छुट्टी में अर्णव को जमानत, दूसरे मामले लंबित क्यों?
देश की सर्वोच्च अदालत ने दीवाली अवकाश के बावजूद आनन-फानन में सुनवाई करके अर्नब को जमानत दे दी। यह वही कोर्ट है, जहाँ लाखों मामले लंबित हैं। 8 साल से मारुति के बेगुनाह 13 मज़दूर जेल में हैं और उन्हें जमानत तक नहीं मिल पा रही है। मोदी सरकार के प्रतिशोध के शिकार तमाम पत्रकार व मानवाधिकार कार्यकर्त्ता जेलों में हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दबे ने महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं।
छुट्टी के बावजूद सुनवाई
रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ़ अर्नब गोस्वामी द्वारा मंगलवार (10 नवम्बर) को सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई याचिका पर बुधवार को तत्काल सुनवाई ऐसे समय में हुई, जब कोर्ट दीवाली की छुट्टी के लिए बंद है। सुप्रीम कोर्ट की दो जज की बेंच ने सुनवाई के बाद अर्नब गोस्वामी समेत तीन लोगों को अंतरिम ज़मानत दे दी है।
कोर्ट ने अर्नब के बचाव में उनके मामले को ‘व्यक्तिगत आज़ादी’ का हनन बताया। सवाल यह है कि यह व्यक्तिगत आज़ादी रसूखदारों या सत्ता के करीबियों के लिए ही क्यों है? जेलों में बंद उन तमाम लेखकों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, ट्रेड यूनियन कर्मियों के लिए क्यों नहीं है, जो सत्ता/पूँजीपतियों के प्रतिशोध के शिकार बनकर कैदखानों की सलाखों में हैं?
कोर्ट ख़ास लोगों पर मेहरबान क्यों?
छुट्टी के दौरान ऐसी तत्काल सुनवाई पर आपत्ति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने अदालत के सेक्रेटरी जनरल को चिट्ठी लिख ‘सेलेक्टिव लिस्टिंग’ यानी अदालत के सामने सुनवाई के लिए अन्य मामलों में से इसे प्राथमिकता देने का आरोप लगाया है।
उन्होंने कहा, “ये अदालत की गरिमा का सवाल है, किसी भी नागरिक को ये नहीं लगना चाहिए कि वो दूसरे दर्जे का है, सभी को ज़मानत और जल्द सुनवाई का हक़ होना चाहिए, सिर्फ़ कुछ हाई प्रोफाइल मामलों और व़कीलों को नहीं।”
जो सत्ता के करीबी या रसूखदार नहीं उनकी सुनवाई क्यों नहीं?
वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे ने कई ऐसे मामलों की चर्चा की, जिनमें लंबे समय से हिरासत में होने के बावजूद सुनवाई की तारीख़ नहीं मिली है या बहुत देर से दी गई है। दवे ने कहा है कि जब पहले से ही इस तरह की कई याचिकाएं लंबित हैं, ऐसे में गोस्वामी की याचिका को सुनवाई के लिए किस आधार पर तत्काल आगे बढ़ा दिया जाता है।
उन्होंने कहा, “ज़मानत और सुनवाई का हक़ ऐसे सैंकड़ों लोगों को नहीं दिया जा रहा, जो सत्ता के क़रीब नहीं हैं, ग़रीब हैं, कम रसूख़वाले हैं या जो अलग-अलग आंदोलनों के ज़रिए लोगों की आवाज़ उठा रहे हैं, चाहे ये उनके लिए ज़िंदगी और मौत का सवाल हो।”
दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के महासचिव को पत्र लिखकर पूछा है कि रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्णब गोस्वामी की याचिकाएं तुरंत सुनवाई के लिए कैसे सूचीबद्ध कर दी जाती हैं? उन्होंने कहा कि यहाँ पर गंभीर मुद्दा ये है कि कोरोना महामारी के पिछले आठ महीनों में रजिस्ट्री चुनिंदा अंदाज में मामलों को सूचीबद्ध करने में लगा हुआ है।
उन्होंने लिखा, ‘यह सबको पता है कि इस तरह मामलों की तत्काल सुनवाई मुख्य न्यायाधीश के विशेष आदेश के बिना नहीं हो सकती है। या फिर प्रशासनिक मुखिया के रूप में आप या रजिस्ट्रार गोस्वामी को विशेष तरहजीह दे रहे हैं?’
उनके समर्थन में वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने भी ट्वीट कर इसे प्रशासनिक ताक़त का ग़लत इस्तेमाल बताया। उन्होंने लिखा, “जब ससीएए, 370, हेबियस कॉर्पस, इलेकटोरल बॉन्ड्स जैसे मामले कई महीनों तक नहीं सूचीबद्ध होते, तो अर्नब गोस्वामी की याचिका घंटों में कैसे सूचीबद्ध हो जाती है, क्या वो सुपर सिटिज़न हैं?”
किन मामलों में ‘अवकाश पीठ’ गठित हो सकता है?
सुप्रीम कोर्ट की छुट्टियों के दौरान मुख़्य न्यायाधीश एक या ज़्यादा जजों की ‘वेकेशन बेंच’ का गठन कर सकते हैं, जो बहुत ज़रूरी मामलों की सुनवाई कर सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट की हैंडबुक के मुताबिक़ जिन मामलों में मौत की सज़ा सुनाई गई हो, ‘हेबियस कॉर्पस याचिका’, प्रॉपर्टी गिराए जाने की आशंका के मामले, जगह ख़ाली कराने के मामले, मानवाधिकार उल्लंघन के मामले, सार्वजनिक महत्व के मामले, ज़मानत अर्ज़ी बर्ख़ास्त करने के ख़िलाफ़ दायर मामले या अग्रिम ज़मानत के मामलों को बहुत ज़रूरी माना जा सकता है।
अब सवाल यह है कि किस आधार पर ‘अवकाश पीठ’ गठित हुई? जबकि अर्नब गोस्वामी समेत तीन लोग आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में जेल में हैं। नौ नवंबर को बॉम्बे हाईकोर्ट ने तीनों को अंतरिम ज़मानत देने से इनकार कर दिया था, जिसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया और तत्काल पीठ गठित करके सुनवाई भी हो गयी!
हजारों मामले सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं
सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट के मुताबिक़ एक नवंबर 2020 को अदालत में 63,693 मामले लंबित थे। पिछले साल भाजपा सरकार के एजेंडे के तहत कई संविधान पीठ गठित हुए और आम नागरिकों, मज़दूरों, सरकार की मुखालफ़त करने वालों के मामले सूचीबद्ध ही नहीं हुए।
इस साल कोरोना महामारी और लॉकडाउन की वजह से अदालत के काम पर बड़ा असर पड़ा और केवल ‘विशेष’ मामलों कि सुनवाई हो रही है। कई मामले तो मज़दूरों की नौकरी व ज़िन्दगी से जुड़े हुए हैं, जिनकी कहीं सुनवाई नहीं हो रही है, ना ही वे सूचीबद्ध हो रहे हैं।
दुष्यंत दवे ने कहा, “कोरोना से जुड़ी बंदिशों से पहले 15 बेंच बैठा करती थीं, पर अब 7-8 ही बैठती हैं और वो भी कम समय के लिए, छोटे वकीलों के मामले पीछे हो रहे हैं और रसूखवाले वकील सुनवाई करवा पा रहे हैं, ऐसे में तकनीकी बदलाव लाने होंगे और एक-एक केस की लड़ाई नहीं बल्कि सिस्टम को ठीक करना होगा।”