इस सप्ताह : दमन व प्रतिरोध की कविताएं !

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पिंजरातोङ की बहादुर बेटियों – नताशा और देवांगना के समर्थन में …….

पिंजरा तोड़

बेटी बचाओ
बेटी पढ़ाओ
बघारने वालों
तैयार हो जाओ

बेटी बचेंगी
बवंडर बनेंगी
बेटी पढेंगी
बगावत करेंगी

दमन के मुंह से
वे न डरेंगी
आसमाँ अपना
ले कर रहेंगी

पङ जाएंगी छोटी
जेलें तुम्हारी
तोङ हर पिंजरा
बेटी लङेंगी

परिवर्तन की
हवाएं बनेंगी
तेरे पतन की
कहानी लिखेंगी …


दमन / लैंग्स्टन ह्यूज़

अब सपने उपलब्ध नहीं हैं
स्वप्नदर्शियों को
न ही गीत गायकों को

कहीं-कहीं अन्धेरी रात
और ठण्डे लोहे का ही
शासन है
पर सपनों की वापसी होगी
और गीतों की भी

तोड़ दो
इनके क़ैदख़ानों को

(मूल अंग्रेज़ी से अनुवाद : राम कृष्ण पाण्डेय)


क़ैद / पूनम तुषामड़

और कितनी चिनोगे
तुम दीवारें
मुझे क़ैद करके ।

मैं सेंध लगा दूँगी
हर दीवार में
बना दूँगी मार्ग
अपनी मुक्ति का ।

ग़र्क कर दूँगी
हर दर-औ-दीवार को
दीमक बन कर

कब तक रखोगे
तुम मुझको
रास्तों से बेख़बर

मैं हर रास्ते को
मंज़िल में बदल डालूँगी ।


पहले वे आये / पास्टर निमोलर

पहले वे आये कम्युनिस्टों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।
फिर वे आये ट्रेड यूनियन वालों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था।
फिर वे आये यहूदियों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।
फिर वे मेरे लिए आये
और तब तक कोई नहीं बचा था
जो मेरे लिए बोलता।

(जर्मन कवि और फासीवाद विरोधी कार्यकर्ता पास्टर निमोलर की यह कविता आज के समय में भारत पर बिलकुल सही साबित हो रही है।)


आदमखोर / नागार्जुन

आदमखोर
ये यहां भी हो सकता है!
आदमखोर
ये यहां भी हो सकता है!

अब तक छिपे हुए थे उनके दाँत और नाख़ून।
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त रहे थे भून।
छाँट रहे थे अब तक बस वे बड़े-बड़े क़ानून।
नहीं किसी को दिखता था दूधिया वस्‍त्र पर ख़ून।
अब तक छिपे हुए थे उनके दाँत और नाख़ून।
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त रहे थे भून।

मायावी हैं, बड़े घाघ हैं, उन्हें न समझो मन्द।
तक्षक ने सिखलाए उनको ‘सर्प नृत्य’ के छन्द।
अजी, समझ लो उनका अपना नेता था जयचन्द।
हिटलर के तम्बू में अब वे लगा रहे पैबन्द।
मायावी हैं, बड़े घाघ हैं, उन्हें न समझो मन्द।