सिंगरेनी कोयला खदान की समस्याएं

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देश में कोयला खदानों, वहाँ के मज़दूरों और कार्यस्थितियों में लगातार संकट गहराता जा रहा है। स्थितियां भयावह हैं और लगातार उपेक्षा की शिकार हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी सिंगरेनी कोयला खदान के हालात देश के कोयला खदानों की बानगी है।

तेलंगाना के खम्मम जिला स्थित इलन्दु आसियाखंडम स्थित सिंगरैनी विगस्ट कोल माइन्स पब्लिक सेक्टर का कोयला खदान है। यह वर्ष 1889 में शुरू हुआ था। यहाँ से निकलने वाली कोयले का 80 फीसदी हिस्सा बिजली के लिए तथा 20 फीसदी सीमेंट व अन्य चीजों के लिए इस्तेमाल होता है।

ठेकेदारों की बल्ले-बल्ले

हालात की भयावहता को ऐसे समझा जा सकता है कि 1991 में सिंगरेनी कोयला खदान में लगभग 1 लाख 70 हजार मज़दूर काम करते थे, जिनकी संख्या घटकर वर्ष 2018 में मात्र 48 हजार रह गई। यहाँ करीब 30 हजार मज़दूर ठेकेदारी में काम कर रहे हैं। यहाँ का बजट 32000 करोड़ रुपये है। इसका आधा हिस्सा इनकम टैक्स विभाग और केंद्र व राज्य सरकारों के हिस्से जाता है, जबकि 50 फीसदी निजी ठेकेदारों के पास चला जाता है। 2018 में ठेकेदारों का मुनाफा 1,200 करोड़ रुपये था।

यहाँ एक मिलियन टन कोयला निकलता है, पर सुरक्षा के कोई पुख़्ता उपाय नहीं है, दुर्घटनाएं होती रहती हैं। औसतन कम से कम 2 मजदूरों को अपनी जान गंवानी पड़ती है।

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ओवर ग्राउण्ड माइंस का बढ़ता जोर

1991 में भूमिगत खदानों की संख्या 54 थी। नव उदारवादी नीतियों के कारण 2018 में 29 रह गईं। इनकी जगह पर ऊपरी खदानों (ओवर ग्राउंड माइन्स) पर जोर बढ़ता गया। 5 ऊपरी खदानों से शुरू होकर इनकी संख्या आज 30 तक जा पहुँची है। यही नहीं, 13 और खुली खदानों के लिए सरकार के पास प्रस्ताव भेजा जा चुका है। इसी के साथ सिंगरेनी में नई भर्ती पर रोक लगा दी गई। जो स्थाई मज़दूर रिटायर हो रहे हैं उनकी जगह पर ठेका प्रक्रिया में भर्ती की जा रही है। खुली खदानों के लिए कम से कम 2 या 3 हजार एकड़ आदिवासी जमीन को लिया जा रहा है। इसके लिए भारत सरकार द्वारा पारित आदिवासी भूमि अधिग्रहण कानून 1971 और पेसा कानून को ताक में रखकर खदान शुरू किया जा रहा है।

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खुली खदानों की वजह से पूरे इलाके में भयंकर रूप से पर्यावरण प्रदूषण पैदा हो चुका है। आस-पास के गांव में टीवी जैसी खतरनाक बीमारियां फैल रही हैं। इससे गांव का जलस्तर लगातार नीचे गिर रहा है। किसानों को खेती और पीने के पानी के लिए ढेरों परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं के मद्देनजर आदिवासी व क्रांतिकारी संगठन खुले खदानों की जगह भूमिगत खदानों को बढ़ाने की माँग लगातार कर रहे हैं।

अस्थाई मज़दूरों का संघर्ष

ठेका मजदूरों को खदानों और उनकी कोयला उत्पादन की क्षमता अनुसार उचित मजदूरी का भुगतान नहीं किया जा रहा है। जेबीसीसीआई के अनुसार हाई पॉवर कमिटी द्वारा 2012 में तय किया गया न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जा रहा है। तय की गई मज़दूरी के लिए आईएफटीयू ने मार्च 2015 में 35 दिन की हड़ताल की। तेलंगाना सरकार और पुलिसिया दबाव के बीच दमन के बाद मजदूरों की हड़ताल समाप्त हुई।

महिला मजदूरों को बोनस भुगतान के लिए 2017 में 9 दिनों की हड़ताल के बाद बोनस का अधिकार हासिल हुआ।

2016 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया ‘समान काम समान वेतन’ कानून का सिंगरेनी खदानों में जो कि सार्वजनिक क्षेत्र का है, कोई अनुपालन नहीं किया जा रहा है। इस मुद्दे को लेकर मासा और आईएफटीयू के बैनर तले मजदूरों ने 2017 में हैदराबाद मासा कन्वेंशन में आवाज बुलंद की थी। 2017 के मार्च में ‘समान काम समान वेतन’ के लिए दिल्ली के जंतर मंतर में धरना प्रदर्शन किया गया।

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स्थाई कामगारों की समस्याएं

स्थाई मजदूरों को इनकम टैक्स की वजह से साल में प्रत्यक्ष कर प्रणाली द्वारा उनकी वार्षिक कमाई से 90 हजार रुपए टैक्स लिया जा रहा है। इसके खिलाफ सभी संगठन अलग अलग विरोध कर रहे हैं।

1991 में सिंगरेनी में डिपेंडेंट्स स्कीम रद्द ि मेंकया गया, जिसको लागू करने के लिए मजदूरों का संघर्ष जारी है।

मजदूरों को स्थाई कामगार भर्ती के लिए लगातार संघर्ष किया जा रहा है।

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इन सारी विकट स्थितियों के बावजूद पूर्ववर्ती आन्ध्र व अलग राज्य बनने के बाद तेलंगाना सरकार द्वारा मजदूर हित में कोई भी योजना नहीं ली जा रही है।

(आईएफटीयू के कॉमरेड रासुद्दीन से कुन्दन द्वारा बातचीत पर आधारित)
‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका, मार्च-अप्रैल, 2019 में प्रकाशित