औद्योगिक दुर्घटनाओं में प्रतिदिन औसतन 3 मज़दूर गँवाते हैं जान, 47 होते हैं घायल

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मौत का सिलसिला जारी: अब बरेली की फैक्ट्री में 4 मज़दूरों की मौत, 4 गंभीर। भयावह तस्वीर: 2020 में फैक्ट्रियों के 32,413 हादसों में 1,050 श्रमिकों की मौत हुई और 3,882 श्रमिक बुरी तरह घायल हुए।

उत्तर प्रदेश के बरेली से 20 किलोमीटर दूर फरीदपुर थाना क्षेत्र के जेड गांव में एक फैक्ट्री में बुधवार देर शाम लगी भीषण आग में काम कर रहे 4 मजदूर फंस गए और उनकी जलकर दर्दनाक मौत हो गई जबकि 4 अन्‍य गंभीर रूप से घायल हो गए। हादसे के वक्त फैक्ट्री में 50 कर्मचारी काम कर रहे थे।

यह तो महज एक बानगी है। हालत लगातार गंभीर होती जा रही है। ताजा आँकड़े उस भयावहता की एक तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं, जिनको कारखानों के मजदूर लगातार झेल रहे हैं। हालांकि स्थिति उससे भी ज्यादा भयावह है, क्योंकि बड़े पैमाने पर मामले सामने ही नहीं आते।

इसके बावजूद प्राप्त तथ्य बताते हैं कि पिछले 10 सालों में खतरनाक दुर्घटनाएं और उनमें श्रमिकों की मौत की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं और बुरी तरह से घायल श्रमिकों की संख्या में 27 फीसदी की वृद्धि हुई है।

दरअसल ये हादसे नहीं हैं, बल्कि मुनाफे की आंधी हवस में मज़दूरों को मौत के मुहँ में धकेलना है। बगैर सुरक्षा उपकरणों और असुरक्षित परिस्थितियों में फैक्ट्रियों में मज़दूरों से खतरनाक काम तक कराया जाता है। मज़दूर पापी पेट के लिए जान जोखिम में डालकर काम करने को मजबूर होते हैं और अंग-भंग, विकलांग होने से लेकर अकाल मौत के शिकार बनते हैं।

एक साल में 32,413 फैक्ट्री हादसे

डाइरेक्टरेट जनरल फैक्ट्री एडवाइस सर्विस एंड लेबर इंस्टीट्यूट (DGFASLI) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार साल 2020 में विभिन्न औद्योगिक संस्थानों में 32,413 श्रमिक दुर्घटनाएं हुईं। जिनमें 1,050 श्रमिकों की मौत हो गई और 3,882 श्रमिक बुरी तरह घायल हो गए। यह खबर ‘द हिंदू’ अखबार में आज 11 मई को प्रकाशित हुई है।

प्रति दिन दुर्घटनाओं में 3 श्रमिक की मौत, 47 होते घायल

26 फरवरी, 2019 को ‘बिजनेस लाइन’ अखबार में छपी रिपोर्ट के अनुसार हर दिन 47 फैक्ट्री मज़दूर घायल होते हैं और तीन दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। अखबार ने श्रम और रोजगार मंत्रालय के आंकड़ों के हवाले से लिखा था कि तीन वर्षों (2014-2016) में, देश भर में कारखानों में हुई दुर्घटनाओं में 3,562 श्रमिकों की जान चली गई, जबकि 51,124 घायल हो गए।

इन तीन वर्षों में मौतों के मामले में गुजरात (687), महाराष्ट्र (482) और तमिलनाडु (296) शीर्ष तीन राज्य हैं। जबकि 33,000 से अधिक कारखाने के कुल घायल श्रमिकों का 65 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और गुजरात का है, जो शीर्ष तीन राज्यों में शामिल हैं।

श्रम और रोजगार मंत्रालय के महानिदेशालय फ़ैक्ट्री सलाह सेवा और श्रम संस्थान (DGFASLI) द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत के पंजीकृत फ़ैक्ट्रियों में 2017 से 2020 के बीच दुर्घटनाओं के कारण हर दिन औसतन तीन मज़दूरों की मौत हुई है और 11 घायल होते हैं।

वर्कर्स यूनिटी में छपी रिपोर्ट के अनुसार नवंबर 2022 में इंडिया स्पेंड ने DGFASLI में सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत प्राप्त आंकड़ों और इस पर एक विस्तृत रिपोर्ट जारी के अनुसार, भारत में रजिस्टर्ड फ़ैक्ट्रियों में हर साल होने वाली दुर्घटनाओं में 1,109 मज़दूरों की मौत हो गई और 4,000 से अधिक मज़दूर घायल हुए।

वहीं अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा 2015 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, हर साल, दुनिया भर में 3,50,000 से अधिक मज़दूरों की मौतें औद्योगिक दुर्घटनाओं के कारण होती हैं और इन दुर्घटनाओं की वजह से 31.3 करोड़ गंभीर घायल होते हैं।

इतनी सारी औद्योगिक दुर्घटनाओं और श्रमिकों की मौत के बावजूद भी सिर्फ 10 लोगों को कारखाना अधिनियम के नियमों का उल्लंघन करने के लिए सजा हुई और श्रमिकों को सिर्फ 3 करोड़ रुपए की क्षतिपूर्ति मिली।

वास्तविक आँकड़े इससे भी भयावह

सरकारी तौर पर जारी ये आँकड़े औद्योगिक दुर्घटना, उसमे श्रमिकों की मौत और उनके घायल होने की वास्तविक संख्या को उजागर नहीं करते हैं। क्योंकि-

1- ज्यादातर मामले उजागर ही नहीं होते, जिन्हें जालिम मालिक दबा देते हैं। घटनाओं के बाद शिकार मज़दूर को ज्यादा से ज्यादा किसी निजी चिकित्सक/अस्पताल में भेजकर प्रबंधन छुटकारा पा लेता है।

2- जो मामले उजागर हो जाते हैं उनमें से ज्यादा मामलों को पुलिस, प्रशासन व श्रम विभाग की मिलीभगत से प्रबंधन रफा-दफा कर देता है।

3- श्रम विभागों में अधिकारी-कर्मचारी बेहद कम हैं और ज्यादातर पद रिक्त हैं। हालत ये हैं कि लेबर इंस्पेक्टर के 50 फीसदी से ज्यादा पद खाली हैं। ऐसे में संतोषजनक आंकड़े इकट्ठा कर पाना भी बहुत मुश्किल है।

4- सबसे अधिक फैक्ट्रियाँ अनौपचारिक क्षेत्र में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की हैं, जिनमे अधिकांश हिस्से जांच के दायरे में ही नहीं आते हैं।

5- औद्योगिक संस्थानों में आज बड़े पैमाने पर ठेका प्रथा, ट्रेनी, नीम ट्रेनी का धंधा चल रहा है। दुर्घटनाओं के शिकार ऐसे अस्थाई मज़दूरों के मामले को बड़े पैमाने पर दबाना ज्यादा आसान होता है। ऐसे में मालिक अपनी जिम्मेदारियों से लगातार बच जाता है और मामले दब जाते हैं।

6- भारत में श्रमिकों की सुरक्षा मामले में वैसे भी कानून बेहद कमजोर व पेचीदा हैं। जैसे जहां ईएसआई लागू है वहाँ मुआवजा कानून (कंपनसेसन ऐक्ट) लागू नहीं होगा। जो सीमित कानून हैं, उनका भी पालन नहीं होता है।

ये हालात तो तब हैं, जब पुराना कानून लागू है, जिसमें संघर्षों से कुछ अधिकार प्राप्त हैं। अब मोदी सरकार द्वारा मज़दूरों को बंधुआ बनाने वाले जो नए लेबर कोड लागू होने वाले हैं, जिनसे ये सीमित अधिकार भी छिन जाएंगे, उनसे तस्वीर और भयावह होगी!