इस सप्ताह : लॉक डाउन के बीच चार कविताओं के विविध रंग !

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हम तो बहुत कम हैं / संजीव कुमार

तुम जा रहे हो तो जाओ
लेकिन तुम आए क्यों थे?
ये भी याद करो
जब आए थे तब भी वहाँ कह कर आए थे?
‘यही कि हम जा रहें हैं’
क्या छोड़कर आए यहाँ
भूखी माँ, बीमार बाप, गर्भवती बीवी और कुवाँरी बहन
भूखी माँ और बीमार बाप तो मर गया
बहन की शादी तो कर दी तूने
अब क्या बचा वहाँ तुम्हारा
झोपड़ी तो टूट गयी
और वैसे भी वहाँ हमारी गाय बंधती है
हम भी तो आए थे यहाँ जब तुम आए थे
बड़े सपने लेकर कुछ कॉपी और किताब लेकर
लेकिन सरस्वती को पूजने लगे तुम
छठ करने लगे तुम
तुम तो बाढ़ की तरह बढ़ने लगे
चले तो तुम पंजाब के लिए थे
वहाँ भी तुम कह कर निकल लिए
जा रहें हैं हम
गए तो तुम मुंबई और गुजरात भी
वहाँ से भी यही कह कर निकल लिए
जा रहें हैं हम
भला कोई बात हुई
वैसे तो हम रोक लेते तुम्हे
लेकिन क्या करें ,राशन बहुत कम है
यदि ये नहीं होता
तो कोई और उपाय करते
तुमसे कहवाने का कि ‘जा रहें हैं हम’
हमने तो सोचा था कि जब हम कहेंगे “लॉकडाउन”
तो और बातों कि तरह तुम ये बात भी मान लोगे
और कर लोगे अपने आप को ‘लॉक’ और हो जाओगे ‘डाउन’
देखोगे रामायण दूरदर्शन पर
बाँधोगे अंगोछा अपने पेट पर
और कसते जाओगे अंगोछा तब तक जब तक सिर्फ अंगोछा ही न बच जाए
और हम फेकवा देते कहीं गड्ढा कर
लेकिन तुमने तो छेड़ दी महाभारत खाली सड़क पर
हमें डर लगता है समंदर की तरह तुम्हें देख कर
क्या करे हम तो बहुत कम हैं
खैर जाते हो तो जाओ
लेकिन याद रखना इस बार
इंतज़ाम पुख़्ता है
यहाँ नही तो वहाँ सही
कुछ तो कम होगे
क्योंकि इक्कीस बयालीस भी होगा
और फिर….
क्या करें डर लगता है
क्योंकि हम तो बहुत कम हैं
हमें डर लगता है बाढ़ से, तूफ़ान से, भूकंप से, कोरोना से और तुम से
क्योंकि
हम तो बहुत कम हैं।


यह सर्कस नहीं है / आदित्य कमल

यह हास्य नहीं है, यह व्यंग्य भी नहीं है
यह मनमर्जी भरा कोई हुड़दंग भी नहीं है।

यह तो भूखों के साथ किया जा रहा क्रूर मज़ाक है
जहाँ अव्यवस्था है, कुछ भी नहीं ठीक-ठाक है…
वहाँ ‘सब ठीक है’ का भ्रम है, भुलावा है
भाई मेरे, यह छल है, दिखावा है ..दिखावा है।

असल में एक तरफ कुआँ है, दूसरी तरफ खाई है
बीच में बज रही बे-वक़्त की शहनाई है
यह मूर्खता नहीं, मूर्ख बनाने की शातिर रणनीति है
तुम तो बस ये सोचो कि तुम पर क्या बीती है ?

सोचो, सोचो, सोचो ! यह ज़िन्दगी है, सर्कस नहीं है
मदारी-जमूरे के खेल का तू महज़ दर्शक नहीं है।


यह सभ्यता / संजय कुंदन

महामारी से नष्ट नहीं होगी यह सभ्यता
महायुद्धों से भी नहीं
यह नष्ट होगी अज्ञान के भार से

अज्ञान इतना ताकतवर हो गया था
कि अज्ञानी दिखना फैशन ही नहीं
जीने की जरूरी शर्त बन गया था

वैज्ञानिक अब बहुत कम वैज्ञानिक
दिखना चाहते थे
अर्थशास्त्री बहुत कम अर्थशास्त्री
दिखना चाहते थे
इतिहासकार बहुत कम इतिहासकार

कई पत्रकार डरे रहते थे
कि उन्हें बस पत्रकार ही
न समझ लिया जाए
वे सब मसखरे दिखना चाहते थे

हर आदमी आईने के सामने खड़ा
अपने भीतर एक मसखरा
खोज रहा था
इस कोशिश में एक आदमी
अपने दोस्तों के नाम भूल गया
एक को तो अपने गांव का ही नाम याद नहीं रहा

बुद्धि और विवेक को खतरनाक
जीवाणुओं और विषाणुओं की तरह
देखा जाता था
जो भयानक बीमारियां पैदा कर सकते थे
इसलिए गंभीर लोगों को देखते ही
नाक पर रूमाल रख लेने का चलन था

एक दिन अज्ञान सिर के ऊपर बहने लगेगा
तब उबरने की कोई तकनीक, कोई तरीका किसी
को याद नहीं आएगा
तब भी मसखरेपन से बाज नहीं आएंगे कुछ लोग
एक विद्रूप हास्य गूंजेगा
फिर अंतहीन सन्नाटा छा जाएगा।


इस पृथ्वी को नष्ट करने के लिए / स्वप्निल श्रीवास्तव

इस पृथ्वी को नष्ट करने के लिए
किसी दूसरे ग्रह के लोग
नही आएंगे
इस पृथ्वी को नष्ट करने के लिए
हम ही काफी है

हम जंगलों को नेस्तनाबूद कर देंगे
नदियों में भर देगे प्रदूषण
हवाओं में बारूद बिखेर देगे

नए नए युद्ध की खोज करेगे
और अपने हथियार बेचेंगे

लोगो के बीच इतनी घृणा भर देगे
कि लोग एक दूसरे के दुश्मन
बन जायेंगे
प्रेम का कोई नामोनिशान नही
रह जायेगा

हम राष्ट्राध्यक्षों के गुलाम बन जायेंगे
उनके हर हुक्म की तामील करेगे
उन्हें देवता बना कर उनकी भक्ति
करने लग जायेंगे

वे हमें जेहाद के लिए ललकारेंगे तो
हम बंदूक उठा कर अपने ही लोगो
को निशाना बनायेगे

हम जिस डाल पर बैठे हैं
उसे काटने लग जायेंगे
फिर पेड़ के साथ धम्म से गिर
जायेगे

हम अद्भुत लोग हैं
चमत्कारों के भरे हुए हैं
हमारे कारनामें