टॉयोटा श्रमिकों को हड़ताल पर बैठे हुए 42 दिन हो गए हैं। आज फोर्ड, हुंडई, निसान, बीएमडब्ल्यू और वोल्वो के यूनियनों के प्रतिनिधियों ने टोयोटा का दौरा किया और निलंबन और प्रबंधन के मनमाने रवैया के खिलाफ संघर्ष कर रहे टॉयोटा श्रमिकों की हड़ताल के साथ एकजुटता और समर्थन व्यक्त किया।

वर्तमान में, बिदादी प्लांट में प्रति दिन 300 की जगह लगभग 80 कारें बन रही हैं। टोयोटा प्रबंधन ने सुपरवाइजरों और अन्य कर्मचारियों और अंडरटेकिंग भरकर अंदर गए श्रमिकों के साथ दिसंबर में पहले उत्पादन शुरू कर दिया। टोयोटा प्रबंधन का कहना है कि उत्पादन को जारी रखने के लिए और बाजार की मांग को देखते हुए लाइन चलानी जरूरी है।
टोयोटा मजदूरों की हड़ताल को 42 दिन से ज्यादा हो गए हैं मगर इससे टोयोटा प्रबंधन का व्यापार बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ है इसके पीछे जो कारण है वह कुछ इस प्रकार है
टोयोटा किर्लोस्कर मोटर की मारुति सुजुकी इंडिया के साथ व्यापारिक साझेदारी है जिसके तहत टोयोटा मारुति की बलेनो और ब्रेजा मॉडल की कार अपने ग्लैंजा और अर्बन क्रूज़र ब्रांड के नाम से बेचती है। अकेले यह दोनों ब्रांड बेचकर टोयोटा किर्लोस्कर मोटर 50% वाहन बिक्री पूरी कर लेती है। और मारुति के इन दोनों ब्रांडो का उत्पादन गुजरात स्थित सुजुकी मोटर कॉर्प और हरियाणा स्थित मारुति सुजुकी इंडिया के प्लांट में होता है। इस प्रकार लॉकआउट के बावजूद टोयोटा किर्लोस्कर मोटर का 50% वाहन स्टॉक यानि उत्पादन इन प्लांटों में सुरक्षित रहता है। इनोवा क्रिस्टा जो टोयोटा का सबसे ज्यादा बिकने वाला ब्रांड है फिलहाल उसका उत्पादन बंद है।
टीकेएम प्रबंधन का कहना है कि हड़ताल अवैध और गैरकानूनी है, जबकि मज़दूर असहमति के अपने अधिकार पर सवाल उठाते रहते हैं।
टीकेएमईयू के उपाध्यक्ष प्रदीप एन, कहते हैं कि “हम उन्हें बताना चाहते थे कि उन्हें हमारी स्वतंत्रता और अधिकार नहीं छीन सकते, लेकिन कंपनी ने बिना किसी सरकारी अनुमति के तालाबंदी कर दी और श्रमिकों को हटाने का फैसला किया। हमने तालाबंदी के फैसले का विरोध किया और इसे हटाने के लिए कहा। हमें बताया गया कि कंपनी फैक्ट्री के सामने विरोध करना गलत है। हमने मंत्री, श्रम विभाग, आदि सभी को पत्र लिखे फिर भी हम अभी सड़कों पर बाहर हैं और झूठे आरोपों का सामना कर रहे हैं।”
श्रमिकों ने कहा कि वे काम पर वापस जाने को तैयार हैं, लेकिन वे टीकेएम प्रबंधन और सरकार के साथ एक त्रिपक्षीय बैठक चाहते हैं।
टीकेएम के विक्रम किर्लोस्कर के अनुसार उन्हें मुख्यमंत्री और सरकार का पूरा समर्थन है। वहीं कर्नाटक का श्रम विभाग हड़ताल और तालाबंदी दोनों को अवैध बता रहा है। प्रबंधन लॉकआउट अड़ा हुआ है और वहीं टीकेएमईयू के अध्यक्ष प्रसन्ना ने कहा कि हड़ताल तब तक जारी रहेगी जब तक कि प्रबंधन मजदूरों से बात नहीं करता है। इस बीच आसपास की अन्य यूनियन और राजनीतिक दल मजदूरों के धरने पर पहुंचकर अपना समर्थन दे रहे हैं।
कर्नाटक राज्य की बीजेपी सरकार कि नाक के नीचे टोयोटा किर्लोस्कर और एप्पल की वेंडर विस्ट्रॉन के प्लांट में बीते दिनों जो कुछ हुआ, श्रम कानूनों को ताक पर रखकर जिस तरीके से मजदूरों से प्रोडक्शन कराया गया उससे स्पष्ट है कि मजदूरों के साथ अन्याय हो रहा है और इसमें श्रम विभाग की मिलीभगत है। दोनों प्लांटों में हुई घटनाएं यह साफ दिखाती है कि मुनाफे के लिए पूंजीपति किसी भी हद तक जा सकते हैं।
मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री खासकर ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री किसी भी कीमत पर परमानेंट नौकरी और यूनियन को खत्म करना चाहती है क्योंकि अन्य क्षेत्रों के मुकाबले यहां परमानेंट मजदूरों का वेतन ज्यादा है। कोरोना महामारी के नाम पर पूंजीपतियों को श्रम कानूनों का उल्लंघन करने और बेलगाम से के लिए मजदूरों को मोहरा मनाने की छूट मिली है।
टोयोटा, विस्ट्रॉन और होंडा का मामला किसी एक प्लांट का मामला नहीं है यह पूंजीपतियों की और सरकार का मज़दूर वर्ग के ऊपर नीतिगत हमला है। नए श्रम कानूनों की आड़ में मोदी सरकार इस हमले को और तेज कर देगी। ऐसे में संगठित क्षेत्र की यूनियनों के लिए बिना इलाकाई एकता कायम किए हुए बड़ी से बड़ी यूनियन के लिए अपना वजूद कायम रखना और पूंजीपतियों से प्लांट स्तर पर लड़ पाना मुश्किल होगा। पूंजीपतियों के खिलाफ लड़ाई में इलाकाई एकता मजदूरों के जीत की गारंटी नहीं है बल्कि इस लड़ाई की न्यूनतम आवश्यकता है।
पिछले 1 साल में ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री के मुख्य उत्पादन केंद्र गुड़गांव से लेकर बावल तक के औद्योगिक क्षेत्र में एक दर्जन कंपनियां बंद हुई और होंडा, हीरो, मारुति जैसी कंपनियों से लाखों मजदूरों की छंटनी हुई है। प्लांट स्तर पर यूनियन होने के बावजूद इलाकाई एकता कायम ना होने की वजह से मजदूरों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। सार्वजनिक क्षेत्र की यूनियनें भी स्थाई नौकरी बचाने के लिए और निजीकरण के खिलाफ ट्रेड यूनियन के ढांचे के भीतर ही लड़ाई करते हुए असफल रही है। इसका बड़ा उदाहरण रेलवे, बिजली विभाग, बीएसएनएल जैसी सरकारी कंपनियां है जो मजदूरों की बड़ी संख्या होने के बावजूद जिंदा संघर्ष से दूर भागने की वजह से निजीकरण की कगार पर हैं।
इस बीच खबर आ रही है कि कर्नाटक के ही बेलगावी में एक्वस सेज नाम की कंपनी ने 233 परमानेंट कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया है।