आबादी के हित मे चलाएँ। यह व्यवस्था केवल समाजवाद के लिए एकताबद्ध लड़ाई से ही हासिल की जा सकती है।
नौजवान पत्रिका ‘गोफण’ (अंक-1, जनवरी 2022) में प्रकाशित, साभार