कोरोना आपदा दवा कंपनियों, मेडिकल स्टोर, निजी अस्पतालों और डॉक्टरों के लिए बड़ा अवसर बन गई। होलसेल रेट से 10 गुना एमआरपी से लूट पर सुनील सिंह बघेल की रिपोर्ट…
होलसेल रेट से 10 गुना एमआरपी …और रोजाना लुट रहे लाखों मरीज
कोरोना काल में लोग जब अपनी सांसें और ऑक्सीजन लेवल गिन रहे थे, तब फार्मा कंपनियों ने जमकर मुनाफा कमाया। लोगों पर आई यह आपदा दवा कंपनियों, रिटेल मेडिकल स्टोर संचालकों, निजी अस्पतालों और कुछ डॉक्टरों के लिए बड़ा अवसर बन गई।
दवाओं पर एमआरपी होलसेल रेट से 10 गुना ज्यादा तक वसूली गई। जैसे कोविड-19 के इलाज में रेमडेसिवर इंजेक्शन का खूब इस्तेमाल हुआ। हेट्रो कंपनी के 1 इंजेक्शन की एमआरपी 5,400 और होलसेल कीमत 1,900 थी। इसके 6 इंजेक्शन का कोर्स 32,400 रुपए में पड़ा।
वहीं 800 एमआरपी वाले कैडिला के 6 इंजेक्शन के पूरे कोर्स की कीमत महज 4,800 रुपए थी। यानी एक ही दवा के दाम में 27,600 का अंतर। इसी तरह सिप्ला के एंटीबायोटिक इंजेक्शन मेरोपैनम के 10 डोज की कीमत 36,000 है, जबकि मायलान फार्मा के इतने ही इंजेक्शन 5,000 रुपए में मिल जाते है। यानी 31 हजार रुपए का अंतर।
ट्रायोका फार्मा के इसी एंटीबायोटिक इंजेक्शन पर एमआरपी भले 2,400 हो, लेकिन इसका होलसेल रेट सिर्फ 221 रु. है।

कंपनी एक, जेनेरिक-ब्रांडेड दवा के होलसेल रेट में भारी अंतर
दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात के दवा बाजारों की पड़ताल में सामने आया कि ब्रांडेड दवा के नाम पर फार्मा कंपनियां इनके दाम 1000 से 1500% तक बढ़ा देती हैं। बड़ी कंपनियां खुद ब्रांडेड और जेनेरिक दवा अलग-अलग कीमतों पर निकालती हैं। ब्रांडेड में जहां 20% मार्जिन है वही ब्रांडेड जेनेरिक में 80% तक मार्जिन होता है।
उदाहरण के लिए सिप्ला कंपनी की ब्रांडेड एंटीबायोटिक ओमनिक्स-ओ की एमआरपी 175 है। यह रिटेलर को 20% कम यानी 140 रु. में मिल जाती है। जबकि सिप्ला इसी ड्रग को सेफिक्स-ओ नाम से भी बनाती है। उस पर एमआरपी तो ब्रांडेड से भी ज्यादा 220 रु. होती है, लेकिन 10 टेबलेट की होलसेल प्राइस सिर्फ 52 रुपए है।
नाम बदला और दवा ‘मूल्य नियंत्रण’ सूची से होती है बाहर
दवा की कीमतों पर नियंत्रण व निगरानी नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी करती है। यह ज्यादातर कंट्रोल्ड कैटेगरी की सिंगल मॉलिक्यूल दवा की एमआरपी तय करती है। कंपनियां इसी का फायदा उठाती हैं। जैसे कोविड-19 के इलाज में दी गई एंटीबायोटिक डॉक्सीसाइक्लिन। कंपनियों ने इसकी कॉम्बिनेशन ड्रग बनाई, नाम बदला और यह मूल नियंत्रण सूची से निकल गई। एसिडिटी की पुरानी, सस्ती दवा ‘एसीलॉक’ का मामला भी ऐसा ही है।

बड़ा सवाल… एक ही दवा के दाम अलग-अलग क्यों हों?
कंपनियां क्यों डलवाती हैं मनमानी एमआरपी?
पीएम जनऔषधि केंद्र को दवा सप्लाई करने वाले एक कंपनी के मालिक अनैतिक मुनाफाखोरी की पुष्टि करते हैं। वे सवाल करते हैं, ‘हम औषधि केंद्र और कंपनियों दोनों को एक भाव पर दवा देते हैं। लेकिन, कंपनियां मनमानी एमआरपी डलवाती हैं और कई गुना महंगे भाव पर बेचती हैं। ऐसा क्यों?
जनऔषधि केंद्र पर एमआरपी अधिक क्यों?
मेडिकल एक्टिविस्ट डॉ. पीयूष जोशी सवाल करते हैं, ‘देश में खुले 8,000 से अधिक जनऔषधि केंद्र जब 20-80% तक छूट देने का दावा करते हैं तो उनकी दवाओं पर भी इतनी ज्यादा एमआरपी क्यों है? असली कीमत क्यों नहीं?
मतलब साफ है कि यहां भी दवा माफिया की घुसपैठ हो चुकी है।’

आईएमए का तर्क : केंद्र सरकार ब्रांडेड दवा का सिस्टम बंद कर दे
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. जेए जयलाल कहते हैं, ‘सरकार को ब्रांडेड दवा का सिस्टम बंद कर देना चाहिए। ब्रांड प्रमोशन ही लूट की जड़ है। वहीं ऑल इंडिया केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट एसोसिएशन के सचिव राजीव सिंघल कहते हैं कि होलसेलर, मेडिकल शॉप का 35% मार्जिन जोड़कर एमआरपी डाली जाए।
‘दैनिक भास्कर’ से साभार