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कोटा में ख़ाली हॉस्टल और गिरती चमक, क्या उखड़ रहे हैं कोचिंग इंडस्ट्री के पांव?- ग्राउंड रिपोर्ट

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December 17, 2024
in Home Slider, राजनीति / समाज
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कोटा में ख़ाली हॉस्टल और गिरती चमक, क्या उखड़ रहे हैं कोचिंग इंडस्ट्री के पांव?- ग्राउंड रिपोर्ट
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आठ मंज़िला हॉस्टल के पहले फ़्लोर पर बने एक कमरे में सोनू गौतम पिछले दो साल से रह रहे हैं. वे उत्तर प्रदेश में कानपुर के रहने वाले हैं. एक सिंगल बेड, चाय बनाने के लिए छोटा सिलेंडर और हर तरफ बिखरी किताबों और नोट्स के बीच वो बैठे हैं. 2500 रुपये महीने किराए के इस कमरे में सोनू अकेले रहते हैं. उनके ज़्यादातर दोस्त कोटा शहर छोड़ चुके हैं.

कभी उनका ये हॉस्टल छात्रों की चहल पहल से गुलज़ार रहता था. अब ये लगभग ख़ाली सा पड़ा है. सोनू कहते हैं, “अब बच्चे कम हो गए हैं. कोचिंग में भी पहले जितने बच्चे नहीं दिखते. दो साल से घर नहीं गया हूं. घर जाऊंगा तो गांव वाले पूछेंगे कि अब तक क्यों नहीं हुआ.”

हिंदी मीडियम से पढ़े सोनू के लिए इंग्लिश में कोचिंग करना एक चुनौती तो है ही, साथ ही शहर का बदलता माहौल भी कम मुश्किल भरा नहीं है. अब उनका ज़्यादातर समय पढ़ते और खुद से बातें करते बीतता है क्योंकि बात करने के लिए साथ कोई है नहीं. हॉस्टल के आधे से ज़्यादा कमरों पर ताले लटके हुए हैं. ये हाल सिर्फ सोनू गौतम के हॉस्टल का नहीं है. इस ख़ालीपन की मार शहर से करीब दस किलोमीटर दूर 25 हजार छात्रों के लिए बसाई गई पूरी कोरल पार्क सिटी झेल रही है. यहां पिछले कुछ सालों में छात्रों के लिए 350 से ज्यादा हॉस्टल बनाए गए हैं. कामयाबी के ख़्वाब, दुनिया जीत लेने का जज़्बा और आगे बढ़ने की उम्मीदें लेकर देश के कोने-कोने से लाखों छात्र हर साल कोटा पहुंचते हैं.

पिछले दो दशक में दस लाख की आबादी वाले कोटा शहर में कई इलाके हॉस्टल में तब्दील हो चुके हैं. हर तरफ इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी करने वाले छात्र दिखाई देते हैं. लेकिन अब कोटा की चमक धीरे धीरे फीकी पड़ रही है. छात्रों के दम पर अरबों रुपए की कोटा कोचिंग इंडस्ट्री की सांसें अब फूलने लगी हैं. जो हॉस्टल छात्रों की चहल-पहल से गुलज़ार रहते थे, अब वहां कमरों पर ताले लटके हैं और खिड़कियां सूनी पड़ी हैं. इसका असर हॉस्टल इंडस्ट्री ही नहीं बल्कि शहर के बाक़ी लोगों पर भी पड़ा है. जो छात्र कोटा की अर्थव्यवस्था की बैकबोन कहे जाते थे जब उन्हीं की संख्या कम होगी तो अर्थव्यवस्था पर असर पड़ना लाज़िमी है.

सवाल है कि आखिर आईआईटी और नीट कोचिंग के नाम पर जिस कोटा का नाम लोगों के ज़ेहन में सबसे पहले आता है, उसकी ऐसी स्थिति क्यों हो रही है? बच्चे कोचिंग के लिए कम क्यों पहुंच रहे हैं? और क्या कोटा इस संकट से उबर पाएगा? कोटा कोचिंग इंडस्ट्री से जुड़े लोगों का कहना है कि इस साल करीब तीस प्रतिशत छात्र शहर में कम आए हैं. 90 के दशक में वीके बंसल ने कोटा के विज्ञान नगर से बंसल क्लासेज की शुरुआत की थी. कुछ बच्चों को कोचिंग देने से शुरू हुआ ये सिलसिला देखते ही देखते एक बड़े कारवां में तब्दील हो गया. उनके बाद इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी करवाने के लिए कई कोचिंग इंस्टीट्यूट ने कोटा को अपना केंद्र बना लिया और धीरे धीरे ये शहर कोचिंग इंडस्ट्री के रूप में बदल गया.

नेशनल टेस्टिंग एजेंसी के मुताबिक़, साल 2024 में करीब 23 लाख छात्रों ने नीट और करीब 12 लाख छात्रों ने जेईई की परीक्षा दी. कोटा हॉस्टल एसोसिएशन के अध्यक्ष नवीन मित्तल का कहना है कि पिछले दो दशक में यह पहली बार है जब कोटा आने वाले छात्रों की संख्या में 25 से 30 प्रतिशत की कमी आई है. वे कहते हैं, “कोरोना के बाद इतने बच्चे आए, जिसकी उम्मीद कोटा ने कभी नहीं की थी, लेकिन धीरे धीरे बच्चों की संख्या कम हो रही है. इस साल तो हालात ये हैं कि करीब एक या सवा लाख बच्चे ही कोटा आए हैं.” कोचिंग के लिए आने वाले छात्रों के लिए कोटा में हर तरफ हॉस्टल दिखाई देते हैं. दक्षिण कोटा का विज्ञान नगर, महावीर नगर, इंदिरा कॉलोनी, राजीव नगर, तलवंडी और उत्तर कोटा की कोरल सिटी छात्रों का गढ़ हैं.

लेकिन अब इन इलाकों में हर तरफ हॉस्टल या घरों के बाहर ‘टू लेट’ लिखा दिखाई देता है. बाहर से चमकती हुई कई इमारतों के अंदर कमरों पर ताले लटके हुए हैं, तो कुछ हॉस्टल ऐसे हैं, जिन्हें लोगों ने कम किराए की वजह से बंद कर दिया है. नवीन मित्तल कहते हैं, “करीब 30 प्रतिशत बच्चों की कमी के कारण हमारी इंडस्ट्री छह हज़ार करोड़ रुपए से अब तीन हजार करोड़ रुपये पर आ गई है.” विज्ञान नगर में मेस के साथ हॉस्टल चलाने वाले संदीप जैन कहते हैं, “यह कोटा में कोचिंग का सबसे पुराना इलाक़ा है. यहीं से बंसल सर ने कोचिंग शुरू की थी.”

ऐसा ही हाल कोटा के रहने वाले दीपक कोहली का है. वे पिछले 25 सालों से हॉस्टल इंडस्ट्री से जुड़े हुए हैं. वे 50 कमरों का एक हॉस्टल राजीव नगर में, 20 कमरों का एक पीजी विज्ञान नगर में और 50 कमरों का एक हॉस्टल कोरल सिटी में चला रहे हैं. कोहली कहते हैं, “राजीव नगर में एक साल पहले हम एक कमरे का किराया 15 हज़ार रुपये ले रहे थे आज वह आठ हज़ार पर आ गया है, वहीं विज्ञान नगर में जो पीजी का किराया पांच हज़ार था, उसे कोई तीन हज़ार रुपये में भी नहीं ले रहा है. हमारे सभी हॉस्टल आधे से ज़्यादा ख़ाली पड़े हैं” कोरल सिटी में ही हॉस्टल चलाने वाले मुकुल शर्मा भी परेशान नजर आते हैं. वे हॉस्टल इंडस्ट्री में साल 2009 से हैं, और यहां 75 कमरों का एक हॉस्टल चला रहे हैं. शर्मा कहते हैं, “हमारे पास लोकेशन अच्छी थी. उम्मीद थी कि हॉस्टल भरकर चलेगा लेकिन अभी आधे से ज़्यादा ख़ाली पड़ा है. हॉस्टल बनाने में करीब चार करोड़ रुपए का खर्चा आया, उस हिसाब से महीने के चार लाख रुपये बचने चाहिए थे, लेकिन अभी हालात ये हैं कि मुश्किल से लाख रुपये भी नहीं बच पा रहे हैं.”

वे कहते हैं, “बच्चे कम आने से किराया भी कम हो गया है. जिन सुविधाओं के साथ हम एक बच्चे से 15 हज़ार रुपए लेते थे, अब 8 हज़ार रुपये ही ले रहे हैं, जबकि समय के साथ चीज़ों के दाम बढ़ रहे हैं. लोन की किस्तें चुकाना भी मुश्किल हो रहा है.” कोटा में पुरानी साइकिल खरीदना और बेचना एक बड़ा व्यवसाय है. शहर में पहुंचते ही ज़्यादातर बच्चे सबसे पहले अपने लिए एक साइकिल का इंतजाम करते हैं. विज्ञान नगर में राजू साइकिल स्टोर के मैनेजर दिनेश कुमार भावनानी कहते हैं, “ज़्यादातार बच्चे पुरानी साइकिल खरीदते हैं, क्योंकि वह ढाई से तीन हज़ार रुपए तक मिल जाती है, वहीं नई साइकिल के लिए करीब 10 हज़ार खर्च करने पड़ते हैं.” वे कहते हैं, “हमें एक दुकान बंद करनी पड़ी. पहले दुकान पर चार लोग काम करते थे, अब एक आदमी का भी ख़र्चा निकालना मुश्किल हो रहा है. यही हाल रहे तो ये सब बंद हो जाएगा.” इस मुश्किल स्थिति से विज्ञान नगर में दो दशकों से हॉस्टल के साथ मेस चलाने वाले संदीप जैन भी जूझ रहे है. वे कहते हैं, “पहले 500 से 700 छात्र मेरे यहां खाना खाते थे लेकिन अब बच्चे आधे रह गए हैं. जहां पहले 20 लोगों का स्टाफ़ रहता था, वहीं इस साल मुझे पांच लोगों से ही काम चलाना पड़ रहा है.” महावीर नगर में चाय की दुकान चला रहे मुरलीधर यादव कहते हैं, “पहले भीड़ रहती थी. एक मिनट बात करने का समय नहीं मिलता था. हम हर रोज़ 80 किलो दूध की चाय बेच देते थे, आज 40 किलो दूध भी नहीं लगा पा रहे हैं.”

वहीं कोचिंग सेंटर के दूसरे गढ़ कोरल पार्क सिटी में ऑटो चलाने वाले प्रेम सिंह कहते हैं, “पहले हम एक दिन में एक हज़ार रुपए से ज़्यादा कमा लेते थे, लेकिन अभी 500 रुपये भी कमाना मुश्किल हो गया है.” प्रेम सिंह कहते हैं, “इस बार बच्चे, रुपये में चवन्नी आए हैं. हमारा धंधा बच्चों से चलता है. अगर ये ही हाल रहे तो हमारा ऑटो, लोन वाले उठाकर ले जाएंगे.” शहर में बच्चों की घटती संख्या से दक्षिण कोटा के उपमहापौर पवन मीणा भी चिंतित नज़र आते हैं. वे कहते हैं, “बच्चों की कमी के कारण पूरे कोटा को नुकसान उठाना पड़ रहा है, क्योंकि उनका शहर की अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान है. “

मीणा कहते हैं, “नगर निगम के स्तर पर हम हर संभव कोशिश कर रहे हैं कि बच्चों को कोई परेशानी ना आए. पानी, बिजली और इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बना रहे हैं, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे शहर में आएं.” ऐसे कई कारण हैं, जिनकी वजह से बड़े पैमाने पर छात्र और अभिभावक कोटा से मुंह मोड़ रहे हैं. कोटा में साल 2023 में 23 छात्रों ने आत्महत्या की. साल 2015 के बाद ये पहली बार था जब छात्रों ने इतनी बड़ी संख्या में ऐसे क़दम उठाए. बिहार के रहने वाले आदित्य कुमार अपनी क्लास के 10 बच्चों के साथ दो साल पहले कोटा गए थे. मकसद था- आईआईटी में दाख़िला, लेकिन अब वे और उनके सभी साथी वापस पटना या बिहार के ही दूसरे शहरों में लौट आए हैं और वहीं रहकर ही तैयारी कर रहे हैं. पटना में बीबीसी संवाददाता सीटू तिवारी से बात करते हुए आदित्य ने कहा, “2024 में हम सभी बच्चे वापस आ गए. वहां लगातार सुसाइड की ख़बरें मिलती हैं, जिसके कारण हम परेशान हो जाते थे. इसके अलावा वहां टेस्ट के बाद बच्चों को छांट दिया जाता है और नीचे के बैच पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता.”

उन्हीं के साथ कोटा से वापस लौटे बेगूसराय के साकेत कहते हैं, “आप जिसके साथ बैठकर खाना खाते हैं, पता चलता है कि उसने सुसाइड कर लिया. ऐसे में आप पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पाते.” पटना में इन छात्रों को कोचिंग देने वाले डॉक्टर कौमार्य मनोज कहते हैं, “90 के दशक में बिहार का माहौल खराब था, जिसकी वजह से कोटा का जन्म हुआ.” “जो माता-पिता अपने बच्चों पर एक लाख रुपये खर्च कर सकते थे, वो रंगदारी और किडनैपिंग से अपने बच्चों को बचाने के लिए कोटा भेज देते थे.” वे कहते हैं, “अब बिहार का माहौल अच्छा है. देश के बड़े कोचिंग संस्थानों ने अपने सेंटर पटना में खोल लिए हैं. इसलिए माता-पिता कोटा भेजने के बजाय पटना में ही बच्चों को पढ़ाना पसंद कर रहे हैं. कोटा पहुंचने में 26 घंटे लगते हैं, जबकि पटना में माता-पिता घंटे दो घंटे में अपने बच्चों से मिल लेते हैं.”

पिछले एक साल में कोटा में छात्रों की कमी के कारण कई हॉस्टल बंद हो गए हैं. कोटा में छात्रों की बढ़ती आत्महत्या की घटनाओं और पढ़ाई के प्रेशर को कम करने के लिए हाल ही में शिक्षा मंत्रालय ने न्यू एजुकेशन पॉलिसी 2020 के तहत गाइडलाइन फॉर रजिस्ट्रेशन रेगुलेशन कोचिंग सेंटर 2024 जारी की है. इसका एक मुख्य प्रावधान यह है कि अब 16 साल से कम उम्र के छात्र कोचिंग सेंटरों में दाख़िला नहीं ले सकते हैं. शहर में कई ऐसे संस्थान हैं जो पहले छठी क्लास के बाद से बच्चों को कोचिंग दे रहे थे, लेकिन अब इसे बंद कर दिया गया है. नवीन मित्तल के मुताबिक़, ऐसे छात्रों की संख्या क़रीब 10 प्रतिशत तक थी. मित्तल इन नियमों का विरोध करते हैं.

वे कहते हैं, “इस तरह की बाध्यता नहीं होनी चाहिए. आप देखिए आईपीएल में अभी 13 साल के वैभव सूर्यवंशी को राजस्थान रॉयल्स ने खरीदा है. जब खेल में ऐसा कोई नियम नहीं है तो फिर कोचिंग के साथ भी ऐसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि दबाव तो हर फ़ील्ड में है.” वहीं दूसरी तरफ़ ईकोर्स के फ़ाउंडर सोमवीर तायल का मानना है कि कोटा में बच्चों का कम होना शहर के लिए तो तकलीफ़ की बात है लेकिन छात्रों और शिक्षा उद्योग के लिए यह एक सकारात्मक कदम है. वे कहते हैं, “कोटा, कोचिंग इंडस्ट्री का गढ़ बना गया था. साल 2020 के बाद कोचिंग से जुड़े बड़े संस्थानों ने अच्छा फ़ंड जमा किया और अपने बिजनेस को दूसरे राज्यों में फैलाया.” हालांकि कई माता-पिता ऐसे भी हैं, जो इस डर के बावजूद अपने बच्चों को कोटा में पढ़ा रहे हैं. धौलपुर के रहने वाली प्रीति जादौन और उनके पति जय सिंह जादौन हर महीने अपनी बेटी कनक जादौन से मिलने कोटा आते हैं. प्रीति जादौन के बेटे पुनीत ने कोटा में रहकर ही नीट की तैयारी की और अब वे एक सरकारी कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे हैं. वे कहती हैं, “बच्चा घर से पहली बार बाहर निकलता है. उसे अकेलापन महसूस होता है. पढ़ाई के दौरान तनाव भी आता है. ऐसे में मैं कोशिश करती हूं कि हर महीने आकर अपनी बेटी से मिलूं, ताकि उसे घर जैसा माहौल मिल सके.”

प्रीति कहती हैं, “मीडिया में जब आत्महत्या की ख़बरें देखते हैं तो हम भी परेशान हो जाते हैं, लेकिन हम अपनी बेटी के साथ लगातार संपर्क में रहते हैं. पिछली बार तो मैं दो महीने तक अपनी बेटी के साथ रहकर गई थी.” वहीं दूसरी तरफ़ कोटा हॉस्टल एसोसिएशन के अध्यक्ष नवीन मित्तल का मानना है कि आत्महत्याओं के नाम पर कोटा को जानबूझकर बदनाम किया गया है. वे कहते हैं, “अगर आप नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़ों को देखेंगे तो कोटा का नंबर बहुत पीछे आता है. कोटा सिर्फ कोचिंग सिटी ही नहीं है बल्कि यह एक केयरिंग सिटी भी है. अभी हमने कोटा स्टूडेंट प्रीमियर लीग करवाई है, जिसमें 16 टीमें थीं. ये सिर्फ इसलिए ताकि बच्चों के लिए माहौल अच्छा रहे.” वहीं दूसरी तरफ सोमवीर तायल का मानना है कि कोटा की कोचिंग इंडस्ट्री में उतार चढ़ाव आते रहे हैं. वे कहते हैं, “बीच में जब जेईई का पैटर्न चेंज किया गया तब भी कहा गया कि क्या कोटा सर्वाइव कर पाएगा. उससे भी कोटा मजबूती से बाहर आया और अपना नाम बनाए रखा और मुझे उम्मीद है कि कोटा इससे निपटने के लिए कोई ना कोई रास्ता जरूर निकाल लेगा.”

बीबीसी न्यूज़ से साभार

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