कोरोना की नई लहर और पाबंदियों के बीच आमजन

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ध्वस्त अस्पताल, पस्त जनता, मस्त सरकार

एकबार फिर कोरोना का कहर बरपा होने लगा और चौतरफा ख़ौफ का मंजर कायम है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 23 फरवरी को भारत में कोविड-19 की नईं किस्में मिलने की घोषणा की। मार्च में पाबन्दियों का नया दौर शुरू हुआ। अप्रैल मध्य में चुनावी हलकों और कुम्भ क्षेत्र को छोड़कर कर्फ्यू व बंदिशें लग गईं। आईपीएल धूम के बीच आधी-अधूरी खुली शिक्षण संस्थाओं को बंद करने का हुक़्म जारी हो गया।

पाँच राज्यों में चुनाव हैं। यूपी में पंचायत के चुनाव चलते रहे। पश्चिम बंगाल में आठ चरणों का चुनावी जलसा जारी रहा। प्रधनमंत्री से लेकर देश के गृहमंत्री तक की बड़ी-बड़ी रैलियाँ होती रहीं। हजारों-लाखों की भीड़, ना कोई मास्क, ना कोई शारीरिक दूरी, लेकिन यहाँ कोरोना गायब है। बिहार के चुनावी जलसे से भी कोरोना नहीं फैला। हरिद्वार कुम्भ में लाखों की भीड़ गंगा में डुबकी लगाती रही, साधुओं-नागाओं की रैलियाँ निकलती रहीं, कोई पाबन्दी नहीं है।

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ढ़हती स्वास्थ्य सेवा व कोरोना हौव्वा

कोरोना के बहाने हुकूमतों द्वारा जनता को दिए गए जख़्म अभी भरे भी नहीं थे कि दूसरी लहर का हौव्वा खड़ा हो गया। नए सिरे से अनेकों दमनकारी पाबंदियाँ थोपी जाने लगीं। पेनाल्टी द्वारा जनता से वसूली का धंधा शीर्ष पर है। कोरोना के ख़ात्मे के बहाने टेस्टों और टीकाकरण मुहिम के जरिए अथाह मुनाफा कमाने का गोरखधंधा पूँजीवाद के हाथ लगा है।

उधर सरकार “टीका उत्सव” में व्यस्त है, इधर पहले से ही जर्जर देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ भरभराकर ढ़ह रही हैं। अस्पतालों में बिस्तरों, दवाओं, आक्सीजन तक का अभाव सामने है। कोरोना से इतर बीमारियों का इलाज असंभव हो गया है। सरकार की जनविरोधी नीतियों से कोरोना से भी कहीं अधिक मौतें दूसरी बीमारियों, बेइंतेहाँ महँगे हो चुके इलाज से वंचित होने, बेकारी व भुखमरी से हो रही हैं।

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मज़दूरों की तबाही, स्कूलों की बर्बादी

कोरोना के बहाने सरकार के दमनकारी क़दमों से करोड़ों मज़दूर दर-बदर हुए। करोड़ों मजदूरों को बेरोजगारी झेलनी पड़ी। छोटे-मोटे काम-धंधे वाले लोगों को बड़े स्तर पर तबाही झेलनी पड़ी। मिलने वाली थोड़ी-बहुत स्वास्थ्य सुविधाएं भी ठप्प हो गईं। लॉकडाउन में सबको वेतन देने की घोषणा जुमला साबित हुआ।

बुरा असर शिक्षण संस्थाओं को बंद करने के सुनियोजित नीति से हुआ। ऑनलाइन शिक्षा के व्यापार के फलने-फूलने के बीच बच्चों का भविष्य अंधकार में बदलता गया। सामूहिकता की संस्कृति नष्ट करने का कुचक्र चला।

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आपदा बना मुनाफाखोरों का अवसर

आपदा पूँजीवादी जमात के लिए अवसर में बदल गया। पहले दौर की कोरोना पाबंदियों के बीच मज़दूर वर्ग के श्रम क़ानूनी अधिकारों को छीनने का काम एक झटके में हो गया। जनविरोधी तीन कृषि क़ानून तुरंत पारित हो गये। सार्वजनिक संपत्तियों को बेचने, सरकारी संस्थाओं के निजीकरण की गति बेलगाम हो गई है। मज़दूर वर्ग की लूट-खसोट के लिए पूँजीपति वर्ग को पहले से भी ज्यादा मुफीद हालात मिल गए। साथ ही आरएसएस व कॉर्पोरेट हितैषी नई शिक्षा नीति तुरत पारित व लागू हो गई।

इसी दौरान मोदी जमात की सारी तिक़डमों व दमन के बावजूद कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ विशाल जनसंघर्ष जारी है। इस आंदोलन को कुचलने के लिए सरकार कोरोना के बहाने तरह-तरह की पाबंदियाँ थोपने लगी है।

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सरकार के इरादों को समझना होगा

कोरोना काल के सवा साल के दौरान यह स्पष्ट हो चुका है कि यह महामारी नहीं है, बल्कि एक आम बीमारी है। इससे निपटने के लिए सरकार को किसी भी तरह की पाबंदियों की जरूरत नहीं। सिर्फ गंभीर बीमारियों से जूझते लोगों को इसके संक्रमण से बचाने की जरूरत है जैसे दूसरे वायरस के संक्रमण से बचाने की जरूरत होती है। जरूरत सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने की है।

लेकिन शासकों का मकसद मुनाफाखोरों की हित सेवा है। साथ ही वैक्सीन के धंधे को सफल बनाना भी है। साफ है कि मुनाफे के हित में सरकारें कोरोना के बहाने जनविरोधी व दमनकारी क़दमों का दायरा और बढ़ाएंगी। पहले से ही भयानक लूट, दमन, बदहाली, दुख-तक़लीफें झेल रहे लोग और अधिक आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक हमले झेलेंगे।

कॉर्पोरेट-सरकार गंठजोड के नापाक इरादों और इस हमले को समझना होगा।

(‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका, अप्रैल-जून, 2021 में प्रकाशित)